साक्षात्कार-डॉ कौशलेन्द्र मिश्र

‘एक मुलाकात’ व ‘परिचय’ श्रृंखला में इस पिछड़े क्षेत्र से जुड़े हुए और क्षेत्र के लिए रचनात्मक योगदान करने वाले व्यक्ति के साथ बातचीत, उनकी रचनाओं की समीक्षा, उनकी रचनाएं और उनके फोटोग्राफ अपने पाठकों के साथ साझा करेंगे।

हमारे इस अंक में प्रस्तुत हैं एक ऐसे साहित्यकार से बातचीत, जो साहित्यकार होने के साथ ही साथ अपने समय के एक जागरूक नागरिक भी हैं। उनकी कलम सामाजिक विसंगतियों को जिस सावधानी से लिखती है ठीक उतनी ही सावधानी से राजनीतिक विसंगतियां भी लिखती है। देश में घटने वाली हर घटना पर उनकी पैनी नजर होती है। उनकी कलम से हर घटना की समीक्षा होती है, एक जिम्मेदार नागरिक की तरह! वैसे भी साहित्य को अपनी सुविधा के लिये कुछ लोगों ने एक खांचे में फिट करने का दुस्साहस किया है। उन्होंने बड़ी चतुराई से अपनी सोच को साहित्यिक साबित किया हुआ है और अपने विरोधियों की सोच व लेखन को झट से राजनीतिक साबित कर देते हैं।
राष्ट्रवादी सोच व लेखन ऐसे कुछ एजेण्डाकारों के लिये साहित्यिक लेखन की श्रेणी में नहीं आता है और मजे की बात ये है कि उनका देश विरोधी, समाजतोड़क लेखन साहित्य का बेस होता है।


जातिवाद के विरोध में कलम घिसने वाले आरक्षण का हल नहीं लिखते बल्कि सामाजिक विद्वेष की अग्नि को हवा देते नजर आते हैं। अल्पसंख्यक अधिकारों के लिये लड़ते हुये बहुसंख्यकों के अधिकारों को भूल जाना उनकी फितरत है।
खैर! डाॅक्टर साहब अपनी कलम को बड़ी ही शांति से समाज और देश के हित में चलाते रहते हैं ये विचार किये बिना कि उनके दोस्त ज्यादा बन रहे हैं या दुश्मन। वर्तमान दौर की साहित्यिक चापलूसी के माहौल से दूर अपने लेखन में मस्त और अपने दायरों का भरपूर उपयोग करते हुये अपने लेखन को जन जन तक पहुंचाते भी हैं। वास्तव में लेखन और विचारधारा का लोगों तक पहुंचना भी जरूरी लगता है। शायद तब ही हमारा लेखन हमारी मेहनत सार्थक होती है।
परिवार, समाज, नगर, देश और दुनिया की घटनाओं के साथ जुड़े रहना वर्तमान में अति आवश्यक महसूस होता है। डाॅ. साहब अपने पेशे आयुर्वेद के साथ उतनी ही ईमानदारी से जुड़े हुये हैं। उनकी लगनशीलता ऐसी है कि राह चलते पौधों की विशेषताएं बताते रहते हैं। दवाओं के मिश्रणों से नवीन चिकित्सा दवा का निर्माण करते रहते हैं।
आइये हम उनके साथ बातचीत कर देश दुनिया, साहित्य को उनके दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करें। सनत जैन – अपनी कर्मभूमि बदल लेना सफलता का सूत्र तो नहीं ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – सफलता-असफलता कर्म का परिणाम है जो कर्मयोग पर निर्भर होता है, कर्मभूमि गौण है। सफलता के लिये कर्मभूमि में परिवर्तन अनिवार्य नहीं है। यूँ, जगत परिवर्तनशील है, कृष्ण को मथुरा छोड़कर सौराष्ट्र जाना पड़ा, राम को अवध छोड़कर दक्षिण कौशल आना पड़ा… यह सब तत्कालीन परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
सनत जैन – कभी बस्तर का सौन्दर्य लूटने लोग आते थे और अब बस्तर का सौन्दर्य मुद्रित करके बेचा जा रहा है, इस कथन से कितना इत्तफाक रखते हैं आप ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – प्राकृतिक सौन्दर्य के पिपासु आज भी बस्तर आते हैं, आगे भी आते रहेंगे। आधुनिक तकनीक के व्यापारिक उद्देश्यों को रोका नहीं जा सकता। बस्तर ही नहीं, दुनिया भर में जो भी सौंदर्य है वह सब बेचा जा रहा है, बिकता रहेगा …जब तक उसके क्रेता मिलते रहेंगे।
सनत जैन – हिन्दी को अंग्रेजी निगल पायेगी या नहीं ? हिन्दी की दुर्दशा का कारण कौन है ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – जो भाषा व्यावहारिक प्रचलन में नहीं रह पाती वह लुप्त हो जाती है। दुनिया की कई भाषायें पूरी तरह लुप्त हो चुकी हैं किंतु हिन्दी जैसी सशक्त भाषा का लुप्त हो पाना सम्भव नहीं दिखता। जब तक देववाणी संस्कृत और हिन्दी की आंचलिक बोलियों का अस्तित्व है तब तक हिन्दी का भी अस्तित्व बना रहेगा। विदेशों में लोग हिन्दी और संस्कृत दोनों भाषायें सीख रहे हैं। भारत से लेकर मारीशश, सूरीनाम और गुयाना तक हिन्दी की आंचलिक बोलियों की भरमार है जो हिन्दी को कभी लुप्त नहीं होने देंगी। हिन्दी पर अंग्रेज़ी का आक्रमण उस सांस्कृतिक और राजनीतिक आक्रमण का एक भाग है जिसको रोक सकने में भारतीय, विशेषकर हिन्दीभाषी लोग असफल रहे हैं। हिन्दी में विदेशी मूल के शब्दों के अनावश्यक व्यवहार ने भाषा के कलेवर और उसके गठन को प्रभावित किया है जिसे रोकना होगा। हिन्दी एक बहुत गौरवशाली, सुसंस्कृत और लालित्यपूर्ण भाषा है जिसे आंचलिक बोलियाँ निरंतर सींचती रहती हैं। हिन्दी को जीवित रखने के लिये हमें उसकी प्राणस्वरूप आंचलिक बोलियों, मुहावरों, लोकगीतों और अन्य लोक-विधाओं को बनाये रखना होगा ।
हिन्दी की दुर्दशा के कारणों में पहला और प्रमुख कारण है हिन्दी के प्रति लोकानुराग में न्यूनता। दूसरा प्रमुख कारण है भारतीय भाषा-बोलियों के प्रति विदेशी राजाओं का विद्वेष जिसके कारण भारतीय भाषाओं को राजकीय संरक्षण मिलने के स्थान पर उन पर प्रतिबंध लगाया जाता रहा। मुस्लिम शासनकाल में राजकाज की भाषा-बोली के लिये अरबी, फ़ारसी और हिन्दी को गूँथकर उर्दू के रूप में एक नयी भाषा को प्रचलन में लाया गया । उसके बाद राजकाज की भाषा-बोली में योरोपीय भाषाओं ने प्रवेश किया जिसमें पुर्तगाली, डच, फ्रेंच और स्पेनिश की अपेक्षा अंग्रेज़ी को सफलता मिली । तकनीकी शब्दों के लिये हमने वैदिक शब्दावली का उपयोग लगभग पूरी तरह बंद कर दिया और योरोपीय शब्दों को अपना लिया जबकि रूस, चीन, फ्रांस, ज़र्मनी आदि देशों ने वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों के लिये अंग्रेज़ी का बहिष्कार कर दिया, हम ऐसा नहीं कर सके, जो हिन्दी के प्रति हमारा बहुत बड़ा अपराध है । फिर भी, नासा के वैज्ञानिकों के संस्कृत के प्रति झुकाव को देखते हुये मेरा विश्वास है कि आने वाले समय में वैज्ञानिक शब्दों के लिये संस्कृत का व्यवहार विश्व की विवशता होगी और तब हिन्दी और भी सशक्त होगी ।
सनत जैन – दलित या महिला लेखन के लिए कहा जाता है कि उनका उस कोटि से होना आवश्यक है तब ही वास्तविक लेखन होता है। यह कथन कहां तक न्यायसंगत है ? एक ओर दलित आरक्षण भी आखिरकार सवर्णों के द्वारा ही तो दिया गया था। यानी उस वक्त सवर्णों ने ही दलित समाज की चिंता की थी।
डाॅ. कौशलेन्द्र – लेखन कला को इस तरह के वर्गीकरण में बाँटा जाना किसी भी दृष्टि से न्याय संगत नहीं कहा जा सकता । लेखन के लिये किसी समूह विशेष का प्रतिनिधि होना आवश्यक नहीं होता, प्रत्युत उस तरह की दृष्टि का होना आवश्यक होता है । भिखारी पर कोई कविता लिखने के लिए भिखारी होना आवश्यक नहीं है । यदि आप “मानव शरीर रचना विज्ञान” के “भ्रूण-विकास” का अध्ययन करें तो पता चलेगा कि भ्रूणीय विकास के प्रारम्भिक काल में हम सब अर्धनारीश्वर होते हैं । जन्म के बाद भी मनुष्य के अंदर स्त्री और पुरुष दोनों के ही न्यूनाधिक गुण होते हैं । इसलिए महिला लेखन के लिये महिला होना अनिवार्य नहीं है । स्त्री चरित्र चित्रण के लिये जो दृष्टि शरत चंद्र के पास थी, बूढ़ी काकी के चरित्र चित्रण के लिये जो दृष्टि मुंशी धनपत राय के पास थी वैसी दृष्टि अन्यत्र मिल सकी है क्या! मैं साहित्य लेखन को परकाया प्रवेश विद्या मानता हूँ । साहित्यकार को अपने पात्र के चरित्र के अंदर प्रवेश करना होता है …इसके बाद तो वह दलित भी हो जाता है, स्त्री भी, राजा भी और रंक भी । साहित्य का ही एक और दृष्टव्य स्वरूप है अभिनय । दोनों ही समाज के दर्पण हैं, अंतर मात्र इतना है कि साहित्यावलोकन के समय पाठक को दृश्य रचना भी स्वयं ही करनी होती है जबकि चलचित्र में यह कार्य पहले से ही कर दिया जाता है । कोई कलाकार अपने पूरे जीवन में कई प्रकार की भूमिकाओं में जीता है । इसका आशय यह हुआ कि वह एक ही जीवन में कई जीवन जीता है दलित, शोषक साहूकार, नायक, खलनायक, विक्षिप्त, वैज्ञानिक, वह कौन सा जीवन नहीं जीता! साहित्यकार हों या राष्ट्र के नीतिनिर्माता, उनका संवेदनशील होना आवश्यक है । दूसरी बात यह कि वैदिक ऋचाओं के दृष्टाओं में स्त्रियाँ भी हैं और सवर्णेतर भी । स्त्रियों और सवर्णेतरों के साथ वैदिक संस्कृति में कभी कोई भेदभाव नहीं किया गया । जिन स्त्री ऋषियों ने वैदिक ऋचाओं में अपना योगदान किया है वे केवल ज्ञान की दृष्टा रही हैं, किसी वर्ग या जाति की नहीं।
सनत जैन – खूब पढ़ना ही साहित्यकार की रचनाओं में निखार लाता है, या फिर खूब लिखना साहित्यकार की रचनाओं में निखार लाता है ? या फिर लेखक भी किसी कलाकार की भांति ईश्वरप्रदत्त विशेषकृपा का मालिक होता है।
डाॅ. कौशलेन्द्र – स्वाध्याय एक उपकरण है जो किसी भी साहित्यकार की सृजनशीलता को पोषित और परिमार्जित करता है । किसी रचना का लिखा जाना एक अंकुरण है …जो स्वभाववश होता है । कभी-कभी लेखन अनायास भी होता है, लेखन की यह प्रसव वेदना रचनाकार को बाध्य करती है, तब रात को बिस्तर से उठकर मुझे तुरंत लिखना होता है । कई बार, जब मैं कुछ लिखना चाहता हूँ तो प्रयास करके भी नहीं लिख पाता, एक बार तो एक कविता लिखने में मुझे कई साल लग गये, और कई साल बाद जब कविता तैयार हुयी तो वह मेरी श्रेष्ठ रचनाओं में से एक बन गयी । क्रिएटिव राइटिंग के पाठ्यक्रम भी किसी स्क्रिप्ट की तकनीक के लिये तो आपको तैयार कर सकते हैं किंतु “रघुवंश महाकाव्यम”, “रामचरितमानस” या “राम की शक्तिपूजा” जैसी कालजयी रचनाओं के लिये नहीं । साहित्य लेखन एक शोध प्रक्रिया के समकक्ष है जिसके लिये ऑब्ज़रवेशन, आइडेण्टीफ़िकेशन ऑफ़ प्रॉब्लेम्स, एनालिसिस, हाइपोथीसिस और फिर रिज़ोल्यूशन जैसी प्रक्रियाओं से होकर आगे बढ़ना होता है ।
लेखन और मशरूम के उगने में बड़ी समानता है । मशरूम….वाइल्डली ग्रोन, नॉट कल्टीवेटेड । तो मैं वाइल्डली ग्रोन मशरूम की बात कर रहा हूँ …जो धरती के सीने को फाड़ कर उगता है …मृतकोशिकाओं की देह पर ह्यूमिड वातावरण में उगता है …बिना किसी पूर्वसूचना के ।
हिमालय के सौंदर्य ने सुमित्रानंदन पंत को साहित्यकार बना दिया । कौसानी में और भी लोग रहते हैं किंतु केवल सुमित्रानंदन पंत ही लेखन कर सके । काव्य की अनुकूल स्थितियों ने उन्हें कवि बना दिया, जबकि जीवन की प्रतिकूल स्थितियों ने सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को साहित्यकार बना दिया । प्रकृति अपने नैरेशन के लिये लोगों को तलाश लेती है ।
आँखें खुली हों, मस्तिष्क सुग्राही हो, विवेचना विशद हो और विषयवस्तु लोककल्याणकारी हो तो लेखन स्वयं अंकुरित होता है । धारदार लेखन के लिये शब्द की लक्षणा या व्यञ्जना शक्ति का प्रयोग अधिक प्रभावी होता है । रही बात शिल्प की तो उसकी बुनावट के लिये अभ्यास और निरंतर परिमार्जन की आवश्यकता होती है ।
सनत जैन – वर्तमान में इंटरनेट के कारण साहित्य का पतन हो रहा है ? क्या साहित्य को इंटरनेट बगैर डकार के हजम कर जायेगा ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – अंतरजाल वह बाजार है जो पुष्प भी बेचता है और काँटे भी, मधु भी बेचता है और मिर्च भी, अमृत भी बेचता है और विष भी, ज्ञान भी बेचता है और अज्ञान भी । हमारी आवश्यकता, रुचि और क्षमता के अनुरूप हम उसे क्रय करते हैं । साहित्य वहाँ भी है, लेने वाले ले भी रहे हैं । अंतरजाल एक संसाधन है वह किसी साहित्य को नहीं निगल सकता । हाँ! उसने पुस्तक को अवश्य कुछ सीमा तक निगल लिया है ।
सनत जैन – साहित्य में समाजवाद, गांधीवाद, प्रगतिवाद, दलितवाद, नारीवाद आदि का हावी होना समय की जरूरत है या फिर हमारे देश का ऊपरी साहित्यकारों का ग्रुप विदेशी थाप पर नाच रहा है ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – कोई भी “वाद” सीमाओं से आबद्ध होता है जबकि सत्य को सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता । “वाद” क्षणिक और देशज होते हैं, सार्वकालिक और सार्वदेशज नहीं । साहित्य समाज के सत्य का दर्पण है, उसकी गति अनंत है, उसकी दिशा सार्वदेशज है, उसे किसी सीमित “वाद” में बंदी बना कर नहीं रखा जा सकता । “वाद” संघर्ष को जन्म देते हैं, साहित्य का उद्देश्य संघर्ष को जन्म देना नहीं, प्रत्युत संघर्ष को समाप्त करना है । आप न तो समाज को समाप्त कर सकते हैं और न पूँजी को, दोनों हमारी आवश्यकतायें हैं, किंतु जब हम पूँजीवाद और समाजवाद की बात करते हैं तो पूँजी और समाज दोनों सीमित और संकुचित हो कर आमने-सामने खड़े हो जाते हैं । तब विवाद उत्पन्न होते हैं और “वादसंघर्ष” प्रारम्भ हो जाता है । पूँजीवाद के घोर विरोधी साम्यवादी चीन को भी अंततः पूँजी उदारीकरण के लिये बाध्य होना ही पड़ा । यही बात प्रगतिवाद, नारीवाद और दलितवाद आदि के लिये भी है । क्या स्त्री और पुरुष के बिना समाज पूर्ण हो सकेगा! जिनके कान कच्चे हैं उन्हें दूर देश के “वाद” सुहावने लगते हैं । इस सुहानेपन के बाद भी भारत में वोल्शेविक क्रांति नहीं हो सकी । गम्भीरता से देखा जाय तो कोई भी “वाद” का प्राणांत अपने सृजनकर्ता के साथ ही हो जाया करता है । गांधी के साथ ही उनका “वाद” भी विदा हो गया । अब जो रह गया है वह उसका कलेवर मात्र है । गांधी के जीवन में ही गांधीवाद की प्रतिस्थापना नहीं हो सकी । गांधी के जीवनकाल में ही उनके विरोधियों की संख्या कम नहीं थी । श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेष्टा श्रीकृष्ण की नीति पर कितनी रीति बन सकी! सब कुछ श्रीकृष्ण के साथ ही विदा हो गया । समाजवाद भी लोहिया जी के साथ चला गया ।
सनत जैन – आपको क्या ऐसा महसूस होता हैं कि युवा अवस्था में बनी विचारधारा कभी बदली नहीं जा सकती है ? या यूं कहें कि जीवन में युवा अवस्था में हुआ मानसिक विकास ही पूरे जीवनकाल का आधार स्तंभ होता है ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – विचारधारा में परिवर्तन का होना मानसिक विकास का ही एक लक्षण है । देश-काल-वातावरण और तत्कालीन परिस्थितियाँ हमारे जीवन और विचारों में परिवर्तन का कारण बनती हैं । स्वयं, मेरे मानसिक विकास की यात्रा में बाल्यकाल से क्रमशः गांधी, नेहरू, सुभाष, वीर सावरकर, नाथूराम गोडसे, माओ जे दांग, शोपेन्हॉर, महर्षि कणाद, महर्षि गौतम और योगीराज श्रीकृष्ण का महत्वपूर्ण स्थान रहा है । हर विचारक ने मुझे वैचारिक ऊर्जा दी है । इस विकासयात्रा में कहीं मैं आकर्षित हुआ हूँ और कहीं विकर्षित हुआ हूँ । विकास के लिये आकर्षण और विकर्षण, संकल्प और विकल्प, स्वीकार और अस्वीकार से होकर ही आगे बढ़ना होता है । जब हम नेहरू और गांधी को स्वीकार कर रहे होते हैं तो ठीक उसी समय हम हम सुभाष चंद्र बोस और नाथूराम गोडसे को अस्वीकार कर रहे होते हैं । जब हम माओ जे दांग और शोपेन्हॉर को स्वीकार कर रहे होते हैं तो ठीक उसी समय हम योगीराज श्रीकृष्ण को अस्वीकार कर रहे होते हैं । जब हम महर्षि चार्वाक को स्वीकार कर रहे होते हैं तो ठीक उसी समय हम महर्षि कणाद प्रभृति को अस्वीकार कर रहे होते हैं । युवावस्था में दस्यु जीवन व्यतीत करने वाले वाल्मिकि साधु बन गये । युवावस्था में मूर्ख कहे जाने वाले कालिदास प्रख्यात विद्वान हो गये । जीवन का आधार स्तम्भ वह संस्कार है जो किसी व्यक्ति को अपने जन्मदाताओं से मिलता है और जिसे वह व्यक्ति अपने जीवन में अनूदित करता है ।
सनत जैन – सामान्य तौर पर विदेशों में लिखा हुआ सबकुछ साहित्य माना जाता है और भारत में लिखे वेद पुराण, रामायण, महाभारत से लेकर चाणक्य नीति आदि को न तो साहित्य माना जाता है न ही यथार्थ माना जाता है, ये कैसी विडम्बना है ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी । पूरब को शेक्सपियर अच्छे लगते हैं और पश्चिम को कालिदास । दुनिया को अंग्रेज़ी लुभाती है और नासा के वैज्ञानिकों को संस्कृत आकर्षित करती है । जो गुणग्राहक हैं, जिन्हें साहित्य की परख और समझ है वे कभी वैदिक और वेदोत्तर रचनाओं की साहित्यिकता को अस्वीकार नहीं करते । प्रत्युत वैदिक ग्रंथ तो साहित्य के साथ-साथ उच्चकोटि के विज्ञान के भंडार भी हैं । इसी तरह रामायण और महाभारत इतिहास के साथ-साथ साहित्य भी हैं ।
सनत जैन – डाक्टरी पेशे के साथ साहित्य की जुगलबंदी कुछ अजीब नहीं लगती है ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – तनिक भी नहीं । हमारे वर्तमान स्वास्थ्य सचिव डॉ. आलोक शुक्ल एक अच्छे सर्जन और योजनाकार होने के साथ-साथ साहित्यकार, नाट्यकर्मी और चित्रकार भी हैं । इंदौर और ग्वालियर में आपको कुछ पोस्ट ग्रेज़ुएट डॉक्टर ऐसे भी मिल जायेंगे जो शास्त्रीय नृत्य में दक्ष हैं ।
सनत जैन – भाषा की शुद्धि से साहित्य का आकलन कहाँ तक उचित है क्योंकि यह माना जाता है कि साहित्य स्थानीय भाषा बोली में रचा जाये तो सत्य के निकट होता है; फिर भाषा की शुद्धि का प्रश्न उठाना ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – सत्य का भाषा से क्या लेना-देना! भाषा तो सम्प्रेषण का एक माध्यम है । असत्य तो अंग्रेज़ी में भी बोला जा सकता है और मैथिली में भी । जहाँ तक संस्कृतनिष्ठ प्राञ्जल भाषा और आंचलिक बोलियों का लेखन से सम्बंध है तो स्पष्टतः “साहित्य” के लिये भाषा की शुद्धता अपेक्षित है जबकि “लोकसाहित्य” को आंचलिक बोली ही जीवंत बनाती है । रघुवंशमहाकाव्यम और कामायनी का अपना आकर्षण है और लोकगीतों का अपना माधुर्य है । प्रसाद की हिन्दी में व्याकरण की अशुद्धता का कोई स्थान नहीं, जबकि आंचलिक बोली में लिखे लोकसाहित्य में व्याकरण की शुद्धता महत्वपूर्ण नहीं है । रेणु ने “मैला आँचल” के भाषाशिल्प में बड़ी कुशलता से दोनों का ही बहुत अच्छा सुयोग किया है । यह इस बात पर निर्भर करता है कि रचना के पात्र की पृष्ठभूमि कैसी है और उसकी भाषायी संप्रेषणता कैसी है ।
सनत जैन – आप इस बारे में क्या विचार रखते हैं कि धर्म और साहित्य को अलग अलग माना जाना चाहिये।
डाॅ. कौशलेन्द्र – भारतीय सनातन संस्कृति और वैदिक परम्परा में जीवन के सभी क्षेत्रों में धर्म की अपेक्षा की गयी है । धर्ममूलक राजसत्ता, धर्ममूलक शिक्षा, धर्ममूलक विज्ञान, धर्ममूलक अन्वेषण, धर्ममूलक अर्थोपार्जन, और धर्ममूलक साहित्य ही अपेक्षित, स्वीकार्य और सर्वकल्याणकारी है । जीवन का कोई भी क्षेत्र धर्म से विरत नहीं होना चाहिये, यदि है तो वह लोककल्याणकारी नहीं होगा । धर्म वह आचरण है जो हमारे कर्मों को सर्वस्वीकार्य बनाता है, इस दृष्टि से साहित्य को धर्ममूलक होना ही चाहिये अन्यथा फिर साहित्य और पोर्न लेखन में कोई अंतर नहीं रह जाएगा ।
सनत जैन – मंचीय कवि सम्मेलन से हिन्दी का भला होता है बुरा ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – मंचीय कवि सम्मेलनों में हास-परिहास और फूहड़ता को आमंत्रित किया जाने लगा है । इसकी प्रशंसा नहीं की जा सकती । आजकल के कवि सम्मेलनों का साहित्यिक स्तर स्वेच्छाचारी हो गया है । यदि रचना का स्तर और भाषा अच्छी नहीं है तो उससे सीखने वाले श्रोता विद्यार्थियों का अहित होता है और साहित्य का भी ।
सनत जैन – सामान्यतः देखा जाता है कि कोई रचनाकार जब तक अपने क्षेत्र में रहकर रचनारत रहते हैं तब तक उनकी पूछ नहीं होती है परन्तु उनके उस स्थान से बाहर जाते ही उनकी विरूदावलियां गायी जाने लगती है। ये कैसा चरित्र है साहित्य का ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – तभी तो यह कहावत बनी है “घर का जोगी जोगना, आन गाँव का सिद्ध” । यह चरित्र साहित्य का नहीं समाज का है ।
सनत जैन – ठीक ऐसे ही जब कोई साहित्यकार बाहर जाकर बड़ा और स्थापित हो जाता है तो वह अपने क्षेत्र के साहित्यकारों को भूल ही जाता है ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – (मुस्कराते हुये) वह अपनी उपेक्षा का प्रतिकार लेता है । यूँ, सभी ऐसा नहीं करते ।
सनत जैन – साहित्य की विधाओं में पर्यटन, इतिहास लेखन आदि को शामिल किया जाना उचित है ? या यूं कहें कि साहित्य के क्षेत्र कौन से हैं ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – “जहाँ न जाय रवि, वहाँ जाय कवि” । साहित्य निर्बंध है, असीमित है। यात्रा संस्मरण तो साहित्य की एक मान्य विधा है ही, किंतु इतिहास यदि सत्य निष्ठापूर्वक लिखा गया है और वह दर्पण की भूमिका में है तो मैं उसे भी साहित्य की विधा मानता हूँ । रामायण और महाभारत इतिहास भी हैं और साहित्य भी ।
सनत जैन – समस्याओं का चित्रण ही साहित्य है ? या फिर और कुछ भी है ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – साहित्य तो एक दर्पण है, उसका काम अपने सामने आने वाले हर बिम्ब को प्रतिबिम्बित करना है । रचनाकार की भूमिका मात्र इतनी ही है कि वह उसे प्रक्षेपित करता है और उसमें अपना भी मानस-संसार जोड़ देता है । साहित्य में यदि केवल समस्याओं का चित्रण मात्र होगा तब तो वह एक परिवाद पुस्तिका से अधिक कुछ नहीं होगा । साहित्य को समस्याओं के चित्रण के साथ समाधानकारक, चित्त प्रसादक, चिंतन प्रेरक और दिग्दर्शक भी होना चाहिये । यह नहीं भूलना चाहिये कि रचनाधर्मिता का लक्ष्य लोकहितकारी होता है ।
सनत जैन – कहानी का अंत या कहें कि क्लाईमेक्स होना आवश्यक है या फिर सिर्फ घटना का चित्रण ? या फिर कहें कि कहानी के माध्यम से संदेश होना चाहिये।
डाॅ. कौशलेन्द्र – हर कहानी की अपनी भी कुछ माँग होती है । यह कहानी की माँग पर निर्भर करता है कि उसका अंत कैसा हो । कहानी में घटना के चित्रण के साथ, उद्वेलन, प्रेरण, मनोरंजन और संदेश भी होना चाहिये । सबसे बड़ी बात यह है कि कहानी को अपनी स्वाभाविक गति से बहना चाहिये, बिना किसी कृत्रिमता के ।
सनत जैन – समीक्षा साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी साहित्यकार की रचनाओं का विश्लेषण किया जाता है। साहित्यकार तो अपनी पूरी मेहनत उड़ेल देता है और साहित्यिक समाज में रचनाकार की जगह समीक्षक स्थापित हो जाता है। ये कैसा दोहराव है ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – साहित्य और समीक्षक का सम्बंध हीरे और संगतराश एवं जौहरी की तरह है । हीरे को अपना मूल्य नहीं मालुम होता, संगतराश उसे निखारता है और जौहरी उसका मूल्य निर्धारित करता है । हर व्यक्ति न तो संगतराश होता है और न जौहरी होता है किंतु हर व्यक्ति हीरे को धारण अवश्य करना चाहता है । आम आदमी के पास न तो कौशल है (तथापि मैं मानता हूँ कि किसी रचना का सच्चा समीक्षक तो पाठक ही होता है) और न समय कि चमकीले पत्थरों के ढेर या पुस्तक भंडार में से अपने लिये सच्चे हीरे या उपयुक्त साहित्य का चयन कर सके । साहित्य के क्षेत्र में संगतराश और जौहरी की भूमिका समीक्षक को निभानी पड़ती है । कोई समीक्षक किसी रचना को नकार तो सकता है किंतु वह रचनाकार का स्थान नहीं ले सकता । प्रारम्भ में समीक्षा और समालोचना का उद्देश्य सीखना-सिखाना और सत्साहित्य सृजन का मार्ग प्रशस्त करना हुआ करता था किंतु बाद में इसमें बहुत विकृति आ गयी और समीक्षक एक सच्चे विश्लेषक के स्थान पर दलाल बन कर रह गया । अब जो समीक्षायें होती हैं उनका उद्देश्य पुस्तक को ऊध्र्व या अधोगति प्रदान करना होता है । बाजारवाद ने समीक्षक को मूल्यवान बना दिया है वह चाहे तो रचना को घर-घर पहुँचा दे या फिर उसे रद्दी की टोकरी में सदा के लिये फिकवा दे । जिसकी चर्चा होती वह बिकता है, जो बिकता है वह पढ़ा जाता है, जो पढ़ा जाता है वह प्रतिष्ठित और स्थापित हो जाता है । इसे हाल ही सम्पन्न हुये किसान आंदोलन से भी समझा जा सकता है । किसान उत्पादन करता है, दलाल उसका उसका मूल्य निर्धारित करता है, किसान पीढ़ी दर पीढ़ी निर्धन बना रहता है जबकि उसके उपजाये कृषि उत्पादों की दलाली करके दलाल कुछ ही सालों में करोड़पति बन कर देश-दुनिया में प्रतिष्ठित हो जाता है । टिकैत के परोसे पिज्जा-बर्गर खाकर जो किसान मर गये उन्हें कौन जानता है! टिकैत को एशिया से योरोप और अमेरिका तक करोड़ों लोग जान गये । सच्चा किसान सदा हारता है, दलाल किसान सदा जीतता है । मुंशी धनपत राय की बेटी व्याधिग्रस्त बनी रहती है, निराला अल्पायु में स्वर्ग सिधार जाते हैं और उन्हीं की रचनायें प्रकाशित करने वाले प्रकाशक कुबेर बन जाते हैं । समाज की यही व्यवस्था है, जिसके विरुद्ध न तो किसान उठकर खड़ा होता है और न साहित्यकार ।
सनत जैन – वर्तमान दौर में एक ही तरह की रचनाओं की बाढ़ आती है। अगर कहीं दंगा हो गया तो दंगा पर, जब तंदूर कांड हुआ तो उस पर केन्द्रित रचनाओं की बाढ़ से पत्रिकाएं भर जाती हैं। ये समाज के लिए सार्थक है या घातक ? समाज में इसका दुष्प्रभाव नहीं पड़ता होगा, क्योंकि ये घटनाएं तो अपवाद स्वरूप होती हैं। समाज की मानसिकता ऐसी तो नहीं होती?
डाॅ. कौशलेन्द्र – तत्कालीन घटनाओं पर समसामयिक लेखन किया जाता है, किया जाना चाहिये । ऐसे लेखन तात्कालिक होते हैं किंतु उस बाढ़ में जो रचना सशक्त और संप्रेषणीय होती है उसका लेखन सार्थक और संदेश दूरगामी होता है । दर्पण अपने सामने घटित होने वाली हर अच्छी-बुरी घटना का प्रतिबिम्ब तो प्रक्षेपित करेगा ही । अपवाद भी हमें सीख देते हैं, उन्हें अनदेखा नहीं किया जाना चाहिये । चुनाव जीतने वाले सुभाषचंद्र बोस को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाना भी अपवाद था जिसने भारत की दिशा ही बदल दी । आई.बी. अधिकारी अंकित शर्मा की चार सौ बार चाकुओं से गोद कर की गयी हत्या भी अपवादस्वरूप थी और निर्भया कांड भी अपवाद ही था किंतु इन्हीं अपवादों ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया था । मैं एक वैज्ञानिक उदाहरण दे रहा हूँ, – रोग-प्रतिरोधक टीका लेने वाले एक लाख लोगों में से यदि केवल एक व्यक्ति को ही गिलेन बार सिण्ड्रोम (ळनपससंपद ठंततम ैलदकतवउम) होता है तो यह अपवाद भी वैज्ञानिकों के लिये बहुत महत्वपूर्ण होता है ।
सनत जैन – रचनाओं के माध्यम से समाज में कुछ प्रभाव पड़ता भी है या लेखक लिख-लिख कर रचनाएं फेंकता जाता है?
डाॅ. कौशलेन्द्र – यह इस पर निर्भर करता है कि रचना में संप्रेषणीयता कितनी और पाठक की ग्रहण क्षमता कितनी है । रामायण ने समाज को कितना सुधारा ! फिर भी लोग रामायण पढ़ते हैं, श्रद्धापूर्वक पढ़ते हैं । साहित्यकार अँधकार में दीपक जलाता है, जिसे प्रकाश की आवश्यकता होगी वह उसका उपयोग करेगा । पाठक अपनी मनोवृत्ति के अनुरूप साहित्य का चयन करता है । माओ और कार्ल माक्र्स का साहित्य नयी पीढ़ी के लोगों को प्रभावित करता है किंतु गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित होने वाला साहित्य निष्प्रभावी है, ऐसा नहीं कहा जा सकता । हर अस्त्र का अपना लक्ष्य है ।
सनत जैन – अगर प्रभाव पड़ता है तो हमारी नकारात्मक रचनाओं से समाज में नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता होगा ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – बिल्कुल पड़ता है । रचना सकारात्मक हो या नकारात्मक, उसके प्रभाव दोनों दिशाओं में होते हैं । इसे यूँ समझिये, किसी फ़िल्म से एक दर्शक अपराध करना सीखता है, उसी फ़िल्म से दूसरा दर्शक आपराधिक घटना को रोकना और उससे बचना भी सीखता है ।
सनत जैन – समीक्षा को विधा के रूप में मान्यता देना मूल लेखकों की मेहनत पर पानी फेरना नहीं है ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – समीक्षा का उद्देश्य गुण-दोष के आधार पर रचना का विश्लेषण करना है । साहित्य परिमार्जन और लेखन की दिशा एवं गुणवत्ता की दृष्टि से यह अच्छा है किंतु आजकल समीक्षा करता ही कौन है! वर्तमान में की जाने वाली समीक्षा न्यूनतम समय में किसी रचना के प्रति पाठक को पढ़ने या न पढ़ने के लिये तैयार करने का एक संकेतक भर बन कर रह गयी है । मुझे लगता है कि क्या पढ़ना और क्या नहीं, यह पाठक को स्वयं तय करना चाहिये । मैं तो यह मानता हूँ कि किसी भी रचना का सबसे अच्छा व्यावहारिक समीक्षक पाठक ही होता है ।
सनत जैन – साहित्य में किस तरह से अलग अलग विचारधाराओं वाले साहित्यकारों को एक साथ लाया जा सकता है ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – सम्भव नहीं है, और ऐसा प्रयास भी करने की आवश्यकता नहीं है । जो लालूचालीसा लिखने वाले हैं उनसे हनुमानचालीसा नहीं लिखवायी जा सकती । भाट और चारण का अपना स्थान है, महाकवि कालिदास का अपना स्थान है । मैं सभी को एक मंच पर लाये जाने के पक्ष में नहीं हूँ ।
सनत जैन – आलेख व कहानी में कैसे अंतर दिखाया जाता है उदाहरण के साथ बताने का कष्ट करें।
डाॅ. कौशलेन्द्र – आलेख रचनाकार के दृष्टिकोण विशेष के साथ किसी उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ता है जबकि कहानी किसी समस्या, उसके समाधान, और कथोपकथन के साथ आगे बढ़ती है । आलेख में गम्भीरता होती है और वह मन के साथ पाठक की बुद्धि को भी प्रभावित करता है जबकि कहानी मन और हृदय को प्रभावित करती है ।
मेरे एक आलेख “पहचान के अस्तित्व का संकट” का यह अंश देखिये –
“शोषण मनुष्य की एक आदिम मनोविकृति है जो उसे जाति, धर्म और रक्त सम्बन्धों की सीमाओं को तहस-नहस करते हुये अनाधिकृत संग्रहण और सुविधाओं के दोहन के लक्ष्य को एन-केन-प्रकारेण प्राप्त करने के लिये प्रेरित करती है । शोषण अब किसी की बपौती नहीं रहा । हर व्यक्ति शोषण के अवसरों की ताक में घात लगाये बैठा है । ग़रीबी और जाति के बन्धन टूट चुके हैं, अवसर मिलते ही शिकारी अपने शिकार को दबोच लेता है । यदि वह असफल हो गया तो ग़रीबी, जाति और धर्म की दुहायी देने लगता है किंतु यदि सफल हो गया तो सीढ़ी-दर सीढ़ी चढ़ता हुआ शोषकों की अग्र पंक्ति में खड़ा होकर ताल ठोंकने लगता है । जिस दिन ग़रीब और शोषित लोग इस अवसर का परित्याग कर देंगे उसी दिन एक युगांतकारी क्रांति की नींव पड़ जायेगी” ।
जैसा कि मैंने कहा, कहानी कथोपकथनों और वर्णनों के साथ आगे बढ़ती है, उदाहरण के लिये “अथ् शुकबाला कोथा” का देखिये यह अंश-
सर्वांग सुन्दरी श्यामा शुकबाला उर्फ़ दोपदी सिंघार ठुमक कर बोली – “क्या जान लिया है, बाबू मोशाय! भला मैं भी तो जानूँ ! कैसी है शुकबाला!”
बाबू मोशाय ने कहा – “मेरे लिये गूँगे का गुड़”।
मुस्कराती हुयी शुकबाला बोली – “तब तो आप भी फ़ँस गये वामपंथी जादू में”।
बाबू मोशाय बोले – “वामपंथ का इतना विरोधी भी नहीं हूँ मैं, किंतु पेटीकोट वाली कविता बस्तर का कटु सत्य होते हुये भी अभिव्यक्ति की सारी सीमाओं को विदीर्ण करती सी लगी थी मुझे भी”।
शुकबाला बोली – “भोगे हुये कटु सत्य का वर्णन मधुर कैसे हो सकता है ? समाज के सभ्य लोग तो बहुत पहले ही सभ्यता की सारी सीमाओं को तार-तार कर चुके होते हैं । मेरी कविताओं ने तो उसके बाद ही जन्म लिया है न! रही बात अभिव्यक्ति की शालीनता की तो ऐसी घटनाओं के बाद अदालतों में आपके सभ्य वकील कितने शालीन होते हैं?”
बाबू मोशाय निरुत्तर हो गये । तभी ड्रायवर ने पास आकर कहा – “समय हो गया है बाबू मोशाय!”
सनत जैन – क्या लघुकथा और आधुनिक कविता एक ही चीज है ? एक ही विधा है ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – आधुनिक कविता में भी गद्यकाव्य की तरह काव्यात्मक लालित्य की अपेक्षा होती है, जबकि लघुकथा में ऐसे किसी लालित्य की अपेक्षा नहीं होती । अस्तु, दोनों पृथक विधायें हैं । घालमेल की बात अलग है, आज तो आधुनिकता और प्रयोग के नाम पर कुछ भी हो रहा है किंतु हर “कुछ भी” को साहित्य नहीं माना जा सकता ।
सनत जैन – माक्र्सवादी लेखन और राष्ट्रवादी लेखन में क्या अंतर है ? क्या हम लिखते वक्त ये वाद दिमाग में रखकर लिखते हैं ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – दोनों पृथक विचारधारायें हैं । पहले हमें पश्चिमी राष्ट्रवाद और भारतीय राष्ट्रवाद के अंतर को समझना होगा । पश्चिमी राष्ट्रवाद साम्राज्यवादी है, जबकि भारतीय राष्ट्रवाद वसुधैवकुटुम्बकम की भावना से ओतप्रोत है । माक्र्सवादी विचार राष्ट्र का विरोधी किंतु सत्ताविस्तार का समर्थक है । भारतीय राष्ट्रवाद राष्ट्र का समर्थक किंतु सत्ताविस्तार का विरोधी है । लिखते समय हमारे मन में विचार की वही तरंगें उठती हैं जिनसे हमारा व्यक्तित्व पोषित हुआ है और जो विचार हमारे लिये ग्राह्य है ।
सनत जैन – लेखन को आत्मप्रेरित क्यों कहा जाता है ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – इस “आत्मप्रेरणा” का “आत्म” वैयक्तिक “स्व” है, निर्विकार आत्मा नहीं । अतः लेखन ‘आत्म-प्रेरित’, अर्थात ‘स्व-भाव-प्रेरित’ ही होता है । जिनका स्व-भाव बिकाऊ माल है, उनकी बात ही निराली है । मनुष्य की चेतना को प्रभावित करने वाले तत्वों में हमारी वैचारिक संरचना की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । किसी रचनाकार की वैचारिक संरचना सात्विक, तामसिक, राजसिक, द्वंद्वज या त्रिगुणांशी है तो उसका लेखन उसके अनुरूप ही होगा । “राम की शक्ति पूजा” और “शिवतांडवस्त्रोत” जैसी रचनायें दोबारा नहीं लिखी जा सकीं । आत्मप्रेरण के बिना कोई लिख सकता है ऐसी रचनायें! दूसरी ओर भारतीय प्राच्य साहित्य में ठूँस दिये गये प्रक्षिप्तांशों और वैदिक ऋचाओं के अर्थ का अनर्थ करने वाले टीकाकारों ने भी जो कुछ किया वह सब अपनी आत्मप्रेरणा से ही तो किया! बिकना उनका स्व-भाव था, वे बिकते रहे और विदेशी विधर्मियों की आज्ञानुसार साहित्य को विकृत करते रहे । पुलिस के छापें में नक्सली साहित्य प्राप्त होता है, आइसिस का भी अपना साहित्य है, सबने अपने-अपने स्व-भाव की प्रेरणा से ही तो लिखा है न!
सनत जैन – क्या वर्तमान दौर में आत्मप्रेरित लेखन हो रहा है ? या फिर प्रतिक्रियावादी लेखन ही लिखा जा रहा है ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – कलियुग में हर प्रकार का लेखन प्रचलन में है । क्रियावादी, प्रतिक्रियावादी, छद्म और मुक्तलेखन भी ।
सनत जैन – मौलिक लेखन की कमी से लोग पत्रिकाओं से दूर हुये हैं या फिर और कोई कारण है ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – लेखन में मौलिकता की कमी, समसामयिक विषयों के चयन में न्यूनता, चिंतन-मंथन में निष्पक्षता का अभाव, इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की सहज उपलब्धता और व्यस्त जीवनशैली के कारण लोग पत्रिकाओं से दूर हुये हैं ।
सनत जैन – लुगदी साहित्य जिसे कहा जाता था, क्या वास्तव में वह लुगदी साहित्य था ? या फिर वर्तमान में रचित साहित्य उस लुगदी साहित्य से कमतर है क्या ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – लुगदी साहित्य वास्तव में पुनर्संस्कृत कागज की लुगदी से बने घटिया कागज पर प्रकाशित किया जाने वाला सस्ता साहित्य माना जाता था । इसका प्रचलन पहले पश्चिमी देशों में हुआ जो बाद में भारत और पाकिस्तान में भी आ गया । लुगदी साहित्य में कागज ही नहीं प्रत्युत सब कुछ लुगदीनुमा माना जाता था, यथा – बोलचाल की चालू भाषा, सतही मनोरंजन, और कम मूल्य । किसी समय गुलशन नंदा, रानू, प्रेम वाजपेयी और मनोज आदि लेखकों ने आमजनता के बीच अपने लेखन के माध्यम से ही बहुत अच्छी पहुँच बना ली थी । इन लेखकों ने केवल साहित्य की उपन्यास विधा को ही अपनाया और अपने लेखन से बहुत अच्छी कमायी भी की । उपन्यास पढ़ लेने के बाद पाठक के लिये उसका मूल्य लुगदी से अधिक नहीं होता था, उसे या तो रद्दीवाले को बेच दिया जाता या फिर दुकानदार को वापस कर दिया जाता । ये रचनायें ऐसी नहीं थीं कि पाठक उन्हें सहेज कर रखे, इसीलिये तत्कालीन समीक्षकों ने इन उपन्यासों को “साहित्यिक रचना” की श्रेणी में रखने से मना कर दिया।
आजकल छोटे और नगरीय क्षेत्रों में साहित्य के नाम पर जो कुछ सामने आ रहा है उसमें से बहुत कुछ तो साहित्य की गरिमा को स्पर्श भी नहीं कर पा रहा है । सच पूछा जाय तो वर्तमान साहित्य में आपका संकेत जिस ओर है वह तो लुगदी साहित्य भी नहीं है, न उसके पाठक हैं, न उसे कोई संग्रह करके रखना चाहता है । यूँ, दो वर्ष पहले लुगदी साहित्य की मौज में आकर मैंने भी कुछ लिखना प्रारम्भ किया था, उसका नाम भी “लुगदी साहित्य” ही है, किंतु वह उपन्यास नहीं है, उसमें कविताओं का संकलन है ।
सनत जैन – साहित्यकार अपने जीवन में क्या करता है और वह क्या रचता है, क्या दोनों में तारतम्य होना जरूरी है?
डाॅ. कौशलेन्द्र – कालजयी रचना के लिये तारतम्य आवश्यक है, किंतु अधिकांश साहित्यकार नाटकीयता और बहुरूपियापन को सफलता के लिये आवश्यक मानने लगे हैं । ऐसे लोगों के जीवन, चिंतन और लेखन में कोई साम्यता और तारतम्यता नहीं होती । बहुत से साहित्यकार अपनी रचनाओं में जिन आदर्शों का तड़का लगाते हैं, प्रायः अपने आचरण में उससे प्रतिकूल आचरण करते पाये जाते हैं । यह सब सामाजिक अधोपतन का द्योतक है । यहाँ मैं अपनी एक कविता का उल्लेख करना चाहूँगा जिसे मैंने लुगदी साहित्य की श्रेणी में रखा है –
विलोपित कर दिये उन्होंने कुछ शब्द
और बस इतना ही सीखा –
“न ब्रूयात् सत्यम्”
और फिर उड़ेल दिया सारा झूठ
दुनिया के सामने ।
हमसे कहा – “हिंदी हैं हम वतन है हिंदोस्ताँ हमारा”
उनसे कहा – “चीन-ओ-अरब हमारा, हिंदोस्ताँ हमारा;
मुस्लिम हैं हम, वतन है सारा जहाँ हमारा”।
मैंने सीखा –
“तमसोमा ज्योतिर्गमय, मृत्योन्मा अमृतं गमय”
मैंने
बड़ी हुलस से सच बोला
और अपराधी हो गया ।
मैं आज भी एक अपराधी हूँ
मैं अखण्ड भारत का योद्धा सुभाष हूँ
मैं आज़ाद हूँ, मैं भगत सिंह हूँ, मैं शास्त्री हूँ
इसीलिये मैं एक दिन मार दिया जाता हूँ
मैं भारत का वह नागरिक हूँ
जिसके लिए भारत में कोई स्थान नहीं होता
मैं कश्मीरी पंडित हूँ
अपनी धरती से निर्वासित और शरणार्थी हूँ
मैं वह सत्य हूँ जिसे छिपाकर
लोग महान बन जाते हैं
और मेरी मृत्यु
रहस्यमयी किस्सों में भटकती रहती है
मैं आधी रात के “जरा से सच”
और “बहुत से झूठ” का असली गवाह हूँ
इसीलिये
मुझे भारत में रहने का अधिकार नहीं है ।
सनत जैन – देखा जाता है कि पुरूष साहित्यकारों को नारी साहित्यकारों की अपेक्षा में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, क्या ऐसा होना सही है ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – मंचीय चर्चा में आना एक अलग बात है किंतु उच्चस्तरीय साहित्य के लिये दोनों को साधना करनी पड़ेगी । यहाँ लैङ्गिक आधार पर कोई विभेद नहीं किया जा सकता ।
सनत जैन – सामान्य तौर पर जब भी हमारे लेखन की समीक्षा या आलोचना की जाती है तब इसके लिये विदेशी साहित्य को मील का पत्थर माना जाता है। क्या भारत भूमि में हजारों सालों का इतिहास होने के बावजूद साहित्य के मामले में हम इतने गरीब हैं ?
डाॅ. कौशलेन्द्र – ब्रिटिशकाल में हम अपनी शिक्षाव्यवस्था की रक्षा नहीं कर सके, देशी राजाओं ने भारतीय शिक्षा को संरक्षण नहीं दिया जिसके परिणामस्वरूप पश्चिमी शिक्षा के प्रकाश में हमने जो भी देखा उसी का व्यवहार आज सर्वत्र किया जा रहा है । हम विदेशीमूल के लैंटाना कमारा के रंग-बिरंगे और गाजर घास के सफ़ेद नन्हें फूल देखने के अभ्यस्त हो चुके हैं, देशी कमल और जुही के गुणों से हम परिचित नहीं हैं इसलिये समीक्षाकारों और समालोचकों को कमल और जुही की समीक्षा की अपेक्षा लैंटाना कमारा जैसी जंगली झाड़ियों की समीक्षा सरल और प्रामाणिक लगने लगी है । यह दोषपूर्ण है और इसका परिहार आवश्यक है ।