कृष्ण शुक्ल की कहानी-एक लड़की की हत्या

एक लड़की की हत्या


चिन्नी के रिजल्ट निकलने के बाद से ही घर में मां उस पर विशेष ध्यान देने लगी है। अब वह स्कूल में पढ़ने वाली साधारण लड़की न रहकर घर की अहमियत रखने वाली सदस्या हो गई है। जो घर के हर छोटे-बड़े काम में दखलअन्दाजी कर सकती है। छोटी से छोटी बातों में मीन मेख निकाल सकती है। यह प्रवृति इन दिनों उसमें कुछ इन दिनों उसमें कुछ अधिक बढ़ भी गई है।
घर में भविष्य की एक ओर कमाऊ सदस्या, जबकि अब तक उसकी नौकरी कहीं लग न पाई है। एम्प्लायमेन्ट एक्सचेंज में उसका नाम दर्ज कराया जा चुका है। टेस्टेमोनियल्स की कापियाँ बनाकर रख ली गई हैं। कुछ एम.एल.ए., एम.पी. और भूतपूर्व मिनिस्टर भी है जिन्होंने उसे निहायत काबिल और शरीफ खानदान की लड़की लिखकर अपनी मोहरें लगाई हैं।
दफ़्तरों में कुछ टाईप किये, कुछ हाथों से लिखें एप्लीकेशन्स भिजवाये जा चुके हैं। आज दिन है प्रतीक्षारत इन्टरव्यू का। वैसे इस सब के पीछे मां की दौड़-धूप अधिक है। अधिक नहीं कुछ दिनों में चिन्नी जरूर किसी फर्म या दफ्तर में कोई न कोई नौकरी पा लेगी। बेकारी चाहे जितनी हो।
मैंने माँ से उसे आगे पढ़ाने के लिये कहा था। लेकिन माँ के तर्क के आगे घर में किसी चली भी तो नहीं है। ‘तू कौन से बी.ए.करने के बाद किसी दफ़्तर में अफसर हो गई है। क्लर्की जब शुरू करनी है तो मैट्रिक के बाद ही क्यों न की जायें ? मुफ़्त में पैसे खराब करने के अलावा उसमें और क्या है।’
’मां इन दिनों बेकारी अधिक बढ़ गई है। हजारों लोग हैं जो बेकार बैठे हैं वर्षों से।’ मैंने उन्हें समझाना चाहा था।
‘बेकार रहते हैं वे, जिन्हें बेकार रहना होता है। नौकरी हर ओर पड़ी है। आदमी की जहालत है जो उसे बेकार बनाये रखती है।
इससे आगे मैं माँ से और कोई तर्क नहीं कर सकती हूं। क्योंकि सही मायने में मां को नौकरी ढूंढनी ही नहीं, उसे प्राप्त करना भी आती है। चिन्नी भी अधिक दिन बेकार नहीं रह पायेगी। कुछ दिनों की बात है। कहीं न कहीं उसे भी वह किसी नौकरी में खपा कर ही दम लेगी।
कुछ नहीं हुआ तो ट्यूशनें हैं ही। दो-चार ट्यूशनें ही करवा देगी। पैसे कहां से ओर कैसे बटोरना, माँ की अच्छी तरह आता है। कभी न भी आता रहा हो पर अब सीख गई है, अच्छी तरह। पति के शराबीपने ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया है। नहीं तो सौ-डेढ़ सौ के मनीआर्डर में इतने बड़े घर को कैसे चलाया जा सकता हैं ? ट्यूशनों के नाम पर-पिछले कुछ वर्ष मैंने भी ट्यूशनें की हैं। दिन भर दफ़्तर ओर शाम को ट्यूशनों के नाम से मन कांप जाता है। क्योंकि वहां साल न बीतते-बीतते लाख प्रिकाशन लेने पर भी ऐसा कुछ हो जाता कि दफ़्तर से दो-तीन महीने गायब रहना पड़ता था। उस समय-लगता मुझसे शादीशुदा औरतों अच्छी हैं तो तीन-चार महीने डंके की चोट पर मैटर्निटी लीव पर चल देती हैं। लौटने पर उन्हें सन्देह करती घूरती आंखों का सामना तो नहीं करना पड़ता है।
ऐसे मौके पर मां अक्सर नाराज हो जाया करती है और घंटों मेरी गैर-जिम्मेदाराना हरकतों पर लेक्चर दिया करती है। फिर बाद में सब कुछ करने की जिम्मेदारी खुद ही ओढ़ लेती हैं।
इसी सबसे वह बड़ी से बहुत पहले ही नाराज है। जो अपने दफ़्तर के सेक्शन इन्चार्ज को घंटों अपने कमरे में घुसाये रहती हैं।
यद्यपि प्रत्यक्ष वह उसके आने पर कुछ कहती नहीं। मिलती है बड़े प्यार से। आव-भगत में कोई कसर नहीं रखती। बड़ी यदि घर में न हो तो कमरे में मुझे भिजवा देती है। चाय के साथ खाने का समय होता तो साथ बिठाकर खाना भी खिलायेगी।
लेकिन लगता है इस ओर खाने का अलग ही हिसाब रहता है। अधिक खिलाया महीने में दो-चार दिन खाना और बीस-पच्चीस प्याली चाय। एवज में वह जितना उससे वसूल लेती है वह तीन-चार गुना अधिक ही होता है। कभी पूरी फैमिली के सिनेमा का खर्च। कभी डालडा का टिन और कभी बाजार में ब्लैक से बिकने वाली जापानी साड़ी। बड़ी के लिये जो कुछ वह खर्च करता है वह अलग।
फिर आजकल लड़कों का रोना। नौकरी करने वाली लड़कियों की झंझटें आदि का ब्यौरा अलग रहता है। जिसे वह बेचारा किसी उपदेशक के मुंह से भरे हुये वाक्यों सा पोता रहता है। कभी-कभी मां के उपदेश इस सीमा तक बढ़ जाते हैं कि मुझे कमरा छोड़ना पड़ जाता है। छिः–चेहरे को कितना मार्मिक बनाकर वह सारे आख्यान कहती रहती है।
ऐसा नहीं है कि समझता नहीं। जानता नहीं। पर मालूम नहीं क्यों उस समय वह चेहरे पर उत्सुकता दर्शा कर सारी बातें सुनता, सहता रहता है।
कभी-कभी मन में इच्छा उठती है कि चीख कर कहूं- मां वह तुम्हारे उपदेश सुनने नहीं आया है। तुम्हारा लड़की के साथ कमरे में घंटे दो घंटे सोने आया है। उसे बता दो कि वह किस कमरे में है और यदि नहीं है तो कब तक आयेगी। नाहक बेचारे को बोर करती बैठी हो।
मेरे उठने पर मां मुंह बिदका देती हैं। उससे क्या, सच्चाई हमेशा सच्चाई रहती है। चाहे उसे ढंकने के लिये आगे-पीछे कितना भी बड़ी भूमिका बांधो। धर्म के बड़े-बड़े वार्डरोब में उसे कैद करने की कोशिश करो। फिर उसे जिस रूप में अंगीकार करना है, उसी तरह क्यों न कर लिया जायें।
इतना सब नहीं होता तो पिता क्यों घर छोड़कर हजारों मील दूर जा बैठता। वहां से सौ-डेढ़ सौ के मनीआर्डर भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता। मां कुछ है भी वैसी। नहीं तो पिता के मुंह में शराब न छुड़ा पाती। खुद उसके लच्छन अच्छे होते तो क्या वह बाजारू औरतों के पीछे इतने रूपये लुटाता फिरता। इतने रूपयों से तो अब तक बड़ी ओर मैं कहीं अच्छी जगह ब्याही जा सकती थीं।
चिन्नी के मेडिकल में दाखिले के लिये फीस भरी जा सकती थी। चिन्नी भी देखते ही देखते कितनी बदल गई है। दो-तीन साल पहले जब गु्रप्स चेंज करने के बारे में स्कूल में पूछा गया था तो उसने मेडिकल ग्रुप्स को कितना प्रिफेन्स दिया था। डाक्टरनी जो बनना था। वही अब मां के बहकावे में इस तरह आ गई है कि किसी किसी फर्म की क्लर्की के लिये बड़ी फक्र से एप्लाई करती है।
नौकरी के बाद क्या होगा ? दफ़्तरों की मनचली लड़कियों की दोस्ती। जो कुछ किन्हीं मजबूरियों के वश होकर नौकरी करती है। वे यहां के माहौल में कुछ इस तरह खप जाती हैं कि मजबूरियाँ उच्छंदताओं में बदल जाती हैं। नये फैशन और डिजाइनों के बीच उनकी पारिवारिक जिम्मेदारियां सिमट जाती हैं। जरूरतें बढ़ जाने पर उसे पूरा करने के लिये कई गलत-सही काम करने लगती हैं।
चिन्नी भी शायद उस माहौल में उसी तरह हो जायेगी। छोटी उम्र में नासमझी कुछ इस तरह समाई रहती है कि बुरा-भला सोचने की कूबत भी तो नहीं रह जाती। मैं कुछ कहूं तो शायद मुझे भी बुरा-भला कह बैठेगी। यह उम्र ही ऐसी होती है कि हर ओर दुश्मन नजर आता है। हर आदमी नवजवान आदर्शों का मखौल उड़ाता लगता है।
इस सब का अन्त भी क्या होगा ? सिवाय किसी साथ काम करने वाले लड़के के साथ कुछ दिन घर आने के। किसी घर के लायक बेटे को नालायक ठहराकर किसी दूसरे शहर में जाकर सिविल मैरिज करने के बाद फिर वही रोजमर्रा की बातें शुरू हो जायेंगी।
इन दिनों शायद इसी से मां मुझसे नाराज रहती है। इतने दिनों के बाद भी मैं अपना भविष्य अब तक निश्चित न कर पाई हूं। मैं क्यों किसी फलते-फूलते घर में आग लगाने जाऊँ बीबी के ठीकरे में हमेशा पुलाव ही तो नहीं बँटा करता। कहीं कुछ सही का गलत हो गया तो उस समय माँ तो आगे आगे आने से रही। नाराज होती तो होने दो। उसकी नाराजगी और खुशी से क्या ? जब इतने दिन कट गये हैं तो बाकी दिन भर कट जायेंगे।
वैसे लड़कों की कमी नहीं है। एक बार आँखें उठाकर देख लूं। मजाल क्या जो कोई बच जाय। यही तो एक ऐसा अस्त्र दिया है स्त्री को प्रकृति ने। जिसके प्रभाव से बड़े-बड़े नहीं बच पाये। सिकन्दर का गुरू अरस्तू तक नहीं बच पाया। जिसे सिकन्दर की प्रेमिका घोड़ों की तरह हाथों पैरों से खड़ा कराकर सवारी किया करती थी। फिर इन कल के छोकरों की क्या बिसात!
शायद आज चिन्नी का कहीं इन्टरवयू है। तभी न मां सुबह से उसकी कंघी करने बैठी हैं। आज यह उसे लेकर साथ ही जायेगी। इन्टरव्यू तो करीब बारह बजे होगा। लेकिन चिन्नी को केवल इन्टरव्यू भर नहीं देना है। उसे सलेक्ट भी होना है। और माँ जानती है नौकरी कैसे मिलती हैं ?
अब तक माँ ने पता लगा लिया होगा कि इन्टरव्यू कौन सा आफीसर लेने वाला है। पहले उसके बंगले पर जाकर हाजिरी देनी होगी। फिर मां वहां जाकर अपना दुखड़ा, पति का दुखड़ा सब रो आयेगी। कुछ इस तरह सब ठहराव कर आयेंगी कि किसी भी ढंग का आदमी हो इंकार न कर सकेगा। मां के मुंह पर इन्कार कर ही नहीं सकता। वापसी में शाम को रिजल्ट के बारे में यदि आफिसर के घर पर मिलने की सम्भावना न दिखने लगी तो वह उससे इतना अवश्य पूछ लेगी कि वह शाम कौन से मित्र के घर या किस होटल में गुजरता है-
खुद मेरा भी इन्टरव्यू इसी तरह का था, जब शाम को मैं मां के साथ रिजल्ट के बारे में पता लगाने गई थी उस समय बंगले में अफसर अकेला था। उसके बीबी-बच्चे शायद सिनेमा देखने गये हुये थे- भेज दिये गये थे। मां मुझे वहीं बिठलाकर आवश्यक काम से बाजार चली गई थी। अब वह वापस लौटी उस समय तक सलेक्शन कार्ड मेरे हाथों में था। जिसे मैं कांपते हाथों से थामे हुए थी।
आज भी उस दिन का निशान मेरे पीठ पर पड़ा हुआ है। एक बड़े दाद के चकते के रूप में। कहते हैं दाद छूत की बीमारी है। उस अफसर के कंधो पर भी तो एक बड़ा सा दाद था। काली झुर्रियों वाला। मुझे तो उसे देखकर उबकाई होते होते बची थी। न मालूम क्या था उस दिन की सब सहती गई थी। एक काले कुत्ते के साथ वह हमें गेट तक छोड़ गया था। आज भी उसकी शक्ल याद आने पर उस कुत्ते की लपलपाती जीभ दाद को चाटती हुई लगती है। फिर वहां से रिक्शे के स्टैंड तक आते हुये मुझे कुछ ऐसा लगा था जैसे मीलों का सफर तय कर आई हूँ। तब से सेक्शन में जब भी मेरा प्रमोशन होता है मेरा हाथ इस दाद पर अवश्य पड़ता है जो हर प्रमोशन के साथ कुछ बढ़ा हुआ होता है।
चिन्नी आज कितनी सुन्दर लग रही है। फूल वायल की महीन साड़ी में। साड़ी वह कभी-कभी तो पहनती ही है। स्कूल के दिनों की स्कर्ट पहनने की आदत उसकी अब तक नहीं छूटी है। वैसे उतनी सुन्दर तो नहीं हैं। चेहरे-मोहरे में मुझसे अभी भी कम है। पर उम्र की चमक में रंग दब जाता है। दूसरें दिनों की अपेक्षा आज वह कुछ लम्बी भी लग रही है। शायद साड़ी की कसावट और जुड़े की उठान के कारण।
सफेद गुलाब का फूल बड़ी का पर्स लाकर मां ने उसे दे दिया है। पर्स हाथों में थामे हुए उसने गुलाब जूड़े में खोंच लिया। स्कूल के दिनों में लगातार पैरों में मोजे डाँटे रहने के कारण उसके पंजे मुलायम लगने लगे हैं। हाई-हील की सैंडिलों में एड़िया कुछ ऊपर उठ गई हैं।
शायद वे जाने वाली हैं। मां भी आ गई है। हल्का सा मेकअप करके। मैं चाहती हूं, चिल्लाकर चिन्नी को रोक लूं। चिन्नी तू न जा। हम दो बहिनें जितना कमाती हैं, उसी में सब रह लेंगे। लेकिन मां को उसके साथ निकलते हुये देखकर चुप ही हूं। जीभ तालू में जाकर चिपक गई लगती है।
मुन्ना कटोरे में दही लाकर चम्मच से चिन्नी को देने लगा है। मां शुभ-अशुभ का कितना ध्यान रखती है। मुन्ने के हाथों कटोरा ही छूट जाता तो अच्छा होता।
वे कोर्टयार्ड के बाहर निकलने को है। चिन्नी को कोर्टयार्ड के गेट पर बने आर्च को पार करने के लिये थोड़ा झुकना पड़ रहा है। इन दिनों उसका शरीर किस तेजी से बढ़ने लगा है। पूरी औरत लगने लगी है वह। नहीं, अभी पूरी कहां………..। अभी अधूरी है। सलेक्शन कार्ड लेकर रात गये जब लौटेगी तब एक पूरी औरत हो चुकी होगी। और तब एक लड़की की जवान चीख किसी चाहरदीवारी में घुटघुटकर दम तोड़ रही होगी।