लघुकथा-के पी सक्सेना दूसरे

होली मुबारक

“अजी, होली की मुबारकबाद तो ले लो… उठो ना!” कहते हुए उसने धीरे से अपनी एक टांग उसकी ओर अड़ाई।
“क्या है…. सुबह सुबह!” अगले ने एक जम्हाई लेकर अलसाई आँखों से पूरब की ओर देखते हुए कहा-“अभी कहाँ चार बजे होंगे!”
“हाँ-हाँ, तभी तो कह रही हूं….होली की मुबारकबाद तो ले लो!’’ अगर चार बज गए तो, फिर तुम कहाँ रुकने वाले, बाँग देने से!” उसने झिड़का।
“अरे हाँ! आज तो मालिक भी जल्दी उठेगा। थोड़ी ही देर में ग्राहक आने शुरू हो जाएंगे।” इतना कहते- कहते जाने क्यों, वह अचानक उदास हो गया।
लेकिन उसकी उदासी का कारण वह समझ चुकी थी। उसे जरूर छोटू की याद आ गई होगी………पिछली होली की ही तो बात है। हालांकि उस रोज ग्राहक को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए उसके सामने वो दोनों भी बहुत उछले-कूदे थे किंतु ग्राहक की नजर में तो बस, छोटू चढ़ चुका था।
एक गहरी सांस लेकर उसने जवाब में ‘होली मुबारक’ दोहराना चाहा किंतु आवाज गले में फंस गई और मुंह से बस, धीमा सा कुंकडूं…कूं, ही निकल पाया।
“पता नहीं आज किसका नंबर है!” वह बड़बड़ाया।
“अरे, शुभ-शुभ बोलो। जाना तो है ही, ये मनाओ कि कोई अच्छा ग्राहक आए और हम दोनों को साथ ले जाए।” मैंने लोगों को यह कहते खूब सुना है कि साथ जीना तो फिर भी आसान है, बड़े किस्मत वालों के ही नसीब में साथ मरना बदा होता है।”
उसकी बात सुनकर अब वह भी बड़े उत्साह से सड़क पर आते-जाते लोगों को परखने में लग गया।


के.पी.सक्सेना ‘दूसरे’
शांति नगर, टाटीबंध
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