अपनी अपनी सोच
’’पापा! इस बार मैं अपने बर्थ डे पर कुछ नया सा गिफ्ट लूंगा…आप खरीद देंगे न ?’’
’’व्हाई नॉट! तुम जो कहोगे, वही गिफ्ट मिलेगा. अपने सारे बेस्ट फ्रेंडस को इनवाइट करना पार्टी में… सबके लिए तुम्हारी पसंद से खाने-पीने की चीजें बनवायी जाएगीं, आवश्यक हुआ तो मार्केट से मंगा लीं जाएंगी…डोन्टवरी…सब कुछ बढ़िया होगा. माई चाइल्ड.’’ डैडी ने कहा.
पापा की सहमति पाकर सलीम बेहद खुश हुआ…. कुछ पल सोचते रहने के बाद उसने कहा-’’पापा इस बार आप मेरे बर्थडे पार्टी पर गांव से दादाजी-दादीजी को नहीं बुलाएंगे.’’
‘‘क्यों…’’ वह बेटे की बात सुनकर चौंकते हुए पूछ बैठे.
‘‘वह अपनी लाठी टेकते कहीं भी आकर खड़े हो जाते हैं या बैठ जाते हैं. सोफे पर बैठते हुए भी लाठी हाथ से नहीं छोड़ते. क्या यह गंदी आदत नहीं पापा.?
बेटे के मुंह से ऐसी बातें सुनकर वह आश्चर्य चकित रह गए. कुछ कह नहीं पाए…बस सोचते रहे.
पापा की चुप्पी देखकर सलीम ने कहा-‘‘पापा! जरा सोचिए यहां लाठी की क्या आवश्यकता है. हमारे घर में सांप-बिच्छू कहां से आयेगे ? जिसे वह लाठी से मार सकें या दूर कर सकें. यहां तो पापा हमारे हाथों में पिस्तौल होनी चाहिए, क्योंकि हमें खतरा तो बदमाशों और लुटेरों से है जो कहीं भी लूट लेते हैं, इसलिए आप मुझे गिफ्ट में पिस्तौल ही देंगे और कुछ नहीं.’’ और वह खुशी से नाचने लगा.
किरायेदार
जामताड़ा स्टेशन पर सरकारी कर्मियों का एक समूह आकर बेंच पर बैठा, जबकि कुछ लोग खड़े-खड़े ही बातों-विचारों का आदान-प्रदान करने लगे.
एक कर्मी ने दूरे से प्रश्न किया-‘‘सुना है कि आपने पुराना वाला मकान छोड़ दिया. किसी और जगह किराये के मकान में चले गए.’’
‘‘हां! मैंने मकान बदल लिया है.’’
‘‘क्यों, सुना है इस मकान का किराया भी अधिक है ? यहां आपको पैंतालिस सौ रूपये देने पड़ रहे हैं ? यह तो महेश बाबू बहुत अधिक है.’’ कामतासिंह ने गहरी चिंता प्रगट की.
’’जी कामता बाबू! मेरी पत्नी भी इसी चिंता से ग्रसित थी. एक दिन वह कहने लगी. कहां पैतीस सौ का मकान का किराया था और अब पैंतालिस सौ देने पड़ेंगे. मकान मालिक भी बुरे आदमी नही थे. उसकी बात को पहले तो मैं अनसुनी करता रहा, फिर एक दिन समझाया कि ’’देखो कामिया! तुम्हारा यह कहना बिल्कुल ठीक है कि इस मकान का किराया एक हजार अधिक है परन्तु तुम यह क्यों भूलती हो. इस मकान में तीन बड़े-बड़े कमरे हैं. एक डायनिंग हॉल है. सामने पोर्टिको और लंबा-चौड़ा खुला मैदान है, जिसमें तुम जितनी चाहे सब्जियां लगा सकती हो और सबसे बड़ी बात यह है कि अब तुम चाहे जितनी बिजली जलाओ, पानी गिराओ, जहां जी चाहे जो रखो. तुम को मकान मालिक रोकने-टोकने तो नहीं आ रहा हैं न ? तो अब समझ लो कि एक हजार उसके यहां न होने के एवज में दे रहे हैं. वरना किरायेदार का मकान मालिक नाक में दम करके रख देते हैं…..यह मत करो……वह मत करो. इन झंझटों से मुक्त हो या नहीं कामिया ?’’
‘‘वाह भई! अच्छा फार्मूला ढ़ूंढ़ निकाला महेश बाबू! यह बात तो सही कही आपने.’’ कामतासिंह ने ठहाका लगाते हुए कहा और महेश बाबू की पीठ थपथपाने लगा.
खुदा का डर
‘‘मैं ही तुम्हारा खुदा हूं. समझी तुम और मेरा हुक्म भी खुदा का हुक्म है, जिसे मानना तुम्हारा फर्ज है. दायित्व है. इससे तुम इंकार नहीं कर सकती… समझ गयी न मैं क्या कह रहा हूं और क्यों कह रहा हूं ?’’
एक शौहर ने अपनी बीवी को धमकी भरे लहज़े में हड़काया जो बुरी तरह शराब के नशे में धुत्त था. बीवी हैरत भरी आंखों से पतिदेव को घूरते हुए बुत सी खड़ी उसकी सारी बातें सुनती रही. भीतर ही भीतर सुलगती रही. कुछ कहा नहीं. कहने से कोई फायदा नहीं था चूंकि वह नशे की हालत में था.
आज यह कोई नई बात नहीं हुई थी. दो दिन पहले भी उसने कहा था-‘‘तुम्हारा कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है और न ही अपने अस्तित्व को पहचान दिलाने की दिशा में उठाया गया कोई कदम ही मायने रखता है. इसे तुम हमेशा याद रखना सबीना. उस दिन फटकार लगाते हुए भी कासिम यह कहा था.
’’जी हां! जनाब आप बिल्कुल ठीक फरमा रहे हैं. आप खुदा के वजूद को ही नहीं मानते तो यह सब कहना क्या मुश्किल है. आप के दिल में खुदा का डर कहां से पैदा होगा ? आपको उस पाक जात में कोई कशिश ही नहीं नजर आती, फिर आपको तौफ़ीक कैसे होगी ? तुम उसे कैस देख पाओगे. समझ पाओगे. ? वह किस तरह महसूस होगा तुमको ? तुम यह कैसे समझ सकते हो कि किसी के साथ अच्छी बर्ताव नहीं कर सकते तो उसके साथ बुरा बर्ताव भी नहीं होना चाहिए. हमारा मजहब तो यही तालीम देता है.’’ सबीना दिल ही दिल में सोचती रही और आंसूओं से अपना दामन भिगोती रही..फिर भी उसके दिल से शौहर के लिए बददुआ नहीं निकली. जो उसे बराबरी का दर्जा देना तो दूर खुद को खुदा ही समझ बैठा था.
डा0 तारिक असलम ‘तस्नीम’
संपादक कथा सागर, हमसफ़र,
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फुलवारी शरीफ,
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