नमक का दारोगा के बहाने

नमक का दारोगा

जब भी हम दुनिया को लेखक की नजर से देखते हैं तो दुनिया वही दिखती है जो लेखक दिखाना चाहता है। परन्तु अगर हम दुनिया को अपने दृष्टिकोण से देखते हैं तब दुनिया लेखक की दुनिया से बहुत भिन्न होती है। जिस तरह अगर हम कहते हैं कि दीपक के उजाले से अंधकार दूर हुआ। ठीक इसी वक्त हम यह भी बताते हैं कि अंधकार का अस्तित्व है। बल्कि हम अंधकार को महिमामंडित ही करते हैं।
क्या आप भी वैसा देखना चाहेगे ?
चलिये देखने की कोशिश करें।
नमक का दारोगा की जगह रेत का दारोगा के शीर्षक से भी लिखी जा सकती थी कहानी। वास्तव लेखक यही तो दिखाना चाहता था कहानी में कि रिश्वतखोरी का कैसा जलवा है।
पटवारीगिरी का सर्व सम्मानित कार्य छोड़कर ……
वकीलों का मन भी इस कार्य के लिये लालायित था।
मतलब ये सारे सम्मानित कार्य उस काल में भी आम जन के शोषण के माध्यम थे।
इसके बाद एक महत्वपूर्ण कटाक्ष किया है कि अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे।
फारसीदां लोग श्रृंगार की कविताएं पढ़कर उच्च पद पर आसीन हो जाते थे।
ये दोनों बातें हिन्दी (हिन्दू धर्म) के विरोध का प्रतीक हैं । ये साबित करते हैं कि उस दौरान भी हिन्दी की दोयम स्थिति थी। (बना रखी थी।)
मुंशी वंशीधर भी जुलेखा की विरह-कथा समाप्त करके सीरी और फ़रहाद के प्रेम-वृत्तांत को ……..।
यानी ब्राहम्ण समाज भी लालचवश अपने ही धर्म को त्याग रहा था। साथ ही अपनी संस्कृति को समझने की जगह विदेशी संस्कृति को अपनाने को लालायित थे।
लड़कियां घास फूस की तरह बढ़ती जाती हैं।
ये है हमारे समाज की उस वक्त की स्थिति। भाषा से समझने का प्रयास कीजिये।
‘नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है. निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए.
इस वाक्य का क्या गूढ़ार्थ हो सकता है ? पीर मजार मात्र चढ़ावे और दान के लिये ही रची जाती हैं। वास्तव में ये उस धर्म के सिद्वांत के विपरीत है।
गरजवाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है. लेकिन बेगरज को दांव पर पाना ज़रा कठिन है.
ये जीवन भर का अनुभव वंशीधर के पिता ने अपने बेटे यानी वंशीधर को दिया। जिसे गरज हो मतलब जिसे आवश्यकता हो उसे आप मरोड़ कर जो चाहे वसूल कर सकते हो। मगर जिसे कोई गरज नहीं है उसके पीछे अपनी ऊर्जा मत लगाओ।
कलवार की आशालता लहलहाई. पड़ोसियों के हृदय में शूल उठने लगे.
समाज का कितना सुंदर चित्रण है कि पैसे आने पर पड़ोसियों की जलन बढ़ जाती है।
पंडित अलोपीदीन इस इलाके के सबसे प्रतिष्ठित ज़मींदार थे.
कितना विरोधाभास है देखिये। पंडित जी सबसे प्रतिष्ठित जमींदार!
पंडितजी ने धर्म को धन का ऐसा निरादर करते कभी न देखा था.
धर्म की इस बुद्धिहीन दृढ़ता और देव-दुर्लभ त्याग पर मन बहुत झुंझलाया.

दुनिया सोती थी पर दुनिया की जीभ जागती थी.
इस वाक्य में कितनी गहरी और अनुभव भरी बात कही है । दुनिया के लोग मात्र नैतिकता की बातें करते हैं परन्तु उसे अपने जीवन में उतारने में ढीले ढाले हैं।
पानी को दूध के नाम से बेचने वाला ग्वाला, कल्पित रोजनामचे भरने वाले अधिकारी वर्ग, रेल में बिना टिकट सफ़र करने वाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज़ बनाने वाले सेठ और साहुकार यह सब के सब देवताओं की भांति गर्दनें चला रहे थे.
जब किसी ईमानदार व्यक्ति पर किसी प्रकार की बेइमानी का लांछन लगाता है तब घोर बेइमान भी उनकी बेइमानी को लेकर नैतिकता की बात करते हैं।
कदाचित इस मुक़दमे में सफल होकर वह इस तरह अकड़ते हुए न चलते.
पंडित अलोपदीन जब कोर्ट में मुकदमा जीत कर बरी हो गये तो वंशीधर को अनुभव हुआ कि इस दुनिया में बुद्धिमान और सम्मानित समझे जाने वाले तमाम लोग किस कदर बेइमान हैं। इस अनुभव के साथ ही उसे स्वयं की ईमानदारी पर गर्व महसूस हुआ। अगर वो मुकदमा जीत जाते तो दुनिया का ये रूप न देख समझ पाते। कदाचित इस मुक़दमे में सफल होकर वह इस तरह अकड़ते हुए न चलते.
घर में चाहे अंधेरा हो, मस्जिद में अवश्य दिया जलाएंगे.
यानी घर में खाने की व्यवस्था हो या नहीं धर्म के नाम पर कुछ भी खर्च करने को तैयार रहेंगे।
वृद्ध माता को भी दुःख हुआ. जगन्नाथ और रामेश्वर यात्रा की कामनाएं मिट्टी में मिल गईं.
हा..हा..हा! है कितनी मजेदार बात! रिश्वत के पैसों से तीर्थयात्रा!
शुरूआत से अंत तक पूरी कहानी हमें यही समझाती है कि धन कमाने में नैतिकता के विचार की आवश्यकता नहीं है। बल्कि संसार भर में इसी के बल पर ही लोग सम्मानित हैं प्रतिष्ठित हैं। हर युग में ऐसा सामाजिक चरित्र प्रस्तुत होता रहता है। यानी ये सब चलता है।
इस सामाजिक चरित्र को हर युग हर काल में मान सम्मान मिला है तो फिर ये सामाजिक परम्परा में क्यों नहीं बदल गयी ? यह यक्ष प्रश्न हमारे सामाने खड़ा होता है।
पर क्या कहानीकार ने इसी सामाजिक अनैतिकता को प्रतिष्ठित करने का काम अपनी कहानी से किया है ?
नहीं! कदापि नहीं!
वास्तव में कहानी एक मंझे हुये कहानीकार की कलम से बाहर आयी है जो कहानी के तमाम नियमों और संदर्भों को भलीभांति लेकर चलती है। अपनी मर्यादा में बहती सुंदर चित्तहरण शीतल नदी की तरह ये कहानी है।
कहानी के क्लाईमेक्स में लेखक ने दृश्य चित्रित कर बताया कि उस ईमानदारी को पहचाना तो किसने पहचाना, न तो धर्मपरायण व्यक्ति ने पहचाना न ही बुद्धिजीवियों ने! उस पहचाना तो एक बेइमानी से भरे घड़े ने!
पंडित अलोपदीन ने उस ईमानदारी को पहचाना।
जिस ईमानदारी को धन के ढेर ने डिगाने की जुर्रत न कि उस गुण के मालिक को कौन डिगा पायेगा। ईमानदार चरित्र ईमानदार ही रहेगा।
ऐसे व्यक्तित्व का स्वामी ही, पंडित अलोपदीन की संपति को सुरक्षित रखने का काम कर सकता है।
भले ही उस ईमानदारी ने पंडित जी की इज्जत को सरेराह बेइज्जत किया था परन्तु उसी ईमानदारी के सहारे ही उसकी जमींदारी सुरक्षित रहना था।
यहां आपने देखा न, कहानी का वह पहलू जो हमें पूरी कहानी में नजर ही नहीं आया था। ईमानदारी की ताकत! वास्तव में हमें सत्य के महिमामंडन के लिये असत्य का ही सहारा लेना होता है।