कहानी-वंदना सहाय

वह लौट गई

‘‘लतिका, जरा फेस पैक तैयार करना!’’ कहती हुई सुवर्णा ने अपने कंधों पर बेतरतीबी से बिखर रहे बालों को हाथ में लपेट कर जूड़ा बनाया और ब्यूटी-पार्लर के कोने में रखे गए काउप पर लेट गई. रात के आठ बजने वाले थे और अब वह वाकई बुरी तरह से थक चुकी थी. सुबह के दस बजे से जो वह अपना पार्लर खोलती तो फिर उसे रात में ही जाकर फुर्सत मिलती, लगन के दिन जो आ गए थे. काउप पर लेटी सुवर्णा का दिमाग घड़ी की सुई की तरह हर सेकेन्ड घूमने लगा. वह सोचने लगी कि न जाने क्या जादू है, उसके इन साँवले और साधारण से दिखते हाथों में जो खुद खूबसूरत न रहते हुए भी जिन्हें सजाते-सँवारते हैं उनमें एक जादुई निखार-सा आ जाता है. उसके ब्राइडल-मेकअप की चर्चा दूर-दूर तक थी. साधारण रंग-रूप वाली लड़कियां भी अनिंद्य सुंदरी दिखाई देने लगती थीं उससे मेकअप करवा. बस, वह स्वयं वंचित रह जाती थी, अपनी इस जादुई छुअन से. सुबह से शाम तक जब वह सबको खूबसूरती बाँट-बाँट कर थक अपने साधारण नाक-नक्श वाले साँवले चेहरे को धो-पोंछकर आईने में निहारती, तो उसे लगता कि अपनी जिंदगी के बत्तीसवें लगन के महीने में वह फिर अनब्याही रह जाएगी.
‘‘मैम, फेस पैक तैयार हैं.’’ की आवाज से सुवर्णा के विचारों का क्रम टूटा. उसकी सहायक लतिका उसे बुला रही थी. काम निपटा, वह पार्लर बंद करवा पेवमेंट पर उसी जगह आकर खड़ी हो अपने छोटे भाई अर्पित का रोज की तरह इंतज़ार करने लगी, जहाँ रोशनी और अँधेरा आपस में लुका-छिपी खेला करते थे. पूरी तरह से रोशनी में खड़ा रहना उसे अजीब-सा लगता, जैसे सड़क पर चलती हुई हर निगाह उसे ही घूर रही हो. अंधेरे में उसे अपना वजूद छोटा लगता, जिसे वह आसानी से छुपा सकती थी. ख्याल एक बार फिर बरसाती बादलों की तरह उसके दिमाग में घुमड़ने लगे. आज अर्पित फिर देर से आएगा, ढेर-से बहाने बनाता हुआ. क्या जरूरत है उसके माता-पिता को उसे ले जाने के लिए अर्पित को भेजने की ? क्या बस यहीं उनका दायित्व समाप्त हो जाता है ? या फिर यह उनकी मध्यमवर्गीय मानसिकता है जो बेटी की उड़ान को संयमित कर स्वतंत्रता की सीमा-रेखा खींचना चाहता है ?
‘घर’ शब्द का ख्याल आते ही सुवर्णा को लगता जैसे किसी ने बिना पकाया हुआ मशरूम उसके मुँह में डाल दिया हो, बिल्कुल नीरस और बेस्वाद. इसके साथ ही उसके अपने पिता की संवेदनहीन आँखे याद आने लगती जो ज्य़ादातर शराब के नशे में लाल और क्रोधित रहती. पिता जब कभी भी उस पर या उसके अन्य भाई-बहनों पर चिल्लाते तो मां कभी भी खुलकर विरोध न कर पाती. उसकी आँखों में कसाई के घर जाती हुई गाय का बेचारगीपन झलकता.
सुवर्णा के पिता ठीक-ठाक पद पर आसीन थे और अपने परिवार का भरण-पोषण साधारणतः ठीक-ठाक ढंग से कर सकते थे, पर नशे की लत ने घर की आर्थिक स्थिति को बुरी तरह से झकझोर कर रख दिया था. पिता को न कभी अपनी बेटियों के ब्याह की चिंता होती और न ही, कभी अपने बेटों की पढ़ाई की. सुवर्णा कब अपने भाई-बहनों के साथ एक साधारण-से घर में मिलने वाले वात्सल्य से वंचित हो बड़ी हो गई, उसे पता ही न चला.
आयुष भैय्या ने तो बहुत पहले ही पिता जी से पैसे लेना बंद कर अपनी पढ़ाई ट्यूशन पढ़ाकर पूरी कर अपनी अलग-अलग ही दुनिया बसा ली थी, क्योंकि वे जानते थे कि ऐसे वात्सल्यहीन बंजर भूमि पर रिश्तों की फसल आगे उगा पाना नामुमकिन था. बड़ी दीदी अपर्णा, देखने में अच्छी थी इसलिए लड़के वालों ने स्वयं ही उसका हाथ माँग लिया था. लेकिन लड़का कुछ खास काम नहीं करता था इसलिए अपर्णा दीदी अपना ससुराल छोड़ उन्हीं लोगों के साथ रहने चली आई थी. छोटा भाई अर्पित पढ़ाई से कोसों दूर मटरगश्ती का सपना लिए घूमता था. ढ़ेर सारे शौकों को पाल रखने के कारण जब कभी जेब-खर्च तंग पड़ती, तब वह उसी के आगे हाथ पसारता था. घर में बस एक छोटी बहन नयना ही थी, जो रिश्तों के विरल वन में एक सशक्त छायादार वृक्ष का काम किया करती थी. वह छोटी बहन के पढ़ने-लिखने से लेकर और भी हर प्रकार की खर्चो को उठाया करती थी. पिता कभी भी बच्चों की दिक्कतों की समझने की कोशिश नहीं किया करते थे. वे पिता का कर्तव्य कम और अधिकार ज्यादा जताते थे. सुवर्णा के पास अब ईश्वर की दया से पैसों की कोई कमी नहीं रह गई थी. शादी के लिए उसने भले ही वांछित उम्र पार कर ली थी पर इस उम्र में उसने जितनी दौलत कमाई थी वह उसके मेहनत से ही संभव हुआ था.
उसने तो बारहवीं पास कर यूॅ ही अपने आपको घर की घुटन से दूर रखने के लिए अपनी दीदी की सहेली के पार्लर में काम सीखना शुरू कर दिया था. पर उसके काम करने का अंदाज उसकी दीदी की सहेली को इतना पसंद आया कि उसने अच्छी तनख्वाह देकर उसे अपने पार्लर में काम करने के लिए ही रख लिया. पार्लर में काम करते हुए ही सुवर्णा ने ब्यूटीशियन का कोर्स पूरा किया और अपना एक अलग पार्लर खोल लिया. और फिर यहीं से जा शुरू हुआ सुवर्णा के हाथों के हुनर का जादू तो सुवर्णा ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. आज उसका पार्लर शहर के गिने-चुने पार्लरों में से एक था.
‘‘मैं तुम्हें कब से आवाजें दिये जा रहा हूॅं और तुम हों कि सुनने की नाम ही नहीं लेती’’, सुवर्णा को लगा जैसे वह नींद से जागी हो. सामने देखा तो अर्पित बाइक पर बैठा न जाने कब से उसे आवाज़ दिए जा रहा था. उसे लगा जैसे आवाज़ कोसों दूर से आ रही हो. अर्पित की बात को अनसुनी कर अपनी आवाज़ में उठते उफान को शांत करने की कोशिश करते हुए सुवर्णा ने कहा-‘‘आज फिर से देर कर दी, मालूम है, मैं कब से तुम्हारी राह देख रही हूँ.’’ मुड़े हुए सिर पर जैसे पानी नहीं ठहरता है, वैसे ही बिना विचलित हुए अर्पित बनावटी मुस्कुराहट होठों पर घसीटता हुआ बोल पड़ा-‘‘मालूम है, आज बाइक फिर से धोखा दे गई थी. बड़ी मुश्किल से बनवाकर यहाँ तक पहुंचा हूँ. तुमसे तो कहा था कि बाइक बेच कर कार खरीद लेते हैं, पर तुमने तो ध्यान ही नहीं दिया.’’
‘‘हूँ’’, सुवर्णा अपने होठों को खींचते हुए इतना ही कह पाई. बड़े जतन से आफ्टर शेव लोशन की खुशबू से छुपाए गए शराब की महक को सुवर्णा ने पहचान कर कई अनपूछे सवालों को अपने अंदर ही समाहित कर लिया. बाइक की स्पीड के साथ भागते हुए सुवर्णा के थके हुए शरीर को बे्रक लगा. घर आ चुका था. सुवर्णा सीधे अपने कमरे में चली गई.
सुवर्णा जब फ्रेश हो गाउन डाल कमरे से बाहर निकली तो सामने चैंके में गैस चूल्हे पर प्रेशर कुकर चढ़ा था और लगता था जैसे कि कुकर अंदर ही दबाव-वश उबलकर सीटी न दे चीख रहा था. वह भी वर्षो से दबाव से उबल रही थी और आज उसका मन भी चीखने को कर रहा था. मां गुंधे हुए आटे के पहाड़ के साथ घर के सदस्यों के खाने की राह देखती. सदस्यों के रोटियाँ खाना शुरू करने के साथ ही माँ के हाथ आटे पहाड़ पर पर्वतारोहण शुरू कर देते, जो उन सबके रोटियाँ खा लेने के साथ ही स्वतः बंद हो जाते. क्योंकि उसके बाद आटे के पहाड़ का उन्नत शीर्ष कठौती को सतह से जा मिलता. सुवर्णा को देख उसकी माँ ने हुलस का पूछ लिया – ‘‘कैसा रहा आज का दिन ?’’
‘‘ठीक!’’ सुवर्णा के एक शब्द के उत्तर ने माँ की आँखों में तैर रहे ढेर सारे सवालों को धराशायी कर दिया. सुवर्णा ने जल्दी-जल्दी कटोरियों में दाल-सब्जी उड़ेला. वह खाने को बिना चबाए ही पानी से गटक जाना चाहती थी, क्योंकि उसे डर था कि कहीं उसके पिता कमरे से बाहर निकल व्यर्थ में ही अपने पिता होने का अधिकार न जता बैठे. वह रोज़-रोज़ के धुले और निचोड़ प्रश्नों के गंदे तह तक जाना नहीं चाहती थी.
वह जल्दी-से खाना खा अपने पलंग पर आकर लेट गई. साथ वाले पलंग पर अपर्णा अपने बेटे पुलक के साथ खर्राटे भर रही थी. सुवर्णा सोचने लगी कि पता नहीं इतने तनाव में भी अपर्णा दीदी को नींद कैसे आ जाती है. उसे तो लगता है जैसे कि नींद उसके आँखों को देखकर ही दूर से ही भाग जाती है. वह आशंकित हो उठी कि आज फिर उसे नींद नहीं आएगी. जेहन में घूमते ढ़ेर सारे प्रश्न उसकी आत्मा का मंथन कर उसे आलोड़ित-विलोड़ित कर जायेंगे. क्या कोई हल निकला पाएगा ? क्या कभी वह उससे मिल पाएगी जो उसकी झील-सी ठहरी जिंदगी को दरिया बना दूर बहा ले जाएगा ?
उसे कभी लगता जैसे कि उसकी सारी अर्जित की गई संपत्ति व्यर्थ है. क्या वह सिर्फ पैसे कमा दूसरों की जरूरतों को पूरा करने के लिए ही बनी है ? क्या उसकी जिंदगी उसके लिए कोई मायने नहीं रखती हैं ? पिता ने तो अपने चारो ओर संवेदनहीन शून्यता व्याप्त कर रखी है, जहां उन्हें बत्तीस वर्षीय बेटी के मन के आवाजें़ नहीं सुनाई देती थी. मां तो मादा सिकाड़ा कीड़े की तरह कभी कुछ कह ही नहीं पाई. रात जैसे-जैसे बढ़ती जाती, उसकी सोच भी बे-रोक टोक उसी प्रकार भागने लगती जैसे देर रात में सिग्नल पर जलती-बुझती पीली बत्ती में कारें.
उसके पिता जब कभी अप्रत्यक्ष रूप से उसके ब्याह न होने का कारण उसके साधारण रंग-रूप को ठहराते, तो सुवर्णा के जी में आता कि वह उनसे कह उठे कि अपनी अकर्मण्यता को मेरे साधारण रंग-रूप का नाम मत पहनाइये. यदि कभी ईमानदारी से अपना चेहरा आईनें में देखेंगे तो मेरे अति साधारण रंग-रूप का जवाब आपको मिला जाएगा. लेकिन बार-बार दोषी ठहराए जाने पर भी वह अपने पिता को जवाब नहीं दे पाती थी. चुप रहने की आदत उसे अपनी मां से विरासत में मिली थी.
बात भी कुछ ऐसी होती कि जो भी लड़के वाले उसे देखने आते, वे उसके बारे में कम और सफलता से चलते हुए ब्यूटी-पार्लर के बारे में ज़्यादा पूछते. और फिर एक बार जो उसे देखकर जाते तो फिर महीनों तक कोई जवाब नहीं देते थे. पिता अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए लड़के वालों से उनका जवाब पूछने की जहमत नहीं उठाते थे. सुवर्णा को लगता कि उसका ब्याह न होना उसके घर वालों के लिए वरदान बनकर रह गया है. वह पिता की फटी आर्थिक चादर को अपनी संपन्नता की मखमली चादर से ढँक देती. आखिर में सुवर्णा का दिमाग वहीं आकर रूक गया, जहां की यादें उसे बड़ी पीड़ा देती थीं. उसे याद आने लगा, जब उसकी मंगनी अमोल के साथ तय हो गयी थी.
सुवर्णा का दिल बरसों बाद गाने लगा था. वह ब्यूटी-पार्लर के खाली होने पर आईने पर ही ब्राइडल-मेकअप की बिंदियों को सजा आईने के सामने खड़ी हो उनके बीच में अपना चेहरा लगाकर स्वयं को दुल्हन के रूप में निहारती. उसने अब घर जल्दी लौटना शुरू कर दिया था. माँ के हाथों की बनी विधवा भेषधारिणी सब्जियों में भी अब उसे नया रंग-रोगन तैरता नज़र आता.
समय के आकाश में जिन्दगी किसी पानी लाने वाले बादल की तरह सरकती चली जा रही थी-निर्बाध. सहसा सुवर्णा को भनक लगी कि उसका होने वाला पति, अमोल पहले से शादी शुदा है और अपनी पत्नी को उसने छोड़ रखा है. वह उससे सिर्फ पैसों के लिए शादी कर रहा है. सुवर्णा का मन मोती के माले की तरह टूटकर बिखर गया.
रात में वह कब तक विचारों के झंझावात से जूझती रही, उसे पता नहीं. लेकिन तकिए का गीला हिस्सा इस बात की साफ गवाही दे रहे थे कि कल रात में वह काफी देर तक रोती रही थी.
सुबह उठी तो उसे बिल्कुल ताजगी महसूस नहीं हो रही थी. आज उसे टूटे और रंग उड़े मन की गाड़ी को समय की रफ़्तार के साथ भगाने की हिम्मत नहीं हो रही थी.
जैसे ही वह चैंके में पहुँची, माँ आज भी उसके बीमार मन की नब्ज़ न टटोल सकी. उसने हाथ में सुवर्णा को लंच-बाॅक्स पकड़ाते हुए अपनी जिम्मेदारियों का मौखिक रूप से ही निर्वाह करते हुए कहा-‘‘इंतजार करना, अर्पित को तुम्हें लाने के लिए भेजूँगी.’’
‘इंतजार’ शब्द सुनते ही सुवर्णा को लगा जैसे कि उसका मन पके कुम्हड़े की तरह जमीन पर गिर कर फट पड़ा हो. सुवर्णा तेज़ स्वर में बोल पड़ी-‘‘कोई जरूरत नहीं है, मुझे लाने के लिए अर्पित को भेजने की. मैं कोई विकलांग नहीं हूँ, जिसे व्हील-चेयर की जरूरत होती हैं. मैं एक साधारण इंसान हूँ, जो अपनी ज़िन्दगी का बोझ अपने पैरों पर उठा सकता है.’’
इतनी बड़ी बात सुवर्णा ने अपनी बत्तीस-वर्षीय जिंदगी में पहली बार अपनी माँ से कही थी. सुवर्णा के बचपन रूप से बीतने के बाद आज पहली बार मां ने सुवर्णा की आँखों मंे प्रत्यक्ष आँसू देखे थे. उसके अस्फुटित शब्द आज घनघोर गर्जना कर गए थे. सुवर्णा की आवाज़ आज पहली बार घर की दहलीज को लाँघकर बाहर चली गई थी.
सुवर्णा लगभग भागती हुई घर से बाहर निकल गई. उसके आँसू जो वर्षो से आँखों से गिरकर रूमाल के तहों में खो जाया करते थे, सहसा निडर हो सड़क पर चलते लोगों की अपनी उपस्थिति का एहसास दिलाने लगे.
पार्लर पहुँच अपने केबिन में आकर सुवर्णा हथेली पर गाल टिका अपने आॅफिस चेयर पर बैठ गई. आज का दिन उसे भले ही वह सब कुछ न दिला सकता था जो उसके ज़ख्मों पर मरहम का काम करता. लेकिन आज का दिन उसके पार्लर के व्यवसाय के लिए महत्वपूर्ण था. एक बड़ी विदेशी कंपनी के उत्पादों की एजेंसी सुवर्णा को मिलने वाली थी, जिसमें काफी मुनाफा होने की संभावना थी. मन में किसी तरह की उमंग न रहते हुए भी उसने एजेंसी लेने के लिए हामी भर दी थी.
यंत्रवत् सुवर्णा कंपनी से आए सेल्स के लोगों के साथ सौंदर्य प्रसाधनों की विशेषताएँ सुन रही थी. सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली कंपनी का दावा था कि ये कुछ खास प्रकार के उत्पाद हर बेनूर चेहरे और आँखों को नूर प्रदान करते हैं. वे करिश्मा कर जाते हैं.
अपने क्षीण हाथों में सुवर्णा उन उत्पादों को लेकर सोचने लगी कि क्या ये उत्पाद उसके भी बेनूर आँखों और चेहरे को नूर दे करिश्मा कर जाएँगे ?


वंदना सहाय
249, यजुर्वेद
दीक्षित नगर, नाटी रोड, नागपूर-440026
मो.- 09325887111

 

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