सनत कुमार जैन की कहानी-गुनगुनी धूप

गुनगुनी धूप

‘‘तू कैसी है मां, जरा भी नहीं सोचती कि ममता को तकलीफ है. बेचारी कब से काम कर रही है. और तू ये बर्तन निकाल कर रख दी हैं मांजने के लिए. ज़रा भी दया नहीं हैं ?’’
‘‘तुझे बड़ी दया है अपनी मां पर……, बहुत चिंता कर रहा है….. मैं जवान औरत हूं, घर के काम क्या, अड़ोस पड़ोस वालों के भी कर दूंगी. जा, जाकर बहू के पैर हाथ दबा दे; बेचारी थक गई होगी, मेरे जुलूम से. मैं भी कितनी जालीम औरत हूं, उस बेचारी का दुख न समझ पाई.’’
‘‘सीधे बात कर मां! ये ताने मत मार. सुबह से तो जुटी है वो. तू क्या कर रही हैं ? रोटी, सब्जी, खाना, झाड़ू बर्तन, कपड़ा कौन किया ? और तू अभी सोने की तैयारी कर रही है ?’’ तमतमाया बेटा चिल्लाया।


‘‘अभी नहीं सो रही हूं बेटा. जिस दिन सो जाउंगी तब ही शायद तुझे पता चलेगा. जब मेरी आंखें बंद होगी तब शायद तेरी आखें खुले’’ मन मसोसकर मां बोली।
‘‘तू जा न ममता! आराम कर. तेरा कमर दर्द ठीक हो जाए तब ही नीचे उतर कर आना. मां ने जिंदगी में किया ही क्या हैं जो तुम उम्मीद रखोगी उससे.’’ अजीत ममता से अनुग्रह करता हुआ बोला. वह एक ही पल मेें दो तरह के रूप लिए हुए था. मां के प्रति क्रोध, घृणा के भाव और पत्नी के लिए प्रेम, दया, चिन्ता के भाव. शायद रावण दसों प्रकार के भाव एक साथ एक ही वक्त पर पर धारण कर सकता था. लगभग साठ बरस की बुढ़िया मां का रंगहीन चेहरा उनकी प्रौढ़ता और रूप को बेनूर कर रहा था. उसके भीतर का अंतर्द्वंद चेहरे पर दिख रहा था. पर जबान तक नहीं पहुंच पा रहा था. अपने बेटे के मंुह से ऐसा सुनकर अजीब तरह की बैचेनी महसूस हो रही थी. ऐसी मजबूरी जिसमें बेटे के आसरे और उसकी चक्की में घिस जाने के अलावा कोई रास्ता न था.
‘‘तू अपनी जवान औरत से मेरी तुलना करता है ? सास और बहू में उम्र का फासला नहीं होता है ? वो मुझसे हिजगा करती है ? जब घर के कामों में मुझसे बराबर की हिस्सेदारी चाहती हैं तो वह घर कमाई पर बराबरी क्यों नहीं करती है ? साथ ही मेरे पहनने ओढ़ने में बुढ़ापा क्यों नजर आता है ?’’ मां के भीतर का दर्द बहने लगा.
‘‘तो क्या जान दे दे वह ? आठ दिन से उसकी माहवारी बंद नहीं हो रही है शरीर का बंूद बूंद खून निचुड़ गया है और तुझे अपने पहनने ओढ़ने की पड़ी है! घर की बहुएं पहनती ओढ़ती हैं या बुढ़िया सास ?’’ क्रोध से अजीत भनभना रहा था, उनकी बातों के साथ साथ चेहरा भी चिन्तित हो गया था.
‘‘बेटा! मैं भी इस घर की बहू ही हूं. मैं पुरानी और वो नई. बस! इतना ही फर्क है. रही माहवारी की बात तो बेटा मैं भी साठ बरस की औरत ही हूं. मैं भी जानती हूं माहवारी होती क्या है ? तू क्या मुझसे ज्यादा जानेगा ? ये ढोंग हैं मायके जाने के. मायके जाने से रोका है इसलिए वो मुझे सजा दे रही है काम न करके. तेरी तो आंखों में ममता की पट्टी बंधी है तू क्या समझेगा.
‘‘उल्टी सीधी बातें मत करो मां. पट्टी तो तेरी आंख में बंधी है. न जाने क्यों तू उसे ही अपना दुश्मन मान चुकी है. न तो उसके किये हुए काम नजर आते हैं तुझे. न हीं उसकी सेहत. दिखता नही उसका शरीर कितना कमजोर हो गया है ?‘‘ अजीत क्रोध से लबालब भरा था और थोड़ा थोड़ा बाहर फैल भी रहा था. सामने खड़ी औरत का मां होना खटक रहा था क्योंकि उसे अब मर्यादा में रहना मुश्किल लग रहा था. क्रोध में बकने के साथ साथ यदा कदा हाथ भी अपना आपा खोने पर आंदोलित हो रहे थे.
‘‘अड़तीस किलो से छैसठ किलो हो गयी है सेहत. दिख रहा मुझे. बारह साल की ये उपलब्धि क्या कम है? सेब, संतरा, अनार, मौसम्बी, केला कौन से फल नहीं खाती है? सुबह शाम दूध, घी के पराठे, किस चीज से उसकी सेहत गिर रही है?’’


‘‘तू ऐसे बता रही है मानो तुझे कुछ भी खाने ही नहीं मिलता है. सबकुछ ममता ही खा जाती है? सारा दिन तो तेरा, बहू के खाने का हिसाब रखने में निकल जाता है. तू कब कुछ काम करती है ? ऐसी नजर रखती है तभी तो ममता के शरीर को ये फल दूध भी संभाल पा रहे है. तू तो टोनही बन गयी है मां. अपनी ही बहू को टोटका करने लगी है. कैसी मां है तू ? सठिया गई है.’’
‘‘मैं तो सच में सठिया गई हूं. तेरी बु़िद्ध को क्या हो गया है ? तुझ पर तो उमर का दोष नहीं छाया है. फिर तू क्यों ऐसी बाते करता है ? और वो नागिन सिर्फ परिवार को ही डसना जानती है, सास को ही डसती है ? उसके विषपुंज नहीं नजर आते तुझे ?’’
‘‘औरत ही औरत की दुश्मन है. बहू की जान के पीछे ही पड़ गई है. मूर्ख औरत, तू तो अब परिवार के साथ रहने लायक नहीं रह गई है. माहौल खराब कर रही है. शांति भंग कर रही है. तेरा तो जुगाड़ करना पड़ेगा.’’
’’गैस सिलेण्डर भरा हुआ है बेटा. दो चार दिनों पहले ही लगाया था. और ये अच्छा न लगे तो मिट्टी का तेल भी दस लीटर भरा पड़ा है. बूढ़ा शरीर है छत से भी ढकेल सकता है.’’ मां की सूनी अंधेरी आंखों में सूनापन बढ़ गया.
‘‘तू तो चाहती ही है कि मैं कुछ उल्टा सीधा करूं और फिर जेल चला जाऊं. उसके बाद तू चैन से सताना अपनी बहू को. पर मैं तेरे झांसे नहीं आने वाला. तुझे तो भगवान ही सजा देगा. मैं क्यों अपने हाथ गंदे करूं?’’ अजीत एकदम से यूं बोला मानो कोई गंदगी उठाते उठाते बच गया हो.
‘‘तू भी बाप है. बेटा, ये बात याद तो है न कि भूल गया है ? मेरी बद्दुआ नहीं है मात्र सलाह है. क्योंकि बच्चे कितने भी बदमिजाज हों, मां बाप कभी उनके लिए बुरा नहीं सोचते है. परन्तु बच्चों के कर्म उन्हें क्या और कैसे दिन दिखायेंगे आसानी से समझा जा सकता है.’’ मां के आंसू निकल पड़े, अपने बच्चे के भविष्य में आने वाले दुखों की कल्पना मात्र से. पर बच्चे ?
‘‘तू तो सच में टोनही बन गई है. तुझसे बात करना यानी अपने लिए कुछ न कुछ बुरा आमंत्रित करना.’’ कह कर अजीत वहां से चला गया. और छोड़ गया अपनी मां को अपनी उपयोगिता और इस जीवन की उपयोगिता पर मंथन करने को. वह बुढ़िया मंथन तो कर रही थी बावजूद उसके घर के कामों में व्यस्त थी. मचे हुए चौके की सफाई कर रही थी. मानों बहुरानी ने अपने किये हुए कामों की फेहरिस्त टांग दी हो, यूं चौका बिखरा पड़ा था. बहुरानी को दाल की चम्मच, सब्जी की चम्मच, भात की चम्मच, चटनी की चम्मच अलग अलग पसंद थी, जो कि होनी भी चाहिए परन्तु खाने की थाली में ‘यूं’ अलग अलग चम्मच? यह तरीका था खाने का उस दिन का जिस दिन कामवाली बाई नहीं आई हो.
वैसे ही फ्रिज की चीजों को बाहर निकाल कर छोड़ देना, प्लेटफार्म पर चावल, दाल के डिब्बे छोड़ देना आदि आदि अनेक प्रकार थे युद्ध लड़ने के. सभी को समेटकर यथा स्थान रखना भी एक बड़ा काम होता है. ये बात बहूरानी भी अच्छी तरह जानती है. और यह भी जानती है कि ये सब काम होते हुए भी काम की श्रेणी में नहीं आते हैं. इस बात को पतिदेव क्या मानता था नहीं मालूम; पर अब बेमतलब के काम की तरह, अच्छे से मानने लगा है.
इस घमासान के बाद भी बहू ने किसी भी तरफ से हथियार न थामे, बिल्कुल निर्गुट सदस्य की तरह बेअसर अपने कमरे में पड़ी रही. अपने उद्देश्य की पूर्ति जब बगैर कुछ किये हो जाये तो फिर क्यों कुछ करना. बगैर आवाज किये चलती टीवी पर नजरें गड़ायें, पूरा ध्यान नीचे की लड़ाई पर केंद्रित किया था. पसंदीदा घरफोड़ू सीरियल चल रहा था. रिमोट हाथ में थाम रखी थी. जैसे ही नीचे का घमासान बंद हुआ टीवी बंद कर पलंग पर पलट कर लेट गई. चेहरे पर फैली हल्की मुस्कान और आंखों में रह रहकर उठती चमक, गायब हो गये, मानों सुंदर चित्र पर पानी से पोंछा मार दिया हो.
दरवाजे के खुलने की आवाज ने रही सही चेहरे की रंगत भी मलीनता में बदल दी. उसके पास आकर बैठता अजीत अब अपने नए रूप में था. नीचे मां के सामने चढ़ा क्रोध और चेहरे की लालिमा, भय और पीलेपन में बदल गयी थी. चाल का ढीलापन कुछ और ही छवि तैयार कर रहा था. नीचे जीतकर आया हुआ यहां हारा नजर आ रहा था.
‘‘तमाशा बना रखा है मां ने घर को. बात को घुमाकर कहना और सबको परेशान करना. मैंने तो आज बता ही दिया मां को, घर में रहना है तो ठीक से रहो वरना कुछ न कुछ जुगाड़ करना होगा.’’ एक ही संास में घमासान का निचोड़, मां का निचुड़ा दिल अपने हाथ में रखकर पलंग पर लेटी संुदरी के समक्ष पेश कर दिया. शायद इस भेंट में भी कुछ कमी थी इसलिए वह वैसे ही करवट पर पड़ी रही.
‘‘सुन रही हो ममता!’’ अपनी सारी हिम्मत टटोलकर अजीत बोला फिर भी उसने जवाब न दिया. बेचैन सा अजीत कुछ सोच में पड़ गया. उसका एक हाथ ममता की पीठ पर जाते जाते रूक गया. चेहरे का पीलापन उसके भीतर के भय को दिखा रहा था. उस चार पल के कालखण्ड में वह चार बार इस तरह की कोशिश किया. कांपते हाथ और जाना पहचाना भय उसे हर बार रोक लेता था. उसके अंदर का घुग्गुपन उसकी हिम्मत के टायर को पंचर करता जा रहा था. आखिर प्रयासों ने सफलता छू ही ली. कांपती उंगलियां ममता की खुली बाह से छुआ ही गई. ममता के इंतजार की घड़ियां पूर्ण हुईं क्योंकि वह जानती थी कि इससे ज्यादा उम्मीद करना बेकार है. उसके पास विगत बारह वर्षो का अनुभव जो था. उधर अजीत भी अपनी अप्रत्याशित सफलता पर आश्चर्य से भरा था. कुछ सोच समझ पाता कि ममता तेजी से करवट बदल कर बोली.
‘‘जाओ सो जाओं अपनी मां की गोद में. तुम इसी लायक हो. छूना भी मत मुझे!‘‘ कहती हुई ममता ने एक ही झटके में खुद को अजीत से दूर कर लिया. अजीत का पीला चेहरा निष्प्राण हो गया. एक पल को समझ ही नहीं आया कि ममता की बात ने उसके प्राण खींचे या फिर उसकी हरकत ने. वह नाउम्मीद सा भारी कदमों से कमरे से बाहर निकल गया.
ममता अपनी कामयाबी पर मुस्करा उठी. डेªसींग टेबल के आइने पर अपने बदन को निहारा. जो कि आम औरतों की तुलना मे कम भरा हुआ था. फिर भी संतुष्टि के भाव जागे और वह मुस्करा उठी. उबासी लेती हुई अंगड़ाई की मुद्रा में आ गई. ना जाने क्या सोचती उसके चेहरे की मुस्कान हंसी में बदल गई.
तभी नीचे दरवाजे पर किसी के घंटी बजाने की आवाज ने चौंका दिया. इस वक्त ग्यारह बजे दिन को कौन आया है. वह दरवाजे से नीचे झांकने लगी और आवाज पर ध्यान केंद्रित कर लिया. दरवाजे पर पहचानी सी आवाज थी, दूर के रिश्ते की बुआ थी. वह तुरंत ही तैयार होकर नीचे आ गई. नीचे बुआजी सौफे पर बैठी थी, वह तुरंत ही उनके पैर छूकर आशीर्वाद ली.
‘‘लगता है अपने कमरे की सफाई कर रही थीं?’’ बुआजी यूं पूछ कर ममता के लिए धर्मसंकट दूर कर दिया.
‘‘हां बुआजी! सोने नहीं मिलता है. इतने काम होते हैं घर में कि सारा दिन भी कम पड़ जाता है. कभी कभार चौके का काम जल्दी निपट जाता है तो कमरे की साफ सफाई करने जुट जाती हूं.’’ कहती हुई ममता अपना पल्ला ठीक करने लगी. ’’मम्मी को चैन ही नहीं पड़ता है, घण्टे दो घण्टे सो लेती हैं तो फिर देखने चल पड़ती हैं क्या काम हुआ है, क्या नहीं हुआ. मैं कहती हूं निपट जाएगा काम, आप तो आराम करो. पर कहां मानने वाली है मम्मी! कहती है, बूढ़ा शरीर चलाती रहूं तो ठीक है वरना जाम हो गया तो बिस्तर पर पड़ी सड़ती रहूंगी. आप ही बताओ बुआजी ये बातें कहने की हैं ? कर तो रही हूं चाहे धीरे करूं चाहे तेजी से. आपको क्या, आराम से पड़ी रहो. घर की शोभा होते है बुजुर्ग. ऐसी उमर आ जाए तो उन्हें चुपचाप पड़े रहना चाहिए.’’ सनसनाते तीरों से सासूं मां का सीना छलनी हो गया. अभी तो बेटा नोचकर गया था अब ये आ गई. बददुआ से भरी वाणी. आंसू बह ही गये बुआजी के सामने.
‘‘देख सुन रही हो समधन जी! कैसी कटु जबान है. बिस्तर पर सड़ने की बददुआ दे रही है. मैं हूं कि सुबह से रात काम ही करती हूं. इसका भला ही करती हूं उसके बाद भी यह औरत मुझे बदले में बद्दुआ ही दे रही है. अभी अभी बेटा गया सुनाकर. बीवी की तरफदारी करके. और अब ये मेरी बहू. मेरी जिन्दगी का कबाडा हो गया. न जाने किस पाप का प्रायश्चित् करना पड़ रहा है. और क्या क्या दण्ड भोगने है पता नहीं.’’ रूंधा गला लिये सासूमां ने दुखड़ा बयान किया.
‘‘मैं कह रही हूं ये सब ? ये सब तो आपने कहा था. मैं तो सिर्फ दोहरा रही हूं. आप तो अब कहकर भूल जाती हो. अपनी कमजोरी से, यूं दूसरों पर इल्ज़ाम लगाकर आपको सुकून मिलता है तो वही सही. दिन दिन भर खटने के बाद भी यें सुनना पड़े तो किस्मत को ही दोष दूंगी. आपको क्या कहूं ?’ रूआंसी ममता भी बुआजी के सामने दुखड़ा रख दी. परित्यकता बुआ जो खुद ही अपने भाई की शरण में भी. अजीब असमंजस में पड़ गई. न तो एकदम से सासू मां का पक्ष ले पा रही थी न ही अपनी भतीजी ममता का. परित्यकता का दुख बांटने आई स्त्री के साथ घटी ये घटना उसके जीने का संबल बन गई थी. क्यांेकि अपने दुख से ज्यादा दूसरे का दुख का आनंदकारी महसूस होता है और अपने सुख से ज्यादा दूसरे का सुख विस्मयकारी होता है. तौल तौलकर बोलना और बोलकर पलटना ही इस वक्त की जरूरत थी.
‘‘समधन जी बुढ़ापे में अपनी जबान बंद रखों और आंखें भी. आज के जमाने में बुढ़ापे की कदर नहीं है. बुढ़ापा और बुढ़ापे की बीमारियां ऊपर से घर की चखचख. अपने ही दुख से दुखी मन दूसरी बातें क्या सोचे. नई पीढ़ी है नए तरीके से सोचती हैं. उन्हें क्या रोकना टोकना.’’
‘‘मैं किसे रोक टोक कर रही हूं ? बुढ़ापा है. ठीक है कि बुढ़ापा है. पर आज मुझे है तो कौन सा ये लोग अमर फल खाकर आये हैं. ये भी तो बूढ़े होगें. आज यदि मेरे दिन अच्छे कटेंगे तो उनके भी कटेंगे. क्यांेकि आम के पेड़ से आम ही फल होते है. और हां समधनजी! आपकी और आपके घर की समस्या दूसरी है. आप अपने घर में रहती हो दीन हीन बनकर और मुझे सिखा कुछ और रही हो. मैं रह चुकी हूं, दीन हीन बनकर, परन्तु तुम्हारी तरह नहीं हूं कि अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए गधे को घोड़ा समझा हूं. आज बूढ़ों के साथ गुजरने वाली ये परिस्थिति का निराकरण मैं करूंगी. मैं दुनिया को संदेश देकर जाऊंगी जो कि एक मिसाल होगा. कोई भी बेटा बहू अपने मां बाप को दुख देने से पहले दस बार नहीं सौ बार सोचंेगे.’’ आखिर मां की ममता ज्वालामुखी में बदलने की ओर अग्रसर हो ही गई. बहूरानी ममता सासू मां का यह रूप पहली बार देख रही थी. भय व्याप्त हो गया चेहरे पर. परन्तु बुढ़िया की सीमित शक्ति और बल पर विचार कर वह भी गुर्राई.
‘‘क्या कर लोगी ? हाथ पैर तो चलते नहीं, घर का काम होता नहीं. कर क्या लोगी ?’’ उकसाकर जानना चाहा उसके मन की बात.
‘‘तुम इंतजार करो बेटा!, और अभी से घर संभालना सीख जाओं. वरना तकलीफ तो तुम्हें ही होगी. अपने रूप का जादू हथियार बनाकर अजीत को ही नचाना. वहीं नपुंसक तुम्हारे आगे पीछे घूमेगा. मैं भी औरत हूं मैं भी सबकुछ जानती हूं. औरतों के अधिकार की बात जब भी आगे आयेगी तो पहले सास और मां को अधिकार मिलेंगे. जब तक उन्हें सम्मान नहीं मिलेगा तब तक तुम्हारे लिए लाल कालीन दूर की कौड़ी ही बनी रहेगी. एक मेरे से जीत लेने से तुम अविजित रहोगी मत सोचना. अपनी यौन शक्ति से मात्र पुरूष से जीत पाओगी उसे ही हथियार बनाकर सामने रखोगी. उसे तरसाकर कब तक जीत पाओगी. जिस दिन भी वह तुम्हारे से मंुह मोड़कर दूसरी की ओर गया तो देखना क्या होगा. न तो दुनिया की हर सास डायन हैं, न ही हर बहू! अपने इस पूर्वाग्रह से निकलना होगा वरना लगेगा यही की औरत जीत रही है, पर वह हारती हुई हार के निम्नबिन्दु पर पहुंच जाएगी. घर के चौके को रणक्षेत्र बनाकर अपनी ही जड़ों को कमजोर करोगी.’’
‘‘वाह समधन जी वाह! एक तरफ तुम स्त्री के संघर्ष की बात करती हो और दूसरी ओर अपने बेटे को नपंुसक कह कर ये साबित करना चाहती हो कि वह अपनी बीवी को न दबाकर गलती कर रहा है. ये कैसा चरित्र है तुम्हारी बातों का?
‘‘इस बात का क्या फर्क पडता है कि गृहस्थी की गाड़ी का स्टियरिंग पुरूष थामा है या औरत, यदि गाड़ी आराम से चल रही हो तो. यदि ममता अपने संस्कारों को उलीच कर मर्द की सवारी का रास्ता अपनाती है तो वह गलत रास्ता ही है तो परिणाम भी गलत ही होंगे. टीवी के सीरियल इससे ज्यादा नही सीखा पा रहे हैं और विज्ञापन तो औरत की यौन शक्ति का विवरण पत्र बने हुए हैं. कामवाली बाई के आने के बाद घर के कामों की मात्रा कितनी होती है. मात्र तेरा मेरा कहते हुए दो चार घंटे के काम के लिए पूरा दिन खराब कर देते हैं। उस बेकार गये समय की भरपाई क्या संभव है ? जल्दी से काम निबटाकर भी तो जीवन मे कुछ और भी पाया जा सकता है.’’
’’जब इतने भाषण झाड रही हो तो बता ही दो न क्या करने वाली हो ?’’ ममता कुछ धीमे स्वर मे पूछी.
’’मैं दुबारा शादि कर सकती हूं!’’ मानो परमाणु बम फूटा हो ऐसी शांति छा गई.
’’क्या……?’’
’’ये घर द्वार बेचकर अपने नये पति के साथ रहूंगी. ये सब मेरा और मेरे पति का बनाया हुआ है. तुम भी अपने लिए ऐसा तैयार रखो.’’ एकदम शांत स्वर था।
’’तुम्हारे पास तो ये सब है. मैं क्या करूं? मुझ गरीब का क्या होगा?’’ बुआजी एकदम से रूंआसी हो गई.
’’मेरी परिस्थिति के अनुसार मैंने अपना रास्ता चुना है तुम भी अपनी परिस्थिति के अनुसार चुनो. तुम क्यों उस घर से मिलने वाली सुविधाओं और मिल सकने वाली सुविधाओं के लालच में चिपकी हो ? जब तुम वहां काम करके खट सकती हो तो कहां भी खट जाओगी.’’ कहकर सासूमां बुआ भतीजी को अकेला छोड़ अपने कमरे चली गई.

सनत कुमार जैन