लघुकथा-शिशिर द्विवेदी

पर्दा


आह! दोज़ गुड ओल्ड कॉलिज डेज़! सपनों की दुनिया! मौज-मस्ती, हँसी ठहाके! लाइब्रेेरी और कॉरीडोर्स में सिमटा संसार! कैन्टीन में चाय की प्यालियों पर छलकते मार्क्स, फ्रायड, स्लेयर मासेर, नीत्से! नीलू इन बहसों में अहम हिस्सा हुआ करती थी।
ऐसी बहसों में प्रायः आर्थिक रूप से कमजोर छात्र हिस्सा नहीं लिया करते थे। वे प्रायः हीन भावना से ग्रस्त रहते थे और उनकी अपनी एक अलग दुनिया हुआ करती थी।
कॉलेज में कार्यक्रमों में भी नीलू बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थी। काफी मिलनसार थी नीलू। वैसे उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि की कोई जानकारी हमें नहीं थी। उसी के बताने के अनुसार वह शहर के एक समृद्ध इलाके में रहती थी। पहनावे से भी वह सभ्रांत परिवार की लगती थी।
छात्र संघ का चुनाव चल रहा था। प्रायः हर शाम हम छात्रों का समूह शहर के किसी न किसी इलाके में प्रचार अभियान में निकल जाता था। उस दिन हम एक पॉश इलाके में थे। कॉलेज से ही छात्रों के पते मिल जाया करते थे। सचमुच बड़ा ही समृद्ध इलाका था। चौड़ी सड़क पर दोनों ओर शानदार बँगलों की कतारें, पोर्टिको में खड़ी कारें, नीम अँधेरे में दूधिया रोशनी में डूबे बँगलें, सड़क के दोनों और छायादार वृक्षों की कतार, फिजाँ तक दिलकश रूमानियत। पते को देखते ही एक ने बताया कि इसी रो में नीलू का भी बंगला होना चाहिए। नम्बर खोजते हुए एक बँगले के सामने पहुँचे। गेट बन्द था, भीतर से ‘किशोर अमोणकर’ का राक मालकोंस हवाओं में गूँज रहा था, तबले पर निखिल बनर्जी थे। बन्द गेट के पीछे चौकीदार की आँखों में सवाल झाँक रहा था। हमने नीलू के बारे में दरियाफ्त किया। गेट खोल उसने परिसर में एक ओर इशारा किया। हम उस ओर गए जो सर्वेन्ट्स क्वार्टर प्रतीत होते थे। एक क्वार्टर में एक महिला चूल्हे पर रोटी सेंक रही थी। हम नीलू के बारे में पूछा। आहट पाकर तब तक नीलू आ चुकी थी।
अगले कई दिनों तक नीलू कॉलेज में नहीं दिखाई पड़ी और जब आयी तो अपने में सिमटी हुई। अब उसकी दुनिया से मार्क्स, नीत्से, इलियट, कीर्केगार्द विदा हो चुके थे। शायद उसने अपने इर्द-गिर्द एक अलग दुनिया बसा ली थी। मुझे अनायास ही यशपाल की ‘पर्दा’ कहानी याद आ गयी। आज भी मैं सोचता हूँ कि काश! हमारे और उसके बीच का ‘पर्दा’ ज्यों का त्यों बना रहता।


शिशिर द्विवेदीे
उपसंपादक मीडिया विमर्ष
बस्ती उत्तरप्रदेश
मो.-09451670475