लघुकथा-कृष्णचंद्र महादेविया

पुण्य लाभ


प्रेमू राम ठाकर की अमीरी का रौब कार में आए तीनों समाज सेवियों पर पड़ गया था। यह सच था कि विदेश में धन कमाने के बाद प्रेमू राम ठाकर भारत में आकर एक कम्पनी से सेवा निवृत हो गया था। कुल मिलाकर उसे कोई नब्बे लाख रूपए मिल चुके थे। प्रति माह पेन्शन तो अलग। बच्चों की शादी-बादी करवाने के बाद अपनी
विधवा मां से कई बार सत्यनारायण की कथा करवाकर हजारों लोगों को खाना भी खिला चुका था।
दान-पुण्य कमाना तो मानों उसका एक मात्र लक्ष्य था। शालीन और दम्भहीन होने को लेकर भी वह तीनों साथियों पर भारी पड़ गया था। तीनों में कमल चंद्र पाण्डे को पता नहीं क्यांे प्रेमू राम ठाकर की कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर दिखता था, पर वह रहा चुप ही था।
वे चारों कोर्ट केस के सिलसिले में नरोŸाम दŸा कश्यप के घर आए थे। चाय पीने के बाद वे उसे लेकर लौट चले थे। बालकरूपी मंदिर के पास उन्होंने गाड़ी पार्क की थी। कमल चंद्र पाण्डे आदत के मुताबिक साथियों से कह कर मंदिर के वास्तु-शिल्प को देखने मंदिर में प्रवेश कर गया था। मंदिर देखने के बाद वह पीतल निर्मित नक्काशीदार नन्दी बैल को देखने लगा ही थे कि प्रेमू राम ठाकर भी पीछे आ लपका। मंदिर पुजारी से वार्ता के बाद कमलचंद्र पाण्डे ने कुछ राशि वहंा दान पेटी में डाली ही थी कि पुजारी के जाने पर प्रेमू राम ठाकर निःसंकोच बोल पड़ा- ‘‘पाण्डे जी, दस-बीस रूपए तो निकालो?’’
‘‘क्यों, क्या बात है ठाकर साहब !’’
‘‘मेरे पास चेंज नहीं है, मैं भी कुछ दान-पेटी में डाल देता हूं।’’ निर्लज्ज हुए प्रेमू राम ठाकर ने कहा।
‘ठनाक!’ एक हथोड़ा सा जैसे कमलचंद्र पाण्डे के सिर पर पड़ा। एक क्षण को तो वह अवाक रह गया। फिर आश्चर्य को छुपाते दस रूपए चुपचाप प्रेमू राम ठाकर के फैले हाथ पर रख दिए। मुंह में कुछ जाप करते प्रेमू राम ठाकर ने दस रूपए दान-पेटी में डाल दिए और पुण्य लाभ कमा लिया था।


कृष्ण चन्द्र महादेविया

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