अंक-8-नक्कारखाने की तूती-विकास से दूर या संस्कृति रक्षण

विकास से दूर या संस्कृति रक्षण


बस्तर की विकास की बातें करने वालों के साथ एक बड़ी दिक्कत यह है कि उन्हें आदिवासियों से गहरी सहानुभूति है उनका शोषण देखकर आंखें द्रवित हो जाती हैं वे तत्काल उनके विकास की कार्य योजना का खाका खींचने लग जाते हैं। वे उनके अमचूर, इमली, चार, लकड़ी आर्ट आदि का सही मूल्य दिलाने को दौड़ पड़ते हैं। स्व सहायता समूह बनाने की, सरकारी खरीद की बातें करने लगते हैं तो कुछ उनके लिए सरकारी आयोजन की बातें करते हैं। जहां उनकी कला संस्कृति का प्रदर्शन हो, बिक्री हो। इन बातों से उनके आदिवासियों के हिमायती होने पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा रहे हैं। वे सच्चे हिमायती बने नजर आ रहे हैं पर क्या ये सच है ? इसका दूसरा पहलू क्या है ? क्या सोच है इस हिमायती सोच के पीछे ?
(1) सरकार की ये सोच की शिक्षा और विकास की दर कम रखी जाये जिससे पढ़े लिखों की फौज उनके सत्ता में बने रहने पर अवरोध न बने।
(2) आदिवासी जन्म जन्मांतर तक अमचूर, इमली बनाते तोड़ते रहें ? दूसरे शब्दों में कहें कि वनोत्पाद के संग्रह की व्यवस्था बनाये रखने के लिए ग्रामीण जीवन तहस नहस नहीं किया जा रहा है।
(3) हम उनके आर्ट जो कि उनके जीवन की सांस्कृतिक पलों के चित्र होते हैं, खरीदकर उन्हें यह संदेश नहीं दे रहे हैं कि यही तुम्हारा जीवन है। ऐसा जीवन जीते रहो अच्छा लगता है।
(4) हम उन्हें इन रोज कमाकर रोज खाने वाली जिन्दगी से हटाकर विकसित करना ही नहीं चाहते हैं। इन्हें इन छोटी-छोटी उपलब्धियों को दिलाकर उनके हिमायती हैं, बताना भी चाहते है। वास्तविक विकास करना भी नहीं चाहते है।
ये कुछ बिन्दु हैं जिन्हें उल्टी सोच वाला बताया जा सकता है परन्तु यह एक सच है। यदि हम वनोत्पाद को दोहन करना चाहते हैं तो हम इसे उद्योग का दर्जा देकर तगड़ा रेट दिलवायें। वे कहते हैं जल, जंगल, जमीन उनके हैं तो हम उनके अधिकारों के पक्षधर हो जाते हैं। हम विकास का पूरा आनंद उठातें हैं तो उनके हिस्से उनके अधिकार स्वरूप गरीबी क्यों छोड़ देते हैं ?
वे अपने अधिकारों के नाम पर छले जा रहे हैं उन्हें विकसित क्षेत्र की आबोहवा सुधारने और जलापूर्ति बनाए रखने के एवज में मूलभूत सुविधाएं मुफ्त में क्यो नहीं दी जाती हैं ?
वास्तविकता में हम स्वार्थी बनकर उनके हिमायती होने का ढोंग करते हैं और उनके प्रति अपने कर्तव्यों को छिपाते हैं, उनका दोहरा शोषण करते हैं।
बुद्धिजीवियों ने यहां की वास्तविक धरातल में बस्तर के आदिम क्षेत्र को आजादी के बाद से अपनी रहस्यमयी और अक्षुण्ण बनाये रखा या बल्कि यूं कहें कि इस पहचान को अक्षुण्ण बनाये रखने में हम सभी की सक्रिय भूमिका निरंतर बनी रही। यहां की आदिम संस्कृति के बचाव के नाम पर उन्हें गरीबी में जीने के लिए मजबूर कर दिया गया।
टीवी के आविष्कार एवं पंचायती राज के बाद दुनिया के विकास की आबोहवा अंदर अंदर तक गई। अब यही आदिवासी समाज कुंठाग्रस्त होता जा रहा है। अपने विकास की अवरूद्धता की वजह से उन्हें भी महसूस हो रहा है कि उन्हंे अभ्यारण्य का हिस्सा बनाये रखा गया है। उन्हें भी मोटर साइकल और सड़क का महत्व मालूम होने लगा है। इस खुलेपन के हिमायती होने के दौर में अब इन आदिवासियों को विकास की हवा के स्पर्श से रोका नहीं जा सकता है। यहां का हर पढ़ा लिखा अपने (आदिवासी) और अन्य के बीच विकास की दूरी से अचंभित और बौखलाया हुआ है। इस संक्रमण के दौर ने भले ही कुछ न सिखाया हो पर एक बात भलीभांति बता दी है कि जितनी भी जल्दी हो सके उतनी जल्दी स्वयं का विकास करना है इसके लिए माध्यम की शुचिता का कोई मतलब नहीं है।
वर्तमान दौर में पुरानी तरह का साहित्य/समाचार नहीं लिखा/बताया जा रहा है। वास्तविकता से परे इन्टरनेट के भीतर भरे तथ्यों को मन मुताबिक हेर फेर के साथ परोसा जा रहा है। साहित्य/या लेखन की किसी भी विधा के शक्ति का अंदाजा हर लिखने वाले को तो नहीं है पर घोर सत्य है तभी तो कापी पेस्ट के साथ नमक मिर्च का घालमेल जारी है। दिल्ली/भोपाल वाले बस्तर के नीति नियंता बन बैठे हैं। जो बस्तर एक बार आकर चित्रकोट, तीरथगढ़ वाटरफॉल, और कुटुम्बसर गुफा देख लेता है वही बस्तर का मर्मज्ञ बन जाता है। बस्तर के संबंध में धरातलीय जानकारी उन्हें दी जाये जो बुद्धिजीवी हैं और ठोस कार्य करते हैं। यहां पर आने के बाद बस्तर को भौतिक रूप से देखना और कलाकृतियों के माध्यम से समझना, क्षेत्र में असमानता का तानाबाना समझना, बहुत जरूरी है, सौ बुद्धिजीवियों में से पचास भी बस्तर के संबंध मे कविता, कहानी, लेख के माध्यम से कुछ लिखते हैं तो बुद्धिजीवी समाज की मानसिकता बदलेगी और बस्तर की छवि में परिवर्तन आयेगा। हम चाहते हैं कि यह विचार किया जाय कि इस क्षेत्र को विकास से अछूता क्यों रखा गया है ?
क्यों इस क्षेत्र को देशभर के लिए ऑक्सीजन जोन बनाया जा रहा है ? यदि ऑक्सीजन जोन बनाया भी गया है तो क्या यहां के बाशिंदो को उसके लिए मुआवजा दिया जा रहा है ? यहां से बाहर ले जाकर उन्हें उच्च शिक्षा, नौकरी दी जा रही है ? अनेक प्रश्न हैं।
अभी जिन्होंने बस्तर देखा है उन्होंने यहां की छवि ऐसी गढ़ी है मानो बस्तर का विकास किया गया तो अनर्थ हो जायेगा यहां के मूल निवासियों का सांस्कृतिक चक्र बैठ जायेगा। बड़े ही अचरज की बात है कि यह क्षेत्र विकास से कैसे अछूता है जबकि देश का मध्य क्षेत्र है। इन्हीं विषयों पर यहां का बुद्धिजीवी वर्ग दिमाग तोड़ परिचर्चा क्यों नहीं करता जिसके माध्यम से बाहर से आये बुद्धिजीवियों की कलम कुछ बोले।