जो हुकुम आका!
दुनिया की सारी धन दौलत मिलकर भी एक व्यक्ति की ख्वाहिशों को पूरा नहीं कर सकती। ख्वाहिशों का यही चरित्र है -शानदार! यह ख्वाहिशें हमारी जरूरत नहीं होती -कतई नहीं। मगर पूंजीवादी दुनिया इन्हें एक जरूरी चीज की तरह प्रस्तुत करती है। झूठ और मक्कारी की ऐसी दुनिया रचेंगे मानो यह ख्वाहिश नहीं पूरी हुई तो आप का तर्पण न होगा। आप स्वर्ग -नरक के बीच हैंग हो जाएंगे।
अब क्रिप्टो करेंसी एक जरूरत है।
अब स्मार्टफोन, स्मार्ट कंप्यूटर एक जरूरत है।
सभी ख्वाहिशें पूरी करते हो -तुम अपनी ख्वाहिश क्यों नहीं पूरी करते ? क्या तुम्हारी कोई ख्वाहिश नहीं है ? इस पर जिन्नात तो बस इतना कहा -पिछले दस हजार सालों से मेरी एक ही ख्वाहिश है -आजादी…!
सब की ख्वाहिशें देखते-देखते पूरी करने वाला जिन्नात स्वयं अपनी ख्वाहिश पूरी नहीं कर सकता -क्योंकि वह गुलाम है।
क्या हम सब की स्थिति उस जिन्नात से अलग है ?
कभी क्रिप्टो के गुलाम, कभी रोबो के गुलाम, कभी 5जी के गुलाम, कभी स्मार्टफोन के…. कुछ और नहीं तो उन कातिल गोरी चमड़ी के गुलाम…!
हुक्म करो आका…!
हुक्म है कि उनके खेत खलिहान -गाय गोबर सब हमारे हवाले करो..!
जो हुक्म आका…!
गुलाम! मेरे लिए एक मायावी दुनिया की रचना करोगे!
जो हुकुम आका!
और यह दुनिया बनती है एक बदतमीज, फ्रॉड, फेक अमीरों की दुनिया! रातों-रात!
शहर में, देश में रातों-रात अमीरजादे, शहजादे, अरबों के मालिक जन्म लेते हैं। कुछ इस तरह-
शहर छोटा है। कस्बा जैसा। लाख रुपए किसी के पास हां बड़ी बात, मगर करोड़ हो जाए तो …, वह भी देखते देखते ….।
इसकी माया क्या है ।
मोहनी है तो माया भी….!
माया का मायाजाल यह है कि एक लखपति शहर में बैंक की मदद से (कर्ज लेकर) कुछ प्लॉट खरीदना है। शहर में कारपोरेटरों के आने की संभावना बन चुकी है -कुछ औपचारिकताएं भर रह गई हैं। सस्ता खरीदा प्लॉट अब शहर के मॉल कल्चर होने के करीब -रेलवे, रोड और मल्टीप्लेक्स की चकाचैंध में जमीन की कीमत करोड़ों में हो जाती है -कारपोरेट के ही एजेंट स्थानीय लोगों से मिलकर वहां बिल्डिंग का काम करते हैं और अत्यंत महंगे दामों में मकान बेचे जाते हैं।
लाखों का शहर अरबपतियों का हो जाता है। शहर का संभावित विकास (?) देखते हुए कीमतें, रियल स्टेट आकाश छूने लगता है, 10 का 100, 100 का हजार! मालामाल!
देखते-देखते आसपास की औने पौने की जमीन, जंगल-बाग खरीदे जाते हैं। क्योंकि यह पोटेंशियल क्षेत्र है।
जरा ठहरिये!
उक्त प्रारंभिक करोड़पति अपना कारोबार मुनाफे को देखते हुए फैलाता जाता है -और हर बार, बार-बार बैंक की सेवा लेता जाता है। यानी कर्ज…! बैंक को आपत्ति नहीं, वह नियमों के तहत ऋण आपूर्ति करता है।
फिर से ठहरिये! (रुकावट के लिए खेद है)
ऊपर दिखती हुई सच्चाई कुछ नयी तो नहीं, यह तो मॉडर्न अर्थव्यवस्था का आवश्यक चरित्र है। यह सब जानते हैं।
थोड़ा पीछे चलें।
करोड़पति पहले लखपति था। कुछ खेतखार या व्यापार थे -वह सफलता से चल रहा था। अब क्या हुआ ?
मौके पर चैका! अचानक जमीन बिल्डिंगों के दामों में उछाल! वह तो बन गया। वह तो करोड़ों में खेलने लगा।
पर स्थानीय अर्थव्यवस्था को क्या मिला ? बैंक से लाखों-करोड़ों कर्ज लिए गए -वहां पैसा डम्प किया गया ? या किया जा रहा है ? या किया जाएगा ? जो आवाम की जमा पूंजी है।
नहीं? पोटेंशियल क्षेत्र पर कब्जा कर जैसे आज चांद की खरीदी मिलियन डॉलर में की जा रही है।
क्या यह पैसा उत्पादक है ? एक तिनका भी…!
क्या ये अमीरी वास्तविक है ? और वास्तविक है तो किसके लिए ?
बैंक कहता है अपने एक करोड़ की संपत्ति का डॉक्यूमेंट प्रस्तुत किए हैं। आप पचास लाख के कर्ज का (जो भी नियम अनुसार है) वह हकदार हैं।
शहर और बैंक अपने स्टेटमेंट में कर्ज व वसूली की बड़ी राशि (टर्नओवर) शो करते हैं। मीडिया कहता है -शहर अमीरों का! विकासवाद! संपन्न! रिकॉर्ड के हिसाब से संपन्न! पर वास्तविकता ?
क्या उन पैसों से एक भी उत्पाद कार्य (बिल्डर्स के कामों को थोड़े समय के लिए छोड़ दें) हुआ ? पैसा जब रनिंग, अर्थात उत्पादन के कामों में लगता है तभी उसके लिंक बनते हैं -उत्पादन, वितरण, विक्रय और अनेकों-अनेक बीच की कड़ियां! जैसे उन प्लॉटों में व्यवसायिक खेती /बागवानी की जाती तो कितने लोग जुड़ते, कितनी कड़ियां जुड़ती ? कितने परिवहन व्यवस्था, ट्रक-ट्रैक्टर से लेकर मानव श्रम तक जुड़ जाते ? चाहे जैसा भी उत्पादन होता!
मगर, इस पूंजीवादी दुनिया में जहां नोटों की वैल्यू न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय मानकों पर फरेब का शिकार है, वरन आंतरिक बाजार में भी।
वह कर्ज खाने वाला करोड़पति बैंक का ब्याज चुकता करता है, गनीमत है। बैंक ऐसे ही चलते हैं।
सपाट, उन पैसों के आर्थिक उत्पादन, यानी सीधा-साधा हमारे रोजी-रोटी से जुड़ा है।
यही है सबसे बड़े अमेरिका का फरेब! महान चुतियापा!
व्यक्ति अमीर होता है -आवाम वहीं के वहीं …!
जरा गौर फरमाएं –
एक आर्ट कलेक्टर एक पेंटिंग जो लाख दो लाख की होनी चाहिए (कीमत कला कि नहीं, कला के पीछे लगाए श्रम के हिसाब से) उसे वह 5 करोड़ में खरीदता है, 15 करोड़ में बेच (रीसेल) कर देता है। महीने साल भर के अंदर लाख-दो लाख की चीज 15 करोड़ की कैसे हो जाती है ? एक का रहस्य ?
भविष्य का निवेश। जिस सज्जन ने 15 करोड़ में वह खरीदी की उसे उम्मीद है कि आने वाला समय उसे वह पेंटिंग 50 करोड़ तो देगा ही देगा।
देखिए -अमीरी किस कदर भाग रही है। चीजें किस कदर सेंसेक्स छू रही हैं।
सवाल घूम फिर कर वही है -इन अकूत पैसों ने कितने उत्पादक काम किये ?
कलाकार और कला से जुड़े भावनात्मक पहलू छोड़ दें और देखें कि इस व्यवस्था में अमीरी की माया क्या है! अवाम इसमें कहां! जो आज भी 14 घंटा, दो समय की रोटी दाल के लिए बेच देता है (यहां हर चीज बिकाऊ है) वह इस अमीरी के बीच कहां स्थित है। ताज्जुब नहीं कि दुनिया में अमीर व गरीब के बीच खाई बढ़ती जा रही है। अमीर और अमीर होता जा रहा है, वही आमजन वहीं के वहीं, या फिर और नीचे। मगर, अंतर…? इन दोनों के बीच….! समृद्धि का यह चरित्र…? जादुई समृद्धि….! क्या कहेंगे…!
और अपनी बात साफ कहने के लिए, हालांकि बौद्धिकों को समझाने की जरूरत नहीं जो पहले से ही ’प्रबुद्ध’ हैं -बिना पीपल वृक्ष के नीचे बैठे -बोधिसत्व! आत्मदीपो भव -यह ज्ञान उन्हें मास्टर साहब ने होमवर्क दे देकर और बचा-खुचा खुरचन ज्ञान आधुनिक संस्थाओं से हासिल है।
पीछे चलते हैं -(ज्ञानी तो आगे निकल गए….।)
दस्तावेजों में और बैंक के रिपोर्ट अनुसार जो ब्याज कर्ज के प्रवाह में वृद्धि होती है (करोड़ों में वृद्धि) और यह संभावनाओं को देखते हुए इसमें लगातार इजाफा होता है -अत्यंत व्यक्तिगत, यहां तक कि उस व्यक्ति के लिए भी वास्तविक उत्पादन अभी शून्य ही है -वह कागजों में अपनी कल्पना में अमीर होता है। ब्याज (गनीमत मानिए अगर किंगफिशर वह नहीं पीता) के अतिरिक्त समाज-राष्ट्र को उस समृद्धि से जुड़े पैसे से एक राई का लाभ नहीं। (थोड़ा टेक्स जोड़ ले।)
मगर एक लखपति 50000 का कर्ज लेकर सस्ते भाव कुछ एकड़ बंजर सी जमीन पर शुष्क खेती या जंगल उत्पाद करना चाहता है। 10-15 लोगों को जोड़ता है। साल छह महीने में कुछ उत्पाद व्यवसाय के लिए उपयुक्त पाए जाते हैं -और कम ही सही -थोड़ी बहुत आय की प्राप्ति उन सभी को होने लगती है। धीरे-धीरे उत्पादों में विविधता या सघनता मांग आपूर्ति के नियमों से संचालित होने लगती है। नए बाजार खोजे जाते हैं, नए-नए बाई प्रोडक्ट और फिनिश्ड सामान तैयार करने की योजना बन जाती है। कुल मिलाकर एक छोटा सा प्रयास, अकेला या 5-10 लोगों द्वारा मिलकर ऐसी स्थानीय पर्यावरण हितकारी आर्थिक व्यवसाय स्थाई लाभ देने में समर्थ है।
पैसा जो भी कर्ज या अन्य तरीके से लगाए जाते हैं -वह पूरा का पूरा उत्पाद है।
और यही व्यवस्था तो सारी दुनिया में, खासकर अपने देश में पारंपरिक तौर पर मिलेगी। पर नयी अर्थ नीति और हरामी निवेश के पैसों से क्या ऐसी आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था की कल्पना की जा सकती है ?
अकारण नहीं है कि गांव-कस्बे के जवान-बूढ़े मजूर बड़े शहरों की ओर हर साल पलायन करते हैं। डिस्टोपिया के शहर में शहर बसे हैं। झुग्गी, बीमारी, भ्रष्टाचार, शहरी क्राइम, लूटपाट, गंदगी….!
जिम्मेदार कौन ?
इसी तथ्य को थोड़ा दूसरे उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं।
युवा कलाकार को आधुनिक कला बाजार में अपनी कलाकृति, पेंटिंग, मूर्ति इत्यादि प्रदर्शित करना है। चूंकि यह काम अमेरिका, यूरोप जो वास्तविक खरीददार हैं -और जहां विजुअल कला-बाजार हैं -किसी मानक गैलरी में चित्रों, मूर्तियों की प्रदर्शनी काफी खर्चीली होती है। एक एशियाई कलाकार पत्र-पत्रिकाओं में यह सर्च कर बहुत सी जानकारी इकट्ठा करता है। इन सूचनाओं (इंटरनेट पर जानकारी ज्ञान नहीं सूचनाएं ही हैं) को क्रॉस एग्जाम करता है और पाता क्या है –
पिछले वर्ष अमेरिका में सबसे टॉप का कला-व्यवसाय संपन्न हुआ। मान लें कुल 10 मिलियन डॉलर…!
दूसरा यूरोपीय देश है जहां का छह मिलियन डॉलर का व्यवसाय हुआ। तीसरे चैथे पांचवें नंबर पर अचानक परिदृश्य में चाइना और भारत का नाम आता है। खाड़ी देशों में भी अच्छा व्यवसाय हुआ। इस तरह क्रमशः कहीं 5 मिलियन, कहीं 4 मिलियन, कहीं 2 या 1 मिलियन डॉलर। कुल 28 मिलियन डॉलर का रजिस्टर्ड कला व्यवसाय पूरी दुनिया में कला बाजार के परिपेक्ष्य में संपन्न होता है।
अब नए कलाकार कैसे प्रेरित होंगे ?
चलो अमेरिका या यूरोप!
अब जरा सच देखते हैं। सच यह है कि मात्र 5 कलाकारों की कलाकृतियां अमेरिका में 6 मिलियन डॉलर में बिकी। जिसमें कई कलाकृतियां मात्र 10- 15 लाख में यानी कुछ हजार डालर में मूल कलाकार से खरीदे गए। ये कलाकृतियां अपनी पोटेंशिलिटी के कारण से रिसेल होती हैं और अत्यंत महंगे दामों में फिर-फिर नीलाम की जाती हैं। और सारा लाभ एजेंट को।
कहने का तात्पर्य….? यहां पूंजी या समृद्धि के अर्थशास्त्र या समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से नहीं बाजार के (कलाकारों के ) दृष्टिकोण से सवाल उठाना चाहता हूं कि इन 28 मिलियन डॉलर कलाकृतियों के क्रय-विक्रय में कलाकार या नए पुराने कलाकार कहां हैं ? और पैसे का यह खेल कौन खेल रहा है ?
एक साल चाइना विश्व पटल पर उभरते खरीदार के रूप में उठा था। विश्व के कुल विक्रय का महत्वपूर्ण प्रतिशत 30 या 40 प्रतिशत का उसका योगदान था। हकीकत क्या थी ? हकीकत थी सिर्फ एक पेंटिंग दुनिया को सबसे कीमती कलाकृति बन गई थी उस चाइनीज कलेक्टर (आर्ट) के कारण। शेष खरीदी अत्यंत गौण थी। यानी मात्र चंद कलाकारों की कृतियां बिकी, वह भी एजेंटों के मार्फत!
अब इन तस्वीरों को और क्या समझना या समझाना ?
युवा कलाकार सोचेंगे चलो चीन, वहां अच्छी संभावना है.
साफ-साफ दिख रहा है। लाभ किसे -चंद इक्का-दुक्का लोगों का। वे कौन ? एजेंट या आर्ट गैलरी या आर्ट म्यूजियम! ध्यान देने की बात है कि इस अमीरी या रची हुई भ्रामक दुनिया सिर्फ युवाओं को, आवाम को लुभाती है. संपत्ति सिर्फ चंद एजेंटों, कॉर्पाेरेटरों के हाथ का खिलौना बनकर रह जाती है. आवाम प्रतीक्षा करता है, बादल कब बरसेंगे.
अर्थात, मतलब साफ़ है, आवाम से निकले कलाकार कहाँ जाएँ …?
शून्य! कुछ भी हासिल नहीं!
आर्ट कलेक्टर अमीर होते हैं। आर्ट इन्वेस्टमेंट है उनके लिए।
कुछ कलाएं अगर गैलरिओं या म्यूजियम द्वारा क्रय की जाय तो इस आशा में कि उनके शहर -जहां गैलरियां स्थित है -वहां टूरिज्म को बढ़ावा मिलेगा। आज वॉन गॉग के सूरजमुखी के फूल वाली पेंटिंग देखने पूरे विश्व से यूरोप के गैलरी में हर साल लोग आते हैं। सिर्फ 3 मिनट पेंटिंग के सामने खड़े होकर निहारने के लिए हजारों डॉलर खर्च करते हैं। होटल में ठहरते हैं और हां, गैलरी के प्रवेश द्वार पर महंगे टिकट खरीदकर अर्थव्यवस्था के मददगार साबित होते हैं। (भारत के लिए…?)
प्रसंगवश ऊपर के उदाहरणों से किसी वस्तु के मूल्य खरीद-बिक्री का आवाम पर होने वाले असर को यहां फोकस करने का इरादा था। सवाल उन आर्ट कलाकृतियों के लिए है जो किसी महंगे स्टूडियो में सालों पड़े हैं कि कला बाजार में उछाल से आर्ट कलेक्टर भी उछलेंगे.
कहने की आवश्यकता नहीं कि ये युवा जगत कि लिए एक यूटोपिया, एक स्वप्न भरी दुनिया है. कितना भ्रामक, कितना सच..?
किसका भ्रम और किसका सच..?
आवाम सेंसेक्स की उछाल सुनकर और अखबारों में जीडीपी की ग्रोथ पढ़कर खुश है.
कैसी खुशहाली और किसकी…?
मिलियन और बिलियन का खेल और यह खेल किसका – चंद कृतियां! चंद लोग! युवा कलाकार आकाश की ओर दृष्टि किये बैठे हैं.
पूंजी- संपत्ति का संग्रह क्या है- बताने की ज़रूरत नहीं.