कहानी – सन्देश -लेखक-सनत कुमार जैन

संदेश

जिला शिक्षा अधिकारी के कार्यालय के लगभग रिक्त हो चुके कार्यालय की बेन्च पर योगेन्द्र सोच में बैठा था । पांच बज चुके है आगे की क्या करें, चिन्तित मुद्रा थी, बेन्च पर बैठा-बैठा दीवार से टिक गया और एक पैर घुटने से मोड़कर उसके पंजे को बेन्च पर टिका उसी ओर के हाथ की कोहनी घुटने पर टिका माथे पर हाथ फेरता फिर बालों में उंगलियां घुमाता ऑफिस की छत की ओर देखता। बरसात के बीच का खुला दिन था। ऑफिस की छत यानी अंग्रेजी खपरों से ढकी मोटे-मोटे लकड़ी के बत्तों पर टिकी छानी, कई बत्तों पर दीमक का साम्राज्य और लगभग हर खपरों में कंबल कीड़ा लटका हुआ। कुबडे की कमर की तरह झुकी छानी और कुबडे की लाठी की तरह 1.5 फीट 1.5 फीट की दीवार पर टिकी छानी लंबा सा गलियारा और गलियारे के बीच बहुउपयोगी यह बेन्च जिस पर वह बैठा था। यह बेन्च बहुपयोगी इसलिए है क्योंकि चपरासियों के बैठने, सुस्ताने का साधन थी। आस पास पडे़ बीडी के टोटे बता रहे थे, बाहर से आये बाबूओं मास्टरांे के इंतजार की साधन ये बेन्च जो कभी-कभी लेटने के काम भी आ जाती है, और रात को यह बेन्च चौकीदार के पलंग में बदल जाती है, साथ ही आवारा घूमते कुत्तों की छत बन जाती है, आवारा कुत्तों की उपस्थिति रात्रि में निन्द्रित चौकीदार की बेदखल नींद का इंतजाम होती है ।

अपनी पेन्ट के अंदर की शर्ट को देखा योगेन्द्र ने जो कि पेन्ट से बाहर आकर सिकुडी सी लटक रही थी मानों उसका हालेदिल ब्यान कर रही थी दिल उसका उसी तरह से सीने से निकलकर लटक रहा था। कहने को तो वह जिला मुख्यालय के जिला शिक्षा अधिकारी कार्यालय में बैठा था, पर ये था बियावन नक्सलाइट एरिया। इस नवनिर्मित जिला मुख्यालय के डेढ़ सौ किलोमीटर के दायरे में दो तीन छोटे कस्बों के अलावा सिर्फ गांव ही गांव थे या फिर घने जंगल पहाड़ और नालें। रिजर्व फारेस्ट का भी काफी एरिया पड़ता था, परन्तु जंगली चौपायों की जगह समाज से भटके दोपायों का खतरा ज्यादा था।
योगेन्द्र दिल्ली का रहने वाला था, पर पेट की आग ने इस बियाबान में जलने भेज दिया था, शहरी जीवन का आदी योगेन्द्र पुस्तकों में जंगलों के वर्णन और कुछेक चित्रों में दृश्यन को ही जंगल जाना था, जैसा कि हर आम व्यक्ति जानता है। कालोनियों में रहने वाले कतार से बने मकान और कतार में लगे पतले-पतले वृक्षों की सघनता से भी रात्रि को डर जाते है। अनगिनत वृक्ष वो भी ना-ना प्रकार के जिन्हंे पहचानना भी मुश्किल, वो भी बेतरतीब यत्र-तत्र मानों ईश्वर ने सूपे में इन वृक्षों के बीजों को भरकर उड़ेल दिया हो। दो-दो मीटर की गोलाई के तने वाले और लगभग 60 से 80 मीटर उंचे जो जगह इन वृक्षों से दूर गई उन पर घनी झाड़ियों और बांस के वृक्षों का कब्जा। पीले सफेद फूलों वाली अनंत बेलें जिनमें लगी सब्जियां और न जाने सब्जियों के अलावा क्या-क्या, ये पीले फूलों की बेलें भय का शेर प्रतिपल दिखाती, नजरों को भ्रमित कर डर को और बढ़ाती।
‘‘साहब तीन दिन बाद लौटेंगे अभी-अभी फोन आया है। ’’ योगेन्द्र की सोच को झटका लगाता चपरासी का स्वर था, क्रोध और भय से योगेन्द्र की आंखों संध्या में ही रात्रि का अंधियारा छा गया। अपने मरे हुए शरीर को उठाने की कोशिश की, पर उठा न सका।
‘‘बस में चला जाना मोटर सायकल में क्यों जा रहे हो ?’’ योगेन्द्र की बीवी रचना चाहत के बाद भी न चाहते हुए कहा। जाते हुए को टोकना उसकी सोच के अनुसार अपशगुन होता है पर अपशगुन को मारो गोली, जानबूझकर खुद को आफत में क्यों डालना।
‘‘एक घंटे के काम के लिए दिन भर क्यों खराब करूं ढाई घंटे जाने के ढाई घंटे आने के एक घन्टा काम का 8 बजे निकल रहा हॅंू साढ़े दस को मुख्यालय साढ़े ग्यारह को काम खत्म और 2 बजे घर।’’ पल भर में 6 घंटे का हिसाब समझा दिया योगेन्द्र ने, रचना की मनोदशा समझ कर भी ध्यान न देना ही उचित समझा दिया।
‘‘प्रिया की तबीयत भी नरम गरम है, आज जाना जरूरी है ?’’ रचना ने आखरी स्त्रोचित हथियार फंेका।
‘‘देखो रचना सरकारी नौकरी है बनिये की दुकान नहीं जो आज नहीं तो कल कर लो डी.ई.ओ. का बुलावा है वो भी मेरी गलत शिकायत का। मैं बच्चों को पढ़ाने स्कूल नहीं जाता हॅूं, ये शिकायत है आज नहीं गया तो साहब तो यही मानेंगे न कि मैं उनके बुलाने में नहीं गया तो स्कूल भी नहीं जाता होऊंगा।’’ कहकर बाहों में भरकर रचना के बालों को सहलाता सांत्वना के स्वर में बोला।
‘‘चिन्ता मत करो सैकड़ों लोग रोज आते जाते हैं मुख्यालय, मैंं भी जा रहा हूं फिर क्यों डरती हो, जब भी कोई बात हो ऑफिस का नंबर दिया है उस पर फोन कर लेना।’’
‘‘साहब आपका फोन, आपके घर से आया है।’’ चपरासी का स्वर था, योगेन्द्र सुबह की बातों सें यथार्थ मे आया और माथे पर कुछ और रेखाओं ने कब्जा जमा लिया। जैसे तैसे अपनी शक्ति जोड़ी और फोन के माउथ को मुंह से लगाया, जोर लगाकर बोला हलो परन्तु धीमी आवाज ही आई।
’’अब तक नहीं पहुंचे आप पांच बजे चुके हैं।’’ घबराहट के स्वर में कंपन था अनजाना भय था ममता थी पत्नी की, चिन्ता थी बाप की योगेन्द्र विचार शून्य होने के साथ-साथ वाणीहीन भी हो गया।
‘‘सुन रहे हो न! प्रिया की तबीयत ज्यादा खराब है पर चिन्ता मत करो। आज आप मत आना वहीं मुख्यालय में रूक जाना। कल सुबह ही आ…..!’’ बात पूरी न हुई फोन कट गया पत्नी के स्वर ने आहत और चिन्तित दिमाग को राहत दी और ताकत दी पर कुछ जवाब दे पाता तब तक फोन ही बंद हो गया। बहुत कोशिशों के बाद भी फोन न लगा शायद लाइट गोल हो जाने के कारण टेलीफोन एक्सचेजं ने काम करना बंद कर दिया था, इस आधुनिक युग में मोबाईल की कमी खल गई। कैसा जिला मुख्यालय है कैसी विकट मजबूरी है सबकुछ होते भी कुछ नही है। अजीब कसमसाहट में योगेन्द्र लटक गया था। मानो छाती में पत्थर रखकर तालाब में पटक दिया गया हो पलभर में ही बाल्टी भर पसीना शरीर से बह गया।
‘‘क्या हुआ साहब तबीयत ठीक तो है?’’ चपरासी पूछा।
बुत बना योगेन्द्र चपरासी की ओर देखा सहायतार्थ उठी आंखों में उसे कुटिलता नजर आई।
‘‘मुझे जाना है वापस।’’ इतने कम शब्द थे योगेन्द्र के होंठो पर
‘‘पांच बजे जाना है ?’’ चपरासी आश्चर्य से देखा, भय के भाव आंखों में आ गये।
‘‘पांच साढे़ पांच बजे के बाद यहां से कोई वापस नही जाता है पता नहीं आपको।’’ योगेन्द्र का जवाब न पाकर चपरासी फिर पूछा।
‘‘धमका रहे हो मुझे ?’’ योगेन्द्र के मुंह से निकल गया और तुरंत ही गलती का अहसास हो गया।
‘‘साहब! मैं समझा रहा हूंू पहाड़ी और जंगली रास्ता है, और फिर रास्तों में कौन घूमता है पता है न, छै के बाद भारत सरकार का वर्चस्व खत्म; नई दुनिया अपना राज चलाती है।’’ चपरासी धीमे स्वर में बोला ‘‘मैं भी वहीं का हूं जहां के आप। खतरा मत मोल लो आप, बसें नहीं चलती हैं और आप मोटर साइकल में जाएगे ?’’
कुछ पलांे की चुप्पी ने योगेन्द्र की बुद्धि को सोचने के काबिल बनाया । जिला शिक्षाधिकारी पर गुस्सा आ रहा था, जब उसे यहां नहीं रहना था तो क्यों बुलाया, पत्नी पर क्रोध आया उसने सुबह क्यों टोंक टाक की, स्वयं पर क्रोध आया बस से आ सकता था, बेटी पर क्रोध आया उसे आज ही बीमार होना था, सरकार पर क्रोध का बादल फट पड़ा। ये कैसी सरकार है जो समांतर सरकार चलने दे रही है हमारे जैसे लोगों की कोई औकात ही नहीं है ? मैना/शेर भी नहीं है हम; सरकार की नजरों में जिसकी सुरक्षा में अरबों का बजट बनता है।
‘‘कोई लॉज है यहां ?
‘‘किस दुनिया में जी रहे है साहब।’’ यहां होटल में खाना नहीं मिलता लॉज की बात करते है, जिला मुख्यालय नाम है नाम, वरना यहां का कलेक्ट्रेट भी झोपड़ी में ही लगता है; झोपड़ी ही तो है थोड़ी बड़ी झोपड़ी।’’
धड़धड़ करती धड़कन और फटाफट चलते दिमाग ने चार निर्णय लिए; पहला कुछ खालो, दूसरा अपनी अचानक बिगड़ी तबीयत के लिए दवा लो, तीसरी गाड़ी के लिए पेट्रोल जुगाड़ करो, चौथी भगवान का नाम लेकर निकल लो।
चपरासी चिन्तित था उसके लिए जो उसका कुछ नहीं था, पर जिसके लिए चिन्तित था वो चपरासी से भी भयभीत था।
‘‘यही रूक जाओं साहब!, ऑफिस में ही सो जाना, खाना मैं खिला दूंगा।’’ प्रार्थना की चपरासी ने पर जिद्दी योगेन्द्र और फिर पत्नी का अधूरा फोन जिसमें प्रिया की बिगड़ी तबीयत का जिक्र, रूकने की गवाही नहीं दे रहा था, बगैर कुछ जवाब दिये योगेन्द्र ने गाड़ी मे चाबी लगाई और किक मारकर स्टार्ट किया पास के किराने की दुकान से दो पाकेट बिस्किट खरीद कर पांच मिनट में ही चबा डाले, पास के हैण्डपंप से पानी पिया। सामने दिख रहे ‘‘जिला अस्पताल’’ के बोर्ड को देखकर विकट संकट और भय में भी चेहरे पर मुस्कराहट आ गई। अस्पताल के पास पहुंच मोटरसायकल रोकी ओर डॉ. के नाम पट्ट को पढ़कर सांकल बजाई।
‘‘कौन है?’’ भीतर से आवाज आई योगेन्द्र आवाज की दिशा में देखा, कोई न दिखते ही समझ आ गया कि बाजू खिड़की से आवाज आई है।
‘‘मैं मरीज हूं।’’ योगेन्द्र धीमे स्वर में कहा।
‘‘क्या हुआ है।’’ फिर वही आवाज उसी जगह से आई।
‘‘बुखार और सरदर्द है आप कहें तो दरवाजे के नीचे हाथ डाल दूं, बंद दरवाजे से ही आप नाड़ी देख लेंगे ?’’ क्रोधित स्वर में बोला। अगले ही पल दरवाजा खुल गया। घबराये डॉक्टर ने अंदर आने का ईशारा किया और योगेन्द्र के अंदर आते ही दरवाजा बंद कर दिया। बगैर कुछ कहे नाड़ी देखी और आलमारी से दो गोलियां निकालकर दी और एक ग्लास पानी भी दिया।
‘‘अभी खानी है?’’ योगेन्द्र ने प्रश्नवाची हो गया। ‘‘हां।’’ पूर्ण विराम सा जवाब था, डाक्टर का।
वह गटागट पानी पीया गोली खाकर,
‘‘आप यहां के नही लगते है ?’’ डॉक्टर ने अबकी पूछा, शायद उसकी गोली और पानी निसंकोच खाने के कारण विश्वास हो गया योगेन्द्र के भले मानुष होने का।
‘‘हॉं, मुझे वापस जाना है।’’ योगेन्द्र पर्स से पैसे निकालता बोला।
‘‘अकेले हो क्या आप ?’’ डॉक्टर अचरज के स्वर में बोला -‘‘मतलब आपके आगे पीछे कोई नहीं है ?’’ स्पष्ट किया अपनी बातों को।
पलभर को सघन बन के दोपायों को भूला योगेन्द्र मानो फिर से आतंकीत हो गया। पर प्रत्यक्ष में कुछ न बोला।
‘‘पैसे रहने दीजिये फिर कभी मिले इस जीवन में तब ले लेंगे।’’ अत्यंत धीमे स्वर में कहा डॉक्टर ने और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।
भयंकर उहाफोह में था योगेन्द्र पर निर्णय हो चुका था, बदलने की गुंजाइश न थी। यहां रूककर भी क्या होगा। न रूकने का ठिकाना, न खाने का ठिकाना और फिर बारूद के ढेर में बैठना क्या मतलब! प्रिया का क्या होगा ? बात अधूरी रह गई; रचना क्या सोच रही होगी ? अनहोनी के ख्याल से घबरा रही होगी!
गाड़ी की किक पर पैर झटके से मारते ही भय दूर हो गया और वह पेट्रोल की खोज में मुख्यालय के नाके तक आ गया। समझ न आया पेट्रोल किस जगह मिलेगा। नाके पर मुस्तैद जवानों ने उसे आते देख पोजीशन ले ली, घबराकर योगेन्द्र ने मोटर साइकल वहीं रोककर हाथ उपर कर लिये। एक जवान ने इशारे सें बुलाया। मोटर सायकल को वहीं स्टैण्ड लगाकर खड़ी किया और अपने समय को कोसता नाके की गुमटी तक पहुंच गया।
‘‘कहां जा रहे हो, कौन हो ?’’ लगभग उसी की उम्र का दो सितारा इंस्पेक्टर अंदर से ही बोला।
‘‘मेरा नाम योगेन्द्र है। मै मास्टर हूं। वापस अपने शहर जा रहा हूं।’’ योगेन्द्र मिमियाता सा बोला।
‘‘मरने का शौक है क्या या फिर भांग चढ़ाई है ?‘‘ क्रोधित इंस्पेक्टर बोला, सीधे बोलने में ही अपनी भलाई समझ योगेन्द्र हाथ जोड़कर बोला -‘‘ऐसा कुछ नहीं है साहब! मेरी बेटी की तबीयत खराब हो गई है, फोन आया था इसलिए मजबूरी में जा रहा हूं।’’
‘‘सुबह जाना!’’ आदेश था अधिकार पूर्वक, पर संवेदनाहीन आदेश, इस आदेश में परहितार्थ भावना थी, पर भावविहिन रूखा स्वर था।
‘‘एक दिन मरना सबको है साहब! बगैर परिवार के जीवन का क्या ? आप मुझे शहर तक जाने लायक पेट्रोल दे दो और मुझे जाने दो।’’ लगभग पैरों पर गिरता योगेन्द्र बोला। अब इंस्पेक्टर बाहर निकला और योगेन्द्र के कंधे पर हाथ रखकर समझाने की अंतिम कोशिश की, पर पत्नी बच्चे जीत गये।
‘‘मंुशी! मास्टर साहब के साथ जाकर पेट्रोल दिला दो।’’’ इंस्पेक्टर ने अपने मुंशी को आदेश दिया। यंत्रवत मुंशी चल पड़ा, योगेन्द्र ने घड़ी देखी साढ़े पांच बज चुका था, ईश्वर का नाम जपता मुंशी के इशारों पर गाड़ी चलाता उसी किराना दुकान पहुंच गया जहां उसने 2 पाकिट बिस्किट खाये थे।
‘‘दादा 5 लीटर पेट्रोल डाल दो इनकी गाड़ी में।’’ पुलिसिया रोबदार आवाज में पुलिस मुंशी बोला। दुकानदार कुर्सी से उठ़ा और अंदर से 5 लीटर की प्लास्टीक केन उठा लाया साथ में चाड़ी भी थी, योगेन्द्र भी तैयार खड़ा था, पेट्रोल टंकी खोलकर बार बार आसमान की ओर नजरें उठती योगेन्द्र की और फिर घड़ी की ओर देखता, माथे पर चिन्ता के बादल छा जाते। पांच बजकर 35 मिनिट हो गये थे, नाके पर वापस पहुंचने में, नाके पर खड़ा इंस्पेक्टर बेसब्री से इंतजार कर रहा था, योगेन्द्र से ज्यादा जल्दी शायद उसे थी।
‘‘अब आप जल्दी से निकलिये और ये फोन नंबर है इस गुमटी का। जो पहला कस्बा पड़ेगा वहां पहुंच कर फोन करना कम से कम डेढ़ घंटा और ज्यादा से ज्यादा पौने दो घंटा लगेगा। अगर आपका फोन आ गया तो ठीक वरना हमें आना पडेगा दलबल के साथ।’’ पुलिस वाले की आंखों में भय शायद किसी ने पहली मर्तबा देखा होगा और कौन कहता है पुलिस वालों में दया नहीं होती है।
‘‘धन्यवाद सर! आपके सहयोग का!’’ योगेन्द्र भय मिश्रित खुशी लिए बोला, इंस्पेक्टर ने हाथ मिलाया और बाय किया। हाथ उपर उठाकर पलभर को आंखें बंद करके उपर देखा।
‘‘प्रार्थना की होगी।’’ सोचता योगेन्द्र चल पड़ा एक भयंकर जानलेवा खेल खेलने। नाका पार होते ही लगभग अंधेरा छाने को था, गाड़ी की गति शनैः शनैः बढ़ती जा रही थी, सड़कों के किनारे के वृक्ष यूं लगता सर झुकाये राक्षस हों और अपने शिकार को लपक कर गटकना चाह रहे हों, अंधेरे के साथ-साथ जंगल भी गहराता जा रहा था, और रास्ता भी घुमावदार उपर नींचे, पहाड़ खाई के साथ आगे बढ़ रहा था। गाड़ी तेजगति से चलने के कारण कानों में सांय-सांय की ध्वनि मस्तिष्क को झनझना रही थी, जैसे ही कोई पेड़ गुजरता वो रूक जाती, लगातार तबले की थाप सी कानों में पड़ती। सड़क के दोनों ओर घनी झांडियां न जाने कितने जाने अनजाने जीवों का रूप बदल-बदल दिखने लगती; दिमाग की परतों में छिपे जीव झाड़ियों में नजर आने लगते।
भय से धड़धड़ाता सीना, हवा से थर्राता शरीर हल्की ठंड से ठण्डाया शरीर, ठण्डे होने की अनुभूति भी न ले पाता कि भय की आग गर्मा जाती, हर वृक्ष के पीछे से एक अनजाना व्यक्ति छुपा लगता जो अगले ही पल कूदकर रास्ता रोकने वाला हो, मोटर सायकल लगातार एक रफ्तार से चल रही थी अंधेरे का साम्राज्य हो चुका था; गाड़ी की हेड लाइट रास्ता बता रही थी, पल पल आते मोड़, गाड़ी की गति कम ज्यादा कर देते। जंगल में पहाड़ी घाट का इलाका आ गया था, एक ओर पहाड़ और दूसरी ओर 2 फीट से लेकर 150 फीट की गहरी खाई, दिन को मोटर सायकल में इन पहाड़ों और खाईयों से भय लगता था, अंधा मोड़ आते ही सांस थम जाती पर इस रात में सिर्फ और सिर्फ दोपायों का डर था अखबारों की सिलसिलेवार खबरें नजरों से आने लगी अगवा व्यक्ति की हत्या, बीच जंगल में लाश मिली, और न जाने क्या-क्या ?
अचानक सारा शरीर ठण्डा हो गया योगेन्द्र का; न जाने कहां से उजाले का गोला उसे घेरता हुआ साथ हो लिया। शरीर के सारे अंग शिथिल से लगने लगे मानो मृतक व्यक्ति को लादे योगेन्द्र चल रहा हो। भयंकर अंधेरी रात में अचानक घटी इस घटना से सहम गया वो। मोटर सायकल किस के इशारे पर सड़कों पर मोड़ के अनुरूप चली जा रही थी यही एक धनात्मक था वरना तो ईश्वर ही मालिक। स्वयं को मरा हुआ मान लिया योगेन्द्र ने। सारे इष्ट याद आ गये। अपने दुष्कर्मो को याद कर स्वयं को उस पल के लिये कोसता हुआ उसका दिमाग नितांत अकेला महसूस करवा रहा था। आत्मा असीम आकाश में बगैर भार के उड़ती महसूस हो रही थी और बेटी का मासूम चेहरा उसकी नजरों के सामने अदृश्य कील के सहारे टंग गया।
रोशनी का घेरा उसे घेरे हुए उसे सर्पिल वृत्ताकार मार्ग पर एक क्षण के लिए भी जुदा न हुआ सिर्फ पेड़ों की आड़ में कटता छंटता उस पर पड़ता रहा। हिम्मत न थी उस ओर देखने की जिधर से वो घेरा उस पर मानसिक प्रहार कर रहा था। लगभग आधे घण्टे का यह मार्ग अब पहाड़ी की दूसरी ओट में हो गया उसके साथ ही रोशनी का घेरा भी अर्न्तध्यान हो गया। अत्यंत लंबी ठण्डी सांस से दम घुटता महसूस हुआ और उसी पल एक अजीब तरह की आवाज वातावरण को लगभग चीरती हुई गंूज गई, वादियों में टकराती कानों में गूंजती ही रही। योगेन्द्र लगभग गाड़ी से गिरने वाला ही था उस आवाज की थर्राहट से; शायद ईश्वर ने उसके सदकर्मो को याद कर लिया था, इसलिए संभल गया वो, मुश्किलों ने बरसना शुरू कर दिया, योगेन्द्र संभल भी न पाया कि भयंकर रूप से चकित हो गया, रास्ता ही गायब हो गया, सामने सड़क एकाएक गायब हो गई झाड़ियां ही झाड़ियां हर ओर नजर आ रहीं थी।
टनॉंक की आवाज के साथ ही उसका दिमाग कुंद हो गया, गाड़ी 10 कि.मी./घण्टे की रफ्तार से में आ गई और झाड़ियों के कुछ कदम पहले गाड़ी रूक गई, एक्सीलेटर तेज कर गाड़ी की रोशनी तेज करी और हेड लाइट को सड़क के दोनों ओर धीरे-धीरे घुमा कर देखा पल भर में वस्तुस्थिति साफ हो गई। बीच सड़क पर पास की झाड़ियों को काट कर फैला दिया गया था, जो दूर से सड़क न होने का भ्रम पैदा कर रही थी, चौंकती निगाहों से निरीक्षण के उपरांत मोटर साइकल में गियर डाला और फुल एक्सीलेटर पर दौड़ा दिया। शरीर और कपड़े को भेदती झाड़ियों के बीच से वह फिर सड़क पर था। उसे लगा उसकी पीछे बहुत से लोग दौड़ पडे़, ठीक उसी पल वही अजीब सी आवाज वातावरण को पुनः चीरती हुई गूंज गई।
योगेन्द्र को समझ आ गया कि अब कोई और मुसीबत आने वाले है। ये आवाज किसी सीटी के द्वारा निकाली जा रही है, और सांकेतिक संदेश है, ईश्वर की प्रार्थना करता वह मोटर साइकल चलाता रहा।
‘‘ये रास्ता कब खत्म होगा ?’’ स्वयं से पूछता योगेन्द्र समझ नहीं पा रहा था, कि अब की आगे आने वाली मुसीबत कैसी होगी और वो बचेगा या नहीं। महीनों से लगातार मोटर साइकल चलाने जैसी पीड़ा शरीर में हो रही थी, दर्द के अहसास ने बताया किया वो बीमार है, परन्तु भय ने समझाया तू ठीक है। मानसिक झंझावत से जूझता वह फिर चौंक गया सामने बीच सड़क पर एक आधा नंगा व्यक्ति खड़ा था और हाथ के इशारे से रूकने कह रहा था, उस व्यक्ति और मोटर साइकल के बीच अंदाजन 200 फीट की दूरी होगी, 60 की गति में गाड़ी को पहुंचने में एक मिनट का समय लगना था, जिसमें सोचना था, रोकना है या नहीं। कहते है भय में दृष्टि या तों एकदम साफ हो जाती है या फिर अंधापन आ जाता है, दोनों हाथ उठाये वह व्यक्ति रूकने का इशारा कर रहा था यानी खाली हाथ है वो। उसके और साथी पीछे होंगे। अंत समय का भान होते ही दिल धाड़धाड़ करने लगा मानों सीने से छिटक कर निकल जायेगा।
रोकते हैं, पूछते हैं, डांटते हैं फिर छोड़ देते हैं, समाचारों के ये मुख्य शब्द अन्डर लाइन होकर चमकने लगे, और गाड़ी धीमी होकर उसने पास रूक गई, जंगल का घनापन बढ़ गया था, मैदानी इलाका था, स्वयं को अपहृत मानकर बुझे मन और बैण्ड़ के बड़े ढोल के पर्दे की तरह कांपते बदन को लेकर खड़ा हो गया।
धंसी आंखें माइक्रोस्कोप के शीशों की तरह लग रहीं थी, जो बारीकी से छान बीन करती हैं, पलांश में उस व्यक्ति का मुआयाना खत्म हुआ।
‘‘साहब! मुझंे कस्बे तक छोड़ देना, बस छूट गई थी, तब से इस जंगल में खड़ा हूं।’’ शुद्ध साफ हिन्दी में कहा, स्थानीय बोली का जरा भी पुट न था, आज योगेन्द्र के बचने का मौका पूर्ण रूप से खत्म हो चुका था, मोटर साइकल में बैठकर न जाने किस चीज से मार दे। पीछे मुडकर देख भी नहीं सकता। देखूंगा नहीं तो अपनी रक्षा कैसे करूंगा ? मरता क्या न करता, गाड़ी पर अपनी मौत सवार कर फिर मोटर साइकल गियर में डाली और मौत के कुएॅं में चल पड़ा।
अचानक चुप्पी टूटी
‘‘साहब! दवा से आपकी तबीयत ठीक है ?’’
मोटर साइकल लहरा गई योगेन्द्र के बदन में आई सिहरन से। सवाल ही ऐसा था। उसके और डाक्टर के बीच में यह आदमी कहां से आ गया; पर प्रत्यक्ष में इतना ही कह पाया।
‘‘ठ….ठीक है!’
‘‘काम नहीं हुआ डी ई ओ साहब नहीं मिले, फिर आओगे ?’’ चोट पर चोट करता सवाल दिमाग का कीमा बना गया। मशीनी अंदाज मे जवाब देता गया।
‘‘नहीं हुआ काम, फिर आना पडेगा।’’
‘‘अबकी बार बस से आना, मोटर साइकल से नहीं, वरना कल को लोग कहेंगे भीतर वालों ने एक निर्दोष को मार दिया। भीतर वालों का आदेश है रात्रि रास्ता बंद यानी बंद; मास्टर हो इसलिए छोड़ दिया। कितनी मेहनत से पता चला कि तुम पुलिस के साथी नहीं हो। मुख्यालय में पुलिस को बैठाकर घूम रहे थे। बिना मतलब भीतर वालों के खुफिया तंत्र को मेहनत करनी पड़ी। शुक्र मनाओं बच गये वरना रोशनी का घेरा मौत का घेरा है; घेरा आया और आदमी सीधा यमराज की चौखट पर।’’
शरीर वाद्य यंत्र हो गया था, कानों में सीटियां बज रहीं थी। दिल धड़धडा रहा था। खून का दौरा घर्षण के स्वर पैदा कर रहा था और दिमाग नीरवता के स्वर पैदा कर रहा था।
‘‘समझ गये न ? लोगों को बताना क्या-क्या हुआ और क्या नहीं करना है।’’
‘‘जी!’’ सूखे पपड़ी पड़ गये मुख से बड़ी मुश्किल से निकला।
‘‘बस यही रोक दो गाड़ी। मेरा घर यहीं है। ये जंगल ये वादी ये पहाड़ ये जमीन हमारे हैं। और किसी का हक नहीं इस पर।’’ गाड़ी रूक गई उसके शब्दों के साथ ही। योगेन्द्र खड़ा था, उसके आदेश के इंतजार में।
‘‘जाओ! कस्बे से फोन करके सरकारी पिठ्ठू को बता दो कि ठीक ठाक पहुंच गये हो। वो भी इसलिए कि मास्टर हो, न कि पिठ्ठू। सीधे जाना रूकना मत, मूतने भी। अब कुछ न होगा!’’
मेरे उत्तर, मेरी प्रतिक्रिया या धन्यवाद की शायद उसे जरूरत ही न थी क्योंकि वो तो शायद यहां का राजा था।

सनत कुमार जैन