लघुकथा-अरविन्द अवस्थी

फ़र्क


उमेश अपनी पत्नी को हमेशा ताने दिया करता। कहता कि तुम्हारी मां ने क्या सिखाया है ? कोई काम ढंग से नहीं करती हो। जबकि मनीषा शरीर से भले ही कमजोर है लेकिन काम में लगी रहती है। न तो कभी काम से जी चुराती और न कभी उमेश से बहस करती। कभी जब बुरा लगता तो बस छिप कर आंसू बहा लेती। कभी मायके जाकर मां को देखने की बात करती तो उमेश चिढ़ जाता और साफ मना कर देता।
उमेश की मां अचानक बीमार हुई। उसकी बीमारी बढ़ती ही जा रही थी। बुढ़ापा तो अपने आप में ही एक बीमारी है शरीर कमजोर होता जा रहा था। इस दौरान उमेश की पत्नी ने अपनी सास की बहुत सेवा की। सुबह से शाम तक उनकी देखभाल और घर का काम करते वह थक जाती लेकिन किसी से कुछ कहती न थी। आखिर उसकी सेवा फलवती हुई। उमेश की मां स्वस्थ होने लगी। अब उमेश की आंखें खुलीं और मनीषा की तारीफ करते हुए उसने कहा-‘‘मनीषा! मैं कहता था न कि तुम्हारी मां ने क्या सिखाया है, मुझे उसका उत्तर मिल गया। सचमुच तुम्हारी मां धन्य है जिसने तुम्हें ऐसे संस्कार दिये। तुमने अपनी सेवा से मेरी मां को बचा लिया। मनीषा का दिल भर आया, बोली-’’मैंने तो कभी अपनी मां और आपकी मां में कोई फर्क नहीं समझा।’’
हालांकि उसे पता था कि ऐसी गलती की कोई माफी नहीं थी। बचे खाने में से दो रोटियां निकाल लेने पर एक दाई की नौकरी जा चुकी थी। फिर भी उसने हिम्मत जुटाई। जो खाना बचा था उसे बाहर फेंकने के लिए रीना ही ले गई। उसने वहीं अपने डिब्बे में सब्जी और कुछ रोटियां रख लीं। गेट से अंदर आने पर हॉस्टल वार्डन खड़ा मिला। उसे देखते ही डर के मारे रीना के हाथ से डिब्बा छूटकर नीचे गिर गया और खाना बिखर गया। वह वार्डन के सामने गिड़गिड़ाती रही, बच्चों के भूखे होने की कहानी सुनाती रही किंतु वार्डन पर कोई असर न हुआ। रीना को डांटते हुए उसने कहा-‘‘चलो अपना हिसाब लो और गेट के बाहर जाओ। हमें तुम जैसी चोर दाई की जरूरत नहीं है।’’
रोती-सिसकती रीना गेट से बाहर जाती हुई सोच रही थी कि बचा हुआ खाना लेने पर उसे चोर कहने वाले को कोई चोर क्यों नहीं कहता जबकि वह पच्चीस रूपये किलो चावल खरीद कर रजिस्टर में अट्ठाइस रूपये किलो का भाव लिखता है। जवाब कुछ-कुछ उसकी समझ में आ रहा था।

एहसास


इधर कुछ वर्षों से मुझे ऐसा लगने लगा था कि आज का आदमी बिल्कुल स्वार्थी हो गया है। उसे उसके अलावा किसी से कोई मतलब नहीं है। वह अपनी खुशी में खुश अपने दुख में दुखी रहता है। रिश्ते-नाते में सौदेबाजी का खेल चल रहा है। सच कहूं तो मुझे ऐसा लगता है कि मैं सबसे अच्छा आदमी हूं और बाकी लोग बहुत बुरे हैं। मुझे लोगों से नफरत सी होने लगी थी।
जुलाई का महीना था। हफ्ते भर से बारिश नहीं हुई थी। धूप तेज थी। गर्मी भी अच्छी खासी थी। मैं विद्यालय से अपने अध्यापक मित्र की मोटरसाइकिल पर बैठकर घर आ रहा था। अचानक एक आटो सामने आ गया। उसकी रफ़्तार तेज थी। वह संभाल न सका और हमारी मोटरसाइकिल से टकरा गया। मेरे साथी का पैर टूट गया और मुझे भी गंभीर चोट आई। जैसे ही दुर्घटना हुई मैंने देखा कि आसपास के लोग आ गये। राह चलने वाले भी रूके। आटोचालक को पकड़कर दो-चार थप्पड़ भी मारा। हम लोगों को पकड़कर सहारा देते हुए एक दुकान के अंदर ले गये। लोगों ने मालिश की। एक सज्जन अपने घर से बर्फ का टुकड़ा ले आये और उससे चोट सेंकने को कहा। अस्पताल ले जाने की तैयारी में थे कि इतने में हमारे स्कूल के लोग सहायतार्थ पहुंच गये। अस्पताल में पहुंचते ही डॉक्टर ने इंजेक्शन दिये। एक्सरे किया और प्लास्टर चढ़ाकर घर भेज दिया। पूरा घटनाक्रम बार-बार आंखों में नाचने लगा। उस दिन मुझे लगा कि बाकी लोग मुझसे बहुत अच्छे हैं। अभी लोगों में इंसानियत बची हुई है। मैं हृदय से बार-बार उन लोगों के प्रति आभार व्यक्त करता रहा। मुझे अपनी भूल का एहसास होने लगा था।


अरविन्द अवस्थी
श्रीधर पाण्डेय सदन
बेलखरिया का पुरा
मीरजापुर ,उ0प्र0 231001
चलभाष: 9161686444,
8858515445
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