एक मुलाकात-अंक-25-त्रिलोक महावर

‘एक मुलाकात’ व ‘परिचय’ श्रृंखला में इस पिछड़े क्षेत्र से जुड़े हुए और क्षेत्र के लिए रचनात्मक योगदान करने वाले व्यक्ति के साथ बातचीत, उनकी रचनाओं की समीक्षा, उनकी रचनाएं और उनके फोटोग्राफ अपने पाठकों के साथ साझा करेंगे।
हमारे इस अंक में प्रस्तुत हैं देश में साहित्य के क्षेत्र में अपनी खास उपस्थिति रचने वाले श्री त्रिलोक महावर जी! आपने अपने सिविल सेवा के महती कार्य में से समय चुरा कर साहित्य को समर्पित किया। पूरे एक जिले की कमान हाथ में होना बड़ी जिम्मेदारी होती है। उस जिम्मेदारी को अपने कंधे पर रखकर मस्तिष्क को कविताओं की दुनिया में रखना एक अविश्वसनीय कार्य है परन्तु आपसे मिलने के बाद अविश्वसनीय नहीं रह गया है। क्यों, क्योंकि आपने इसे भली भांति निभा लिया है।
अपने साहित्यिक गुरू लाला जगदलपुरी जी के साथ जगदलपुर की सड़कों में भटकने वाले त्रिलोक जी उस समय अपनी साहित्यिक बिरादरी में चकित नजरों से देखे जाते थे क्योंकि आपमें और लालाजी में उम्र में काफी फासला था। पर कहते हैं न पानी बहने को रास्ता खोज ही लेता है और ज्ञान की चाहत भी गुरू की ओर खिंची चली जाती है। आप दोनों की जुगलबंदी आपके नौकरी के सिलसिले में बाहर रहने के बावजूद लालाजी के अंतिम दिनों तक बनी ही रही।
आपके पास साहित्य के वो मोती उपलब्ध हैं जो आपके रचना संसार को भी सजा रहे हैं। लालाजी के साथ बितायें दिनों की यादों में लालाजी के विचारों का जखीरा है, लालाजी की विभिन्न विषयों पर विशेषज्ञता के आप महत्वपूर्ण गवाह हैं।
आपकी कविताओं में विशेष पकड़ है। प्रकृति के इर्द गिर्द घूमती आपकी रचनाओं में मानव मन को उनके सहारे चित्रित करना आपका महत्वपूर्ण शगल है। आपकी कोमल रचनाएं आपके कार्यकाल में आपके जनप्रिय होने का साक्षात सबूत हैं। वास्तव में प्रकृति का कवि हो जाना व्यक्ति के संत में बदल जाने की परिणिती है; पेंट शर्ट वाला संत!
इस दौर में कवि की रचनाओं की तुलना अन्य कवियों से करके एक तरह से कवि की अपनी, स्वयं की पहचान को छोटा करने की परम्परा जारी है। परन्तु आपने अपनी स्वतंत्र पहचान बनायी है, इसमें दो मत नहीं है।
लगातार रचनारत होकर आपने अपनी रचनाओं को पुस्तक का रूप भी दिया है। अब सेवा निवृत्त होकर आप मां सरस्वती की सेवा में लगना चाहते हैं। आइये हम साहित्य और साहित्यिक परिवेश से जुड़े कुछ ज्वलंत प्रश्न पूछते हैं।
सनत जैन-सर, आप तो साहित्य की दुनिया में रमे हैं। आप क्या मानते हैं, व्यवहार में और रचित साहित्य कितने प्रतिशत का अंतर जायज है?
त्रिलोक जी-अव्यवहारिकता से रचना व्यावहारिक पक्ष से कोसो दूर हो जाती है गढ़े गए अव्यवहारिक प्रतिमान के कारण रचना पाठक तक पहुँचने में दुरूह हो जाती है।
सनत जैन-यानी आप मानते हैं कि साहित्यकार अपने जीवन में क्या करता है और वह क्या रचता है, क्या दोनों में तारतम्य होना जरूरी है?
त्रिलोक जी-बनावट, बुनावट और यथार्थ का चित्रण तीनों मैं पर्याप्त भिन्नत्ता है फिर बनावट तो बनावट होती है मंच पर रावण के मुख से रावण के संवाद ही ठीक लगते हैं राम के नहीं।
सनत जैन-जी, वर्तमान साहित्य काल्पनिक है या वास्तविक?
त्रिलोक जी-सिर्फ चावल का एक दाना देख कर पूरी हंडिया का भात पका है या नहीं बताने में कभी-कभी गलती भी हो सकती है। यथार्थ के धरातल पर साहित्य में कल्पना उसके सामथ्र्य को बढ़ाती है। अति हवा हवाई की गति हवाई हो जाती है।
सनत जैन-आपका मतलब है कि साहित्य में कल्पना और वास्तविकता का संतुलन जरूरी है। सर, एक ओर तो साहित्य से समाज को बदलने के दावे किये जाते हैं और दूसरी ओर प्रकाशन, संपादन और लेखन से जुड़े बहुत से लोगों का चरित्र संदिग्ध होता जा रहा है; ये कैसा साहित्यिक प्रभाव है?
त्रिलोक जी-संस्कारों को साहित्य के प्रभाव से जोड़ना ठीक नहीं।
सनत जैन-अच्छा सर, हम देखते हैं कि गज़लें अब अपने विषय बदल रहीं हैं, क्या परिवर्तन जरूरी है? और यह परिवर्तन समय के कारण है या फिर गजलकारों की कमजोरी है? पहले (और आज भी) शराब व शवाब में डूबी रहती थी।
त्रिलोक जी-क्या दुश्यंत कुमार को हम भूल गए ? गजलों के विषय सीमित नहीं है जिसका अध्ययन सीमित हो वहां क्या कहा जा सकता है।
सनत जैन-हां, सही कहा सर आपने। सर, कहा जाता है कि मंचीय कवि और साहित्यिक कवि में अंतर होता है। आपके अनुसार क्या अंतर है?
त्रिलोक जी-प्रश्न कवि की रचना के स्तर का है।
सनत जैन-सही कहा सर, रचना के स्तर का ही महत्व है। मोटे उपन्यास जिन्हें लुगदी साहित्य कहा जाता है वे तो बहुत बिकते हैं, उनको मान्यता नहीं है।
त्रिलोक जी-पाठक कई तरह के होते हैं।
सनत जैन-बिल्कुल! बाजार में जिस तरह से ग्राहक की जेब देखकर सामान सजता है, ठीक वैसा ही साहित्य की दुनिया में माना जा सकता है। हिन्दी का पाठक पत्रिका / पुस्तक क्यों नहीं खरीदता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसकी पसंद के विपरित सामग्री जबरन दी जा रही है ?
त्रिलोक जी-जब कोई रचना पाठक को अपनी सी लगे तो वह उससे अवश्य जुड़ता है।
सनत जैन-सर, कहीं ऐसा तो नहीं कि एक ही तरह के विमर्श, एक ही तरह की सामग्री परोसे जाने के कारण पाठक विमुख हुआ है ? जो वर्तमान की पत्रिकाओं का ट्रेण्ड है।
त्रिलोक जी-जो रचना पाठक को जोड़ती नहीं, वह पाठक को प्रभावित भी नहीं करती। विविधता तो होनी ही चाहिए अन्यथा जीवन ही नीरस हो जाता है।
सनत जैन-हां, ये बात तो है सर, ऐसा लगता है कि साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों की कुछ ज्यादा ही विद्वता ने लोगों को साहित्य से दूर किया है ?
त्रिलोक जी-अभिव्यक्ति में दुरूहता, वाग्जाल और सम्प्रेषण की कमी इसका कारण हो सकता है।
सनत जैन-अच्छा सर, साहित्य की सफलता क्या है?
त्रिलोक जी-पाठक तक बात पहुँच जाये।
सनत जैन-तो फिर, साहित्य लिखा किसके लिए जाता है?
त्रिलोक जी-साहित्य तो साहित्य होता है जो चाहे संतरण कर ले। पाठक तो कोई भी हो सकता है।
सनत जैन-साहित्य के बारे में कहा जाता है कि वह दलितों, वंचितो आदि के लिये लिखा जाता है तो फिर सुविधाओं के बीच रहकर लेखकों द्वारा जो साहित्य रचा जाता है, क्या वह आम लोगों का साहित्य हो सकता है?
त्रिलोक जी-सवाल विषयवस्तु का है।
सनत जैन-आपके दृष्टिकोण में साहित्य का वर्तमान मूल्यांकन क्या कहता है?
त्रिलोक जी-ये मूल्यांकनकर्ता पर पूरी तरह नहीं छोड़ा जा सकता क्योंकि उसके पूर्वाग्रह मूल्यांकन को प्रभावित कर सकते है लेकिन वास्तविकता को नाकारा कैसे जा सकता है इसलिए जो है सो है, उसे वैसे ही देखना चाहिये।
सनत जैन-यानी मूल्यांकन के लिये मानक नहीं स्थापित किये जाने चाहिये बल्कि विविधतायें ठीक हैं। तो क्या सर, वर्तमान साहित्य, वर्तमान का सही ढंग से दस्तावेजीकरण कर पा रहा है?
त्रिलोक जी-यह रिसर्च का विषय है। रचनाकार और इसका परिवेश ही इसे स्पष्ट करते हैं। कमोबेश जो हो रहा है उससे इंकार नहीं किया जा सकता।
सनत जैन-इस दौर में सफल साहित्यकार की परिभाषा क्या हो सकती है?
त्रिलोक जी-यह सापेक्षिक है। हर किसी का नजरिया सफलता के लिहाज से अलग होता है। कुछ सम्मान पुरुस्कारों को ही सफलता मानते हैं, कुछ लेखन की विपुलता को तो कुछ उपयोगी लेखन को।
सनत जैन-लेकिन सर, इस दौर में जिसकी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या ज्यादा है उसे सफल माना जाता है। साहित्य में लगातार छपने वाला ही साहित्य सुधि है या गुमनाम लेखक?
त्रिलोक जी-कसौटी, रचना का दमखम है। लगातार या कम छपना नहीं।
सनत जैन-सहमत सर, रचना का दमखम ही साहित्य में सबकुछ होता है। परन्तु साहित्यिक समाज में हमेशा एक दुविधा रहती है कि साहित्यिक वरिष्ठता, उम्र होती है या फिर उनका रचित साहित्य होता है? क्या कहते हैं आप ?
त्रिलोक जी-केवल उम्र से कोई ताल्लुक नहीं।
सनत जैन-यानी वही कि रचना में दमखम ही वरिष्ठता है। पर आजकल तो साहित्य की वर्तमान परिपाटी में ‘तू मेरी थपथपा, मैं तेरी थपथपाता हूं’ चल रहा है, ये कहां तक सही लगता है आपको ?
त्रिलोक जी-प्रोत्साहन बुरा नहीं लेकिन घेराबंदी करके गलत को सहीं ठहराने का षडयंत्र पाखंड है और पाखंड सहीं नहीं हो सकता।
सनत जैन-ऐसे ही आजकल कुछ विशेष गुटों में शामिल साहित्यकारों को महत्व दिया जाता है। क्या साहित्य में सफलता के लिए किसी विशेष गुट से जुड़ा होना जरूरी है?
त्रिलोक जी-कोई जरूरी तो नहीं पसंद अपनी-अपनी ख्याल अपना-अपना; न वाद, न विवाद सीधा संवाद। मुझे जो बात जंचती है वो जंचती है। बन्दूक की नोक पर किसी को किसी भी खेमे में कैसे हकाला जा सकता है।
सनत जैन-गुटबाजी को छोड़कर जब किसी रचनाकार पर केन्द्रीत अंक प्रकाशित किया जाता है तो लोग ये क्यों मानकर चलते हैं कि पत्रिका ने उस रचनाकार से पैसा लेकर ही अंक छापा होगा ? ऐसा ही हो रहा है या फिर उस प्रश्न करने वाले का फ्रस्टेशन समझा जाये।
त्रिलोक जी-आजकल प्रायोजित कारोबार से इंकार नहीं किया जा सकता।
सनत जैन-इसका मतलब कुछ पत्रिकाएं ऐसा भी करके धन इकट्ठा कर रही हैं। सर, पत्रिका प्रकाशन वास्तव में एक कठिन काम है। ज्यादातर पत्रिकाएं एक दो डिवोटेड साहित्यकारों के जोश के माध्यम से निकलती हैं। जैसे ही एक दो वर्ष बीतता है, उनका जोश ठण्डा हो जाता है। क्योंकि न तो साहित्यकार सदस्य बनते हैं और न ही बुक स्टाॅल वाले पैसा भेजते हैं भले ही उनके स्टाॅल से पत्रिकाएं बिक जाती हैं। पत्रिका प्रकाशन, कम्पोजिंग, अन्य मेहनत का रूपया निकलना तो दूर सिर्फ जेब का पैसा ही लगता है। ऐसे निर्मम दौर में एक पत्रिका का प्रकाशक अपनी पत्रिका कैसे बेचें ? कैसे प्रकाशक अपनी पत्रिका का खर्च निकाले ?
त्रिलोक जी-आज कल यह कठिन सवाल है। विज्ञापनों के भरोसे ही काम चलता है। पत्रिका बेच कर पत्रिका निकालना बहुत मुश्किल है। अनियमित, आधा अधूरा पैसा मिल पाता हैै। आवधिक या आजीवन शुल्क भी अग्रिम मैं मिला हो तो ठीक है।
सनत जैन-इस संदर्भ में कहीं ऐसा तो नहीं कि हमने साहित्यकारों को यानी लेखकों को ही पाठक मान लिया है और उन्हें पत्रिका भेजते हैं, इस कारण पाठक तक पहुंच नहीं पाते हैं ? क्योंकि लेखक और पाठक बिलकुल दो अलग हैं।
त्रिलोक जी-कुछ हद तक सही हो सकता है। खुले बाजार में भी तो पत्रिकाएं उपलब्ध होती हैं जहाँ कोई भी खरीद सकता है।
सनत जैन-इन बातों से एक प्रश्न उठता है कि रचनाएं भेजने वाले ही पाठक हैं या फिर कोई और है ?
त्रिलोक जी-कोई भी रचनाकार, भले ही वह पाठक भी हो।
सनत जैन-सर बताइये कि प्रकाशक वास्तविक पाठक तक कैसे पहुंचे ? उन्हें अपनी से कैसे जोड़ें ?
त्रिलोक जी-पाठक तो खुद जुड़ना चाहता है, प्यासा खुद कुंए के पास आता है पर कुंए में पेयजल हो तो। मैंने किसी कुंए को विज्ञापन करते नहीं देखा।
सनत जैन-वैसे सर, नामी गिरामी पत्रिकाएं भी अर्थसंकट से जूझ रही हैं। क्योंकि हिन्दी का पाठक, भले वह लेखक ही क्यों न हो वह पत्रिकाओं के विषय में चिंता जरूर व्प्यक्त करता है परन्तु पत्रिका खरीदने में विश्वास नहीं रखता है। ये मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी है। वैसे वर्तमान हिन्दी साहित्य के परिदृश्य के बारे में आपकी राय।
त्रिलोक जी-बहुत साफ़ है। नजर में फर्क और तरह-तरह के चश्में के कारण कुछ भिन्नत्ता हो सकती है लेकिन जो है सो है की तर्ज पर वर्तमान साहित्य आइना दिखाने के लिए पूरी तरह सक्षम है। मेरे ख्याल से साहित्य गलतियों की ओर इशारा भी कर सकता है, सुधार की नसीहत भी दे सकता है। आजकल कई शक्तियों के खिलाफ प्रतिरोध की ताकत बन कर भी साहित्य ने अपनी भूमिका निभाई है। साहित्य सचेतक भी है।
सनत जैन-यानी आपका मानना है कि साहित्य में आज भी दमदारी है कि वह पाठक को अपने विचारों के माध्यम से प्रभावित कर सके। पर सर, वर्तमान टीवी, इंटरनेट, मोबाइल युग में पुस्तक पठन अथवा पुस्तक प्रकाशन में कितनी चुनौतियां आ गयी हैं ?
त्रिलोक जी-कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता, अब तो इंटरनेट के कारण भी ऑनलाइन पुस्तकें उपलब्ध हैं। हाँ, पुस्तकों के भौतिक रूप से पठन में फर्क पड़ा है।
सनत जैन-हां, ये बात तो है कि वर्तमान में व्यक्ति की पठन क्षमता काफी बढ़ गयी है। उसके हाथ में रखा मोबाइल उसे हमेशा पढ़ने की अनुमति देता है। पर साहित्य का किन कारणों से अवमूल्यन हो रहा है?
त्रिलोक जी-अवमूल्यन सापेक्ष है देश, काल, परिस्तिथि और रचनाकार के अनुसार विचार करने पर कारणों में विविधता सामने आती है। कई मामलों मंे साहित्य के प्रति दृष्टिकोण और समझ में फेर और पूर्वाग्रह भी कारण हो सकते हैं।
सनत जैन-कहीं खांचे में बंटी रचनाशीलता तो इसका कारण नहीं है ? माक्र्सवादी लेखन और राष्ट्रवादी लेखन में क्या अंतर है ? क्या हम लिखते वक्त ये वाद दिमाग में रखकर लिखते हैं ? यदि हां है जवाब तो फिर लेखन को आत्मप्रेरित कयों कहा जाता है ?
त्रिलोक जी-हर लेखन की अपनी विशेषता है।
सनत जैन-जी, ये बात सच है। हर लेखन की अपनी विशेषता होती है। परन्तु अति किसी में भी अस्वीकार्य हो जाती है। लेखन में क्या लिखना है, क्या ये साहित्य की दशा और दिशा दिल्ली वाले तय करेंगे या फिर हमें अपनी मर्जी का लिखना चाहिए ?
त्रिलोक जी-इस बारे में कोई घोषित नियम नहीं हैं, अपनी मर्जी सर्वोपरी है।
सनत जैन-आजकल यह भी एक नियम सा हो गया है, पत्रिका/ पुस्तक, विमोचन के पश्चात उसे आमंत्रित लोगों के बीच मुफत में बांटना उचित है?
त्रिलोक जी-आपकी मर्जी।
सनत जैन-और किसी भी साहित्यिक पत्रिका में छपने के लिए रचनाएं भेजना कहां तक उचित है?

त्रिलोक जी-जहाँ तक रचनाकार उचित समझे। किसी भी पत्रिका में आँख बंद कर कोई भी रचना भेजना उचित नहीं।
सनत जैन-अच्छा सर, रचनाकार को अपनी रचनाएं स्वयं होकर भेजना चाहिए या फिर पत्रिका के संपादक के द्वारा मांगे जाने पर ही भेजना चाहिए?
त्रिलोक जी-इसके लिए कोई निश्चित नियम नहीं है रचना में दम है तो उसका असर पड़ेगा ही।
सनत जैन-परन्तु सर, साहित्यिक परिदृश्य में आने का, शहरों में रहने वाले साहित्यकारों को, ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले साहित्यकारों से ज्यादा मौका मिलता है, क्या यह सच नहीं है?
त्रिलोक जी-अपनी अपनी सक्रियता की बात है। सबके लिए एक जैसा नियम लागू नहीं होता।
सनत जैन-सही है सर, जो जितना सक्रिय होगा वह उतना जनता के बीच जाना जायेगा। अच्छा सर, ये बतायें कि साहित्यिक योगदान में मात्र रचना ही होता है या फिर पढ़ना, पढ़ाना? हम साहित्य के विस्तार में किस तरह से योगदान दे सकते हैं?
त्रिलोक जी-हर संभव तरीके से।
सनत जैन-इसका मतलब साहित्यकार को पाइक भी होना चाहिये और इसलिये साहित्यकार को कम से कम कितनी पत्रिका सदस्य होना चाहिए?
त्रिलोक जी-जितना सामर्थ्य हो।
सनत जैन-पर सर, हिन्दी लेखन में तो पाठकों की समस्या है। उसे पाठक नहीं मिलते हैं। हिन्दी साहित्य आज के दौर में किस तरह पाठकों तक पहुंचे ?क्या सोशल नेटवर्किगं, इंटरनेट या लेखकों / पाठकों का स्वयं का नेटवर्क हो-हिन्दी साहित्य के प्रसार के लिए ?
त्रिलोक जी-आज के ज़माने में पहुँच के लिए कोई प्रतिबन्ध नहीं है। उन्नत तकनीक का भी सहारा लिया जा सकता है, किसने रोका है।
सनत जैन-अपने परिवार के साथ रहते हुये, पुरूष लेखक तो सफल हो जाते हैं। क्या वास्तव में सफल महिला साहित्यकार होने के लिए परिवार नामक संस्था से दूर रहना आवश्यक है?
त्रिलोक जी-ऐसा जरूरी नहीं है। परिवार की जिम्मेदारियां वहन करते हुए साहित्य मे अच्छा दखल रखा जा सकता है।
सनत जैन-हर सफल व्यक्ति के पीछे उसकी पत्नी होती है, कैसा होता है उसका योगदान?
त्रिलोक जी-गाड़ी के दो पहियों की तरह।
सनत जैन-जैसे हर सफल व्यक्ति के पीछे उसकी पत्नी होती है तो सफल महिला साहित्यकार के पीछे कौन होता है?
त्रिलोक जी-उसका परिवार और परिवेष।
सनत जैन-बढ़िया जवाब। लेखन के क्षेत्र में महिलायें भी खम्भ ठोक रही हैं। ज्यादातर लेखक अपनी मर्जी का लेखन करते हैं। उनको जो भी विसंगति दिखती है उस पर कलम चला देते हैं। पर अभी एक बात कही जाती है कि आधुनिक साहित्य रचा जाये वरना आपको आपके लेखन को कोई नहीं पूछेगा, ये बात किस हद तक सही है ?
त्रिलोक जी-देश काल की उपेक्षा कदापि नहीं की जा सकती।
सनत जैन-सर, साहित्य को आधुनिक और पुरातन में बांट दिया, वहां तक ठीक है। पर क्या रचनाओं के माध्यम से समाज में कुछ प्रभाव पड़ता भी है या लेखक लिख लिख कर रचनाएं फेंकता जाता है? अगर प्रभाव पड़ता है तो हमारी नकारात्मक रचनाओं से समाज में नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता होगा ?
त्रिलोक जी-असर तो पड़ता है इसके लिए बहुत सारे तत्व जिम्मेदार होते हैं देश, काल, परिस्तिथियाँ, सन्दर्भ, विषयवस्तु, शैली और पाठक का वर्ग चरित्र।
सनत जैन-आधुनिक हिन्दी साहित्य एजेण्डाबद्ध रहा है, सोद्देश्य, स्त्री एजेण्डा, दलित एजेण्डा, उत्तर उत्तर आधुनिकतावाद इत्यादि खांचे में फिट की गयी कहानियों का दौर रहा है- आज कल इंटरनेट से ‘कट एण्ड पेस्ट’ रचनाएं उत्तर आधुनिकता के नाम पर आ रही हैं-कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसी रचनाएं बेजान, बेस्वाद होती हैं-क्या इस तरह के लेखन से आम पाठकों को जोड़ा जा सकता है ? ऐसा लेखन वाकई साहित्यिक लेखन कहलाने लायक है ? और इसने क्या साहित्य का भला किया है ?
त्रिलोक जी-मशीनी युग में मशीनी लेखन यदि मशीनी असर देता है तो ऐतराज क्यों ? लेखन यदि संवेदना और भावनात्मक रूप से मनुष्य के हृदय से जुड़ता हो तो वह सही लेखन है। हो सकता है उसके कुछ गुण के आधार पर उसे श्रेणीबद्ध कर दिया जाये, पर क्या उससे प्रभावित करने की ताकत मे कोई अंतर पड़ेगा। मेरे ख्याल से यदि असर है तो असर पड़ेगा ही।
सनत जैन-सर, प्रश्न तो अनंत हैं भविष्य में आपसे अन्य विषयों पर भी बहुत कुछ जानना चाहेंगे। आपके राष्ट्रीय फलक में आने से हमारा बस्तर गौरवान्वित है। मैं बस्तर के तमाम साहित्यप्रेमियों की ओर आपको धन्यवाद देता हूं।