लघुकथाओं से वैचारिक विमर्श संभव है ?

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लघुकथाओं से वैचारिक विमर्श संभव है ?
लेखक-सनत सागर, संपादक बस्तर पाति, जगदलपुर, छ.ग.

लघुकथाओं से वैचारिक विमर्श संभव है ? यह प्रश्न मन में किसलिये आया है, ये हर मन की उत्कंठा होगी। वास्तव में हमें अपने जीवन में कभी कभी रूककर विचार करना चाहिये कि हम किस ओर जा रहे थे और वह राह सही नहीं है तो फिर राह बदल लेनी चाहिये। साहित्य को मानसिक शोधन का साधन माना जा सकता है। चिंतन का स्वरूप बदलकर आम जनों तक पहुंचाकर हम उसका सदुपयोग करते हैं। हमारे लेखन साहित्य की परिभाषा पूर्ण कर पा रहा है या नहीं, यह समय समय पर विचार करना चाहिये। साहित्य यानी जिसमें समाज का हित हो। इस विचार आने के बाद हम अपने हथियार यानी टूल्स की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं तो पाते हैं कि हमारी अपनायी साहित्यिक विधा की सामर्थ्य कहां तक है। सामान्यतः एक लेखक जीवन पर्यन्त एक ही विधा पर ही काम करता है। ये स्वयं को धोखा देना है कि हम गीत कविता कहानी लघुकथा, आलेख, पुरातत्व, लोकजीवन, इतिहास, आलेख, शोध पर समान रूप से काम कर सकते हैं। वास्तव में हम कुछ कामचलाउ लेखन से अखबारों की बुलबुला सुर्खियां बनकर खुद की पीठ खुद ही ठोक पीट कर खुश हो लेते हैं। जबकि एक संजीदा पाठक, एक संजीदा सामान्य इंसान भी इस बात को समझ कर मुस्कुरा लेता हैं।
अगर घर के आइने फोड़ दोगे तो क्या अपनी सूरत बदल लोगे।
अगर घर से बाहर न निकलोगे तो क्या अपनी सीरत बदल लोगे।
हमारे जीवन भर के चिंतन का भार ढोती विधा या फिर विधा को झेलता हमारा चिंतन; क्या है वास्तविकता ? इस पर विचार आवश्यक है।
लघुकथाओं की जब भी बात चलती है तो कुछ बातें हर कोई करता है। जैसे कि लघुकथा यानी छोटी कहानी या छोटे आकार की एक रचना जिसमें कहानी जैसे भाव होते हैं। कई लोग तो इसे इतना सूक्ष्म कर देते हैं कि सूक्ष्मदर्शी से देखकर समझना होता है। जबकि एक लघुकथा अपने आप में शिल्प, भाव, संदेश, प्रस्तुति, काल और वास्तविकता का चित्रण करती है। प्रयोगवाद के तौर पर कभी एक दो ऐसी रचनायें लिख लेना स्वीकार्य है परन्तु ये कभी भी लघुकथा की परिभाषा में शामिल नहीं हो सकता है।
लघुकथा एक जीवंत रचना होती है। हमारे आज के विषय कि -क्या लघुकथाओं से वैचारिक विमर्श संभव है, का जवाब ’हां’ में देती है। कहा जाता है कि किसी भी व्यक्ति के लिये वैराग्य की स्थिति मात्र एक वाक्य से या फिर एक घटना से उत्पन्न हो जाती है। तब तो हमारी लघुकथा तो पूरा एक अध्याय होती है।
वर्तमान दौर में लघुकथाओं को पढ़कर हम मान लेते हैं कि यही लघुकथायें हैं। जबकि उनमें से लगभग पूरी की पूरी घटनाओं का चित्रण मात्र होती हैं। एक समाचार की तरह। भावरहित सूचना! कई लोग इसे पाठक के लिये स्पेस देना भी कह कर अपनी कुचेष्टा करते हैं। कामवाली, रिक्शावाले, गरीब की भूख, स्त्री की बेचारगी, आदि के सूचना पत्र लघुकथा के शीर्षक से प्रकाशित किये जाते हैं। जिस तरह एक मारक कविता बिम्बों के सहारे ही लिखी जा सकती है ठीक उसी तरह लघुकथा भी संकेतात्मक हो।
हम एक उदाहरण के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे कि विषय की गंभीरता उसके प्रस्तुतिकरण के साथ ही साथ शिल्प और चित्रण के सामन्जस्य से बढ़ती है। न कि सिर्फ पूर्व प्रतिपादित गंभीर विषय के चयन मात्र से रचना श्रेष्ठ मारक और वैचारिक विमर्श को प्राप्त होती है।
एक सामान्य सा प्रचलित विषय लेते हैं जिसमें एक कामवाली की बेचारगी को हमें पाठकों तक यानी समाज तक लेकर जाना है। कामवाली है जिसका पति दारूबाज है, जुआ भी खेलता है। बच्चे छोटे छोटे हैं। कई घरों में काम करती है। उसके चीरहरण के कई प्रयास हो चुके हैं। चूंकि यह विषय आम है इसलिये सामान्यतः सब इस पर कलम घसीट ही लेते हैं।
तुम कल क्यों नहीं आई ?
पति ने मारा। दारू के लिये पैसा मांग रहा था।
ये तो रोज का बहाना है तुम्हारा। काम के बिना घर किस तरह चलेगा कभी सोचती हो।
आप तो समझो बाई जी एक औरत का दर्द!
यूं आंसू बहाकर क्या जताना चाहती हो।
ये है लघुकथा! इसमें न तो भाव हैं न ही काल है न ही शिल्प सौन्दर्य। सिर्फ एक नाजुक विषय है कि एक कामवाली की जिन्दगी नर्क है। पाठक के लिये सिर्फ सूचना है। सुबह के अखबार की तरह।
इसे आगे बढ़ाते हैं किसी और रूप में।
गणेश जी को तिलक करती उमा को लगा कि दरवाजे पर कोई लड़खड़ाकर गिरा हो। पर कौन गिरेगा यहां पर सोचकर फिर से घंटी बजाती हुई पूजा में लग गई।
’मम्मी! सोना आंटी के चेहरे से खून गिर रहा है।’ जोर की आवाज के साथ छोटा बेटा रवि बोला। जो अभी स्कूल जाने को तैयार हो रहा था। वह तुरंत ही घंटी किनारे रखकर बाहर की ओर दौड़ी। मन में अनिष्ट की आशंका तो आ ही चुकी थी।
कामवाली सोना दरवाजे के पास बैठी थी। और उसके गोरे गोरे गालों पर लाल निशान यूं ही दिख रहे थे। वह समझ गयी कि आज फिर उसका मुस्टंडा पति पैसे छीन कर बच्चों को मार रहा होगा। और ये सोना अपने पैसे बचाने और मारपीट से बचाने के लिये अपने उस राक्षस से भिड़ गयी होगी।
उसके नर्म गालों को छूकर ऐसा लगा कि वो काम वाली सिर्फ कामवाली नहीं है बल्कि उसकी तरह ही एक औरत है नर्म नर्म बदन की। परिस्थितिवश चेहरे और बदन का नूर सूख सा गया है। भीतर लेकर आयी। सोफे पर बैठा कर उसे दवा लगायी। चाय और रोटी भी दी उमा। सोना के बहते आंसुओं ने उसकी हर बात को शब्दशः कह दिया था।
वह अपनी अधूरी पूजा पूरी करने बैठ तो गयी थी परन्तु मन कहीं और था। मंगली… हां मंगली का क्या हुआ। उसका पति तो खूब चाहता था। कभी मारता पीटता नहीं था। बल्कि उसे कभी कभार सिनेमा भी ले जाता था।
उमा कसमसा उठी। गणेश जी की आंखों में देखती हुई उसकी आंखों में आंसू टपक पड़े।
’हे भगवान! तूने ही बचा लिया था मेरे परिवार को। उस दिन अगर मैं अपने पैसों का भूला बैग न लेने आती तो मेरी जिन्दगी में एक काला धब्बा हमेशा के लिये लग चुका होता। मेरे ही घर में एक कामवाली की इज्जत की धज्जियां उड़ चुकी होती। ये कामवालियां बेचारी!’
इस लघुकथा में आपने देखा कि कथा में उत्सुकता है, भाव हैं, संस्कृति की पुकार है। दया है, संदेश है। हमारी सारी बातें उसमें समाहित हैं। शिल्प भी है। सौन्दर्य भी है। संकेत हैं। लट्ठमार भाषा संदेश नहीं है।
इसमें वैचारिक विमर्श है या नहीं ? ये प्रश्न समीचीन है। इसमें विमर्श है। मात्र एक लाइन में कामवाली को निरीह होती है, नहीं कहा गया है। दो घटनाओं का सहारा लेकर उनकी अलग अलग आपदाओं से हमने प्रतिपादित करने का प्रयास किया है कि कामवाली औरतों का जीवन बेहद मुश्किल होता है। उनके ऊपर हमेशा परिवार को लेकर चलने का एक कठोर भार होता है। काम के साथ दैनिक काम और खुद को बचाये रखना।
इस कहानी में पात्र ने खुद के उदाहरण से आसानी से और जल्दी से सिद्ध कर दिया। यदि वह किसी अन्य पात्र को सहारा बनाती तब भी ये लघुकथा के मापदण्डों पर खरी उतरती। लघुकथा में न तो व्यर्थ का विस्तार है न ही जबरदस्ती एक चादर में पूरा परिवार सोया है।
इन दो उदाहरणों से हमने जाना कि सिर्फ गंभीर विषय ही लघुकथा को श्रेष्ठ नहीं बनाते बल्कि शिल्प भाव और जीवंतता उसे सर्वग्रही बनाते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इस कथा में पठनीयता है। कथ्य है। प्रवाह है। घास में चलने का अहसास है।
इस लघुकथा में भगवान का पूजा का चित्रण भी एक विमर्श है। लघुकथा में शामिल भगवान जी के सामने घटती घटनाएं और उनका सानिध्य हमें एक ऐसी आत्मसंतुष्टि की ओर ले चलता है जो आपको कोई भी दवा या माध्यम साधन नहीं दे सकता है।
वैसे हमारा प्रयास होना चाहिये कि हम हमेशा नवीन विषयों पर लिखें और विस्तार देते हुये लिखें जिससे कथा की सत्यता बरकरार रहे।
मैं जिनके संपर्क में हूं उनमें से रामनाथ साहू रायगढ़ जी की लघुकथाओं में नवीनता है। शिल्प है उत्सुकता है, पठनीयता है।
वैसे हमारे छत्तीसगढ़ में महेश राजा जी, बालकृष्ण गुरू जी, डॉ शैल चंद्रा जी, आदि लघुकथायें लिखते हैं। हमारे क्षेत्र में मैंने स्वयं को यानी सनत जैन, अमृता जोशी जी को ही सतत लिखते देखा है। हमारे बस्तर में यूं तो कई साहित्यकार कुछैक लघुकथायें लिखे हैं। अगर निरंतर लिखते रहें तो वे स्थापित हो जायेंगे। लघुकथाओं की संख्या से कोई स्थापित नहीं होता है परन्तु संख्या भी मायने रखती है। इस बात कोई भी नकार नहीं सकता।
हमें लघुकथाओं पर काम करना चाहिये। क्योंकि साहित्य के क्षेत्र में कथायें ही रचनाकार को ज्यादा समय के लिये स्थापित करती हैं।