अंक-29 पाठकों से रूबरू-साहित्य बनाम संघर्ष

साहित्य बनाम संघर्ष

 

इस डिजिटल युग में सबकुछ तो डिजिटल हो चुका है। इलाज, मार्केटिंग, सेल्स, बैंकिंग, मनोरंजन, गेम्स और साहित्य भी! इस दौर में हर पुरानी पद्धति अपने आप को बचाने में जी जान से जुटी है।

इस दौर की सुकून भरी एक ही बात दिखायी पड़ती है और वो है पुरानी पद्वति का डिजिटलीकरण मतलब पुरानी बातों का अंत नहीं हुआ है बल्कि स्वरूप बदल गया है। पुरानी बातें या चीजें आज भी तरोताजा हैं। चूंकि हमें साहित्य पर विचार करना है इसलिये साहित्य के बारे में ही विचार करेंगे।
इसमें कोई शक नहीं कि पुराने दौर की तरह आज भी पढ़ने का शौक जीवित है। पहले जिस तरह अखबार के टुकड़े को भी पढ़ा जाता था ठीक वैसे ही आज भी पढ़ने की ललक बनी हुयी है। एक घटना सुनायी जाती थी जिसे लघुकथा, कहानी, समाचार सभी रूप में लाया गया था। वो घटना थी कि एक बार ठेले पर भजिया खाते हुये व्यक्ति ने भजिया परोसे गये अखबार की कतरन में एक गुमशुदा की तलाश वाला काॅलम पढ़ लिया और फिर उस गुमशुदा तक पहुंच गया। ये छोटी सी घटना जितनी उनके मिलन को चित्रित करती है उससे कहीं ज्यादा ये घटना व्यक्ति के पढ़ने की ललक को भी बताती है रेखांकित करती है।

साहित्य या यूं कहें कि भाषा के लिये ये राहत भरी बात है कि आज भी इस ललक से कहीं कई गुना ज्यादा ललक विस्तारित हुयी है। जब से एंड्रायड मोबाइल ने जन-जन के हाथों में पैठ बना ली है तब से हर कोई पढ़ने का कार्य पहले से कहीं ज्यादा कर रहा है। बल्कि इस दौर ने शिक्षा के महत्व को समझाने में सरकार के प्रयासों से कहीं ज्यादा काम किया है। पढ़ने के महत्व को कहीं ज्यादा रेखांकित किया है।

खैर! जैसा कि हर पुरानी बात से, हर पुरानी पद्धति से, हर पुरानी परम्परा से जो लगाव होता है वहीं सामाजिक -पारिवारिक द्धंद का कारण होता है। हर कोई जिस परम्परा के साथ जीवन जिया होता है वह उसे बचाने की पुरजोर कोशिश करता है बजाय नयी चीजों को स्वीकार करने के। ये बात अलग है कि कोशिश कितनी सफल होती है वह किसी को पता नहीं।

पहले कहानी, एक कहानी ही होती थी। वह कह कर बताने वाली चीज होती थी। मौखिक रूप से परिवार और समाज में अपनी उपस्थिति बनाये रखती थी। इस दौर में मनोरंजन के साधन नाट होते थे जो बाद में नाटकों में बदल गये। कहानियां पुस्तकों में बदल गयीं। एक दौर ऐसा था कि पुस्तकें भी सिंगरेट की तरह नशा देती थीं। उस दौर का एक लेखक आज भी अपने जेहन में पुस्तक की उस खुशबू को सहेज कर रखा है। कभी-कभी उनसे चर्चा करने पर लगता है कि वे लेखक कहानी और कहानी की विषयवस्तु से कहीं ज्यादा उस पुस्तकी खुशबू के करीब हैं। अगर वो खुशबू न आये तो रचना ही बेकार!
नाटकों को फिल्मों ने लील लिया। फिल्मों को टीवी सीरियलों ने लील लिया। अब टीवी को नेटफ्लिक्स जैसे इंटरनेट चैनलों ने लीलने की कमर कस ली है।
कहानियों को फिल्मों ने पल्लवित किया। पुस्तकों को टीवी ने उमेठा। अब पुस्तकों को मोबाइल ने लगभग लील लिया है। ये बात अलग है कि कहानियां अब भी हैं वे नहीं मरी हैं वे जीवित हैं परन्तु भीड़ में। एक ऐसी भीड़ में जैसी भीड़ कुम्भ के मेले में होती है और उस भीड़ में कोई खो जाता है। उसे ढूंढना कितना कठिन होता है समझ सकते हैं।

कविताओं और कहानियों के नये प्लेटफार्म बन गये हैं सोशल मीडिया। व्हाॅट्सएप, फेसबुक, यू ट्यूब आदि। वेबसाइट्स भी एक सशक्त माध्यम बन कर खड़ी है। परन्तु समस्या है कि इस भीड़ में अपना बेटा कैसे ढूंढें ?

सोशल मीडिया ने भाषा के विस्तार में बेहतरीन कार्य किया है। पढ़ने के महत्व को समझाया है। और साहित्य का विस्तार भी किया है। पहले के दौर में कहानियां और कविताएं पढ़ने वाले होते थे और उनकी प्रतिक्रियाएं पत्र के माध्यम से मिलती थीं। और उसमें एक बेसब्री, उत्सुकता, एक जिज्ञासा होती थी। उसे अनुभूत करना वर्तमान पीढ़ी के लिये असंभव है। क्यों ? क्योंकि आज तो रचना सोशल मीडिया के प्लेटफार्म पर आते ही पसंद और नापसंद कर दी जाती है। जितनों को पढ़ना है वे उसे पढ़ लेते हैं।

इस दौर में रचनाएं अल्पजीवी हो गयी हैं। ये एक महत्वपूर्ण रेखांकन है। साहित्य का ये एकदम नवीनतम बदलाव है। आप और हम आज पुराने लेखकों से बात करते हुये हमेशा सुने होंगे कि फलां लेखक की फलां रचना शानदार थी। यह कहते हुये उस रचना की कुछ पंक्तियां भी जस की तस सुना दी जायेंगी। परन्तु आज के दौर में ऐसा होना बेहद बिरली घटना मानी जा सकती है। रचनाओं के अल्पजीवी होने का कारण क्या है, इस पर कभी शांत मन से और बगैर पूर्वाग्राही हुये विचार करने पर क्या पाते हैं हम ?

रचनाओं की भीड़! रचनाओं की भीड़ ही है इसका कारण। पहले चुनिन्दा पत्रिकाएं थीं और उन पत्रिकाओं की सीमा और क्षमता भी सीमित होती थी। इसलिये भरपूर पाठक और कम लेखक होते थे। लेखकों की कम संख्या उनकी राष्ट्रीय पहचान बनाने में सहायक होती थी।

पाठक उनके लिखे को ध्यान से पढ़ता था और फिर अपनी प्रतिक्रिया भी देता था। बिलकुल एक हीरो सी फीलिंग! दौर बदल गया। प्रकाशन कार्य एकदम आसान हो गया। जल्दी से जल्दी पाठकों तक पत्रिकाएं पहुंचने लगीं। पत्रिकाओं की संख्या ने एक ओर नये लेखकों को प्लेटफार्म दिया तो दूसरी ओर एक खास वर्ग के लेखकों की भीड़ भी तैयार कर दी। ऐसे लेखक जो लेखक कम, चाटुकार और पहुंच वाले होते हैं। इनकी स्तरहीन रचनाओं की भीड़ ने पाठकों को दिग्भ्रमित कर दिया। वे बेचारे जो पढ़ना चाहते थे वह तो मिलता ही नहीं था। वे इसलिये साहित्य के रसिया होते हुये भी साहित्य से विमुख हो गये। बेमकसद के विमर्श, ढर्रे पर लिखी कहानियां, हमारी जीवन शैली के विपरीत विषयों पर लिखी रचनाएं; इन्होंने एक ऐसा कोलाज बना दिया कि लेखक और पाठक दोनों ही अनजान हो गये एक दूसरे से। बदलते बदलते आज का दौर ऐसा हो गया कि एक लेखक अपने पाठक के लिये नहीं लिखता है बल्कि वह एक दूसरे लेखक के लिये लिखता है। मतलब यथार्थ के धरातल में लेखक के पाठक लेखक ही हैं। साहित्य ने अपने उद्देश्य से भटक कर अपनी मंजिल ही बदल ली है।

और एक सरल पाठक आज भी अपने लिये लिखी रचनाओं की खोज में मुंह बाये चैराहे पर खड़ा है। उसके पास कोई राह ही नहीं है कि वह अपने लिये लिखी रचनाओं को झट से खोज ले। उसे तो अपने लिये लिखी रचनाओं को खोजने के लिये भी भारी भरकम तथाकथित साहित्य के महामार्ग से गुजरना ही पड़ेगा। उसे महान साहित्यकारों की रचनाओं के दलदल में डूबकर ही मोती खोजने की थकान भरी और उबाऊ प्रक्रिया से गुजरना ही होगा। तब भी कोई गारंटी नहीं कि कुछ अच्छा पढ़ने को मिल जाये।

पाठक के लिये जब एक निर्वात तैयार होने लगता है तब उसे हपटने के लिये कुछ न कुछ आ ही जाता है। जैसे कि एक दौर में टीवी ने हपटा। और आज सोशल मीडिया के मनोरंजन ने हपट लिया तो एकदम वर्तमान में इंटरनेट के वाहियात चैनलों ने झपट्टा मारा है। पाठक के पास पढ़ने की हार्दिक इच्छा होते हुये भी पढ़ने के लिये कुछ भी नहीं है। न ही इस विषय पर विचार करने के लिये ही कोई है। यहां तो धड़ाधड़ लेखन का काम चल रहा है एक फैक्टरी की तरह माल बन रहा है, एक रूप, एक भाव, एक साथ, एक ही समय! एक दौर था जब कहा जाता था कि स्वप्रेरित लेखन ही मौलिक लेखन होता है। और अब! अब तो साल के तीन सौ पैंसठ दिनों के लिये दिवस घोषित कर दिये गये हैं। उस दिवस के दिन सीधे बगैर मेहनत के सांचे में मिट्टी डालो, माल तैयार! पटक दो सोशल मीडिया पर! लाखों लेखकों की भीड़ में दो पांच लेखकों की ( ? ) लाइक पाकर छाती फुला लो। ये संाचाबद्व लेखन ही कचरे का ढेर बढ़ा रहा है। वास्तविक पाठक को तो सांचाबद्ध लेखन देखते ही पेज पलट देना चाहिये, ये तरीका उसके समय की बचत करेगा ही, इसकी गारंटी है। ऐसे लेखनों में शून्य ही हासिल होगा। वैसे कुछ लोग इस तरह की खोज करके कुछ नया शोधपरक आलेख लिख सकते हैं।

प्रिंट मीडिया यानी पत्रिकाएं, संकलन, अखबारों के साहित्यिक पन्ने आदि वर्तमान दौर में अंतिम सांसें गिन रहे हैं। और जो छप भी रहे हैं तो सिर्फ और सिर्फ मुद्रक की तिजोरी भरने के लिये। प्रकाशक वे ही बन बैठे हैं। विषयचयन, टायपिंग, एडिटिंग, सबकुछ लेखक के भरोसे, और ’प्रकाशक’ का काम सिर्फ मुद्रण करना। ऐसे में गुणवत्ता की बात करना मूर्खता के अलावा और कुछ नहीं हो सकता है।

’प्रकाशक’ मुद्रण का पूरा चार्ज वसूल करते हैं और माल लेखक को ही दे देते हैं। कुछ जुगाड़ू प्रकाशक दीमकों के लिये लाइब्रेरियों में सप्लाई करते हैं। हम लेखक ये मान कर चलते हैं कि लेखक को मेहनताना मिलता है, रायल्टी मिलती है। और वास्तविक धरातल पर मिलता है ठेंगा!

अखबारों में खबरें आती हैं कि फलाने लेखक की पुस्तक फलाने प्रकाशन से प्रकाशित हुयी जिसकी दो लाख प्रतियां बिक गयीं। या फिर फलाने लेखक को दस लाख रूपये में अगली पुस्तक के लिये प्रकाशन ने साइन किया है। ये सब पढ़कर भारतीय लेखक अपने गाल पर उंगली रखकर विचारमग्न हो जाता है कि हम उन जैसा क्यों नहीं लिख पाते हैं। हमारा लेखन दोयम है। इसी फ्रस्टेशन में सारा जीवन व्यतीत कर लेते हैं। यहां वर्तमान दौर में पत्रिका में रचना प्रकाशन का मानदेय तक नहीं दिया जाता है रायल्टी और साइनींग अमाउंट की सोचना तो दिवा स्वप्न है।

वैसे यहां एक दूसरा पहलू भी है। विदेशों में झूठी खबरें गढ़ना, झूठा प्रचार एक सामान्य सी बात मानी जाती है। विदेशी साहित्य का पिछलग्गू बना हुआ हिन्दी साहित्य इसलिये फ्रस्टेशन में जीना पसंद करता है। हमने स्वयं ही अपन जड़ों को खोदा है। हमने अपने तमाम प्राचीन लेखकों को नकार दिया है। उनके अस्तित्व पर प्रश्न उठाया जाता है तो कभी उनके लेखन को कूड़ा मान लिया गया है। हम पश्चिमी लेखन से अपने लेखन की तुलना करते हैं जबकि पूर्वी और पश्चिमी लेखन होने के कारण आपस में उनकी तुलना ही असंभव है।

खैर! महत्वपूर्ण प्रश्न है कि एक पाठक को कौन देखेगा, उसके लिये बने निर्वात को कौन भरेगा ? कौन उनके बारे में विचार करेगा ? उनकी पसंद नापसंद का कौन ध्यान रखेगा ? उनके लिये रचनाओं का एकत्रीकरण और सुलभता से पहुंच कौन तय करेगा ? आखिर किस तरह एक पाठक की क्षुधा शंात होगी ?

वर्तमान दौर में एक ही माध्यम इसके लिये नजर आता है और वह है ’साहित्यिक वेबसाइट’! साहित्यिक वेवसाइट के माध्यम से यदि एक ईमानदार संपादक श्रेष्ठ रचनाओं का संग्रह तैयार कर दे तो फिर उस वेबसाइट को हमेशा पढ़ना चाहेंगे। व्हाट्सएप और फेसबुक की वाॅल पर परोसी गयी रचनाओं से परहेज कर वेवसाइट की ओर जाना ही एक सही और समर्पित पाठक के लिये उपयुक्त होगा। वह कुछ वेबसाइटों के मैटर को पढ़कर समझ जायेगा कि इनमें कुछ तो है या कुछ भी नहीं है। इसके बाद वह अपने खाली समय में उस वेबसाइट पर नजर आयेगा।

सोशल मीडिया के अन्य साधनों में अपनी बुद्धि और समय खपाने से अच्छा ये तरीका है। धीरे धीरे ऐसे लेखकों की रचनाएं एकत्रित होने लगेंगी।
घास में सुई ढूंढने का मुहावरा वर्तमान दौर में साहित्य के लिये सार्थक सिद्ध हो रहा है।

चलो वेबसाइट की ओर!

पुराने दौर की बातों को एक मीठी याद मानकर उसके मजे लेना तो ठीक है परन्तु उसे एक सच्चा स्वप्न मानकर उसमें ही डूबे रहना, शायद खुद को धोखे में रखना ही माना जायेगा।

समय के अनुकूल खुद को परिमार्जित करना ही एक विचारसमृद्ध लेखक की पहचान है। यहां इस बात को ध्यान में रखा जाये कि पुस्तकें भी किसी की जमीन छीन कर ही खुद को स्थापित की थीं।

चूंकि हमारे देश में ऐसी मानसिकता को खाद पानी दिया गया है कि विदेशी माल और गोरी चमड़ी उच्च श्रेणी का होता है। अतः ये सामान्य सोच ही है कि विदेशी लेखन, विदेशी शैली और विदेशी विषयवस्तु ही मान्य है। नैतिकता से प्रतिदिन की शुरूआत करने वाला भारतीय परिवार कैसे एक अनैतिक विषय पर निर्बाध कलम चला सकेगा ? किस तरह वह अपनी कलम के प्रति समर्पित हो पायेगा। वैसे भी दुनिया में स्वयं का अनुभव ही सच्चा अनुभव होता है तब किस तरह दुनिया एकरेखीय होगी। जीवन की विविधता ही इस लंबे जीवन की पोषक होती है। साहित्यकार और साधु के लिये इसलिये ही यात्रा का महत्व कितना महत्वपूर्ण है ये हमेशा से स्थापित सत्य माना जाता है।

जीवनयात्रा में सत्य की खोज या आत्मचिंतन एक ऐसा विषय है जो अंतहीन है। खैर! वर्तमान में एक क्षुधायुक्त पाठक और एक शीतल जलस्त्रोत रूपी लेखक का मिलन बड़ी समस्या है। जितनी बड़ी समस्या है उसका उतना ही छोटा हल भी है।

धीरे धीरे ही सही इंटरनेट के इस दौर ने साहित्य की फसल को लहलहाने की पूरी स्वतंत्रता दे दी है। कोलाज के बीच पीली रोशनी की एक लकीर साफ नजर आने लगी है। अब शायद पुराना लेखकीय फीस का दौर भी आयेगा। परन्तु अभी दूर दूर तक संभावना नहीं दिख रही है। अभी एकत्रीकरण का दौर है। साफ जल का एक ओर एकत्रीकरण चल रहा है। पाठक भी अपनी पसंद और नापसंद का निर्णय कर पा रहा है। उसके सामने भी भीड़ में भटकने की उर्जा समाप्त सी होने लगी है। लेखकीय समाज पुनः श्रेष्ठ की चाह में भटक रहा है। कुछ छोटे छोटे गुट बने हैं जो आज भी खुद ही खुद को श्रेष्ठता के प्रमाणपत्र बांट कर खुद को स्थापित मानकर चल रहे हैं। सोशल मीडिया के दौर बेहद कुशलता से ऐसे लोगों के शरीर से वस्त्रहरण करना शुरू कर दिया है। वस्त्रहीन जनों की अलग ही टोली बनकर मस्त है। वो दिनरात रामायण और महाभारत की तरह ग्रंथ रच रही है, ऐसा वे मान रहे हैं।

खैर! प्रसन्नचित्त रहने पर रक्त में वृद्धि होती है अतः मानव स्वभाव होना चाहिये कि उनको प्रसन्नचित्त रहने दिया जाय। इतना तो कम से कम नेक कार्य किया ही जाना चाहिये।

साहित्य का भविष्य उज्जवल है। सोशल मीडिया ने इसमें अपनी महती भूमिका अदा की है और भविष्य में भी इसकी नौका से ही मंजिल तक पहुंचा जायेगा। हम केवल इतना ही करें कि वेबसाइट की ओर चलें। वहीं पर ही हमारी क्षुधा का निवारण हो सकेगा। वर्तमान में हमें केवल साहित्य की बेल को पानी डालते रहना है ताकि ये धुंध वाला वातावरण कहीं भ्रम न पैदा कर दे। तो फिर चलें हम……साहित्य से श्रेष्ठ साहित्य की ओर……!

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