आलेख-नरेन्द्र परिहार

मुझे चाहिए एक मुट्ठी आसमान, दो गज जमीन, दो रोटी: उठो किसान


क्या आप हम या और कोई परग्रही भी इस की कल्पना कर सकता है कि जीवन पानी, हवा, कपड़ा और भोजन के बिना रह सकता है क्या ? यह कल्पना ही भयानक है क्योंकि पानी और नैसर्गिक हैं। परन्तु भोजन पूर्णतः कृषि की गतिविधियों पर आधारित है और उसके केन्द्र में किसान ही रहेगा, भले वह मालिक हो या मजदूर। बागवानी हो फसल हो या जंगलों के कंद मूल, इनके केन्द्र में कृषक खड़ा रहता है। आज इनका संसार बाजार की मंहगाई, सहूलियतों के लिए आकर्षक वस्तुओं की चाहत ने किसानों को संपन्न दुनिया से निष्काषित कर दिया है। उनकी सतत् चार महिने का मूल्यांकन भी उनके द्वारा उत्पादन का न्यूनतम मल्य, मजदूर की रोजदारी जितना भी प्राप्त नहीं होता और भारतीय परिवेश में दिखावटी होड़ में तथा कुकुरमुत्तों से उपजे विश्वविद्यालयों में बेरोजगार शिक्षित व्यक्तियों के समूह को इनसे इतना दूर कर दिया है कि इनकी व्यथा न तो अब किसी को सुनाई देती है और न तो उनका क्रंदन अब फिल्मों का गीत बनता है।
‘मेरे देश की मिट्टी सोना उगले, उगले हीरे मोती’
भारतीय किसान पहले ही इससे व्यथित था कि उसकी सुध-बुध कोई नहीं लेता और अब आई नई सरकार उनके खेत के छोटे टुकड़े भी छीन लेने को आतुर है और उनकी सहमी-सहमी सी प्रतिरोध की आवाज को भी हलक में घोंट देना चाहती है। हमारी सरकारें कुछ समाज चिंतकों द्वारा किये गये उपक्रमों से बड़ी फसल उत्पादन को बढ़ाचढ़ाकर प्रस्तुत करती हैं। परन्तु क्या उसके द्वारा स्थापित सरकारी कार्यालय, कृषि अधिकारी व कृषि अभियंता इन संस्थाओं के साथ मिलकर गांवों में सुधार ला रहे हैं और सीधे किसान की फसल की जिम्मेदारी ले रहे हैं ? जैसे जैविक खेती, जी एम पद्धति आदि। निश्चत ही इनके प्रयोग उपभोग से उत्पादक कर्ता, उपभोक्ता को कई प्रकार से शारीरिक कष्टों से गुजरना पड़ता है, पन्तु इनसे बचने के लिए और कृषि अनुसंधानों को कर इसमें परिवर्तन ला, उपयोगी व स्वास्थ्यवर्धक बनाया जा सकता है। हमारे देश के उच्च संस्थान है, परन्तु एक भी प्रभावी खोज प्रकाश में नहीं आई है जबकि इन विभागों पर करोड़ों अरबों खर्च किये जाते हैं। जो कि हमारे सकल उत्पादन का एक प्रति प्रतिषत भी नहीं है। यानी हम सिर्फ नौकरशाहों पर ही खर्च करते दिखाई दे रहे हैं और यह तब है जब हमारे छोटे किसान बहुतायत में हैं और लगभग तीन चौथाई प्रतिशत बीज बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा उपलब्ध कराये जा रहे हैं। तब सीधा प्रश्न खड़ा होता है कि सरकारी अनुसंधान व उनके द्वारा उपलब्ध शोध बीजों के महकमों का औचित्य क्या है ? क्या सरकार इन बातों से वाकिफ है कि लगभग सब्जियों पर जिनकी खपत भारतीय परिवेश में ज्यादा है, नियंत्रण निजी क्षेत्र की कंपनियों का है ?
काले धन को निकलवाने के उपक्रम में तथा पचास हजार के ऊपर स्थानांतरण ने बड़े-बड़े उद्योगपतियों को किसानों की जमीनों, बंजर जमीनों की तरफ आकर्षित किया और बाजार भाव से पांच गुने से भी अधिक दामों पर सन् 1998 के बाद खरीदना शुरू हुआ और यहां किसानों के गले में रस्सी का फंदा मजबूत होने लगा। वहीं वेजीटेबल फ्रेश के नाम पर कोल्ड स्टोरेज व बाजार भी इन निजी कंपनियों ने अपने हाथ में रखना शुरू किया। जहां कई गुना मुनाफा केन्द्र में रखा और व्यक्ति के औचित्य को प्रभावहीन किया गया, जिसकी क्रयशक्ति कैसे बढ़े और नैसर्गिक विपदाओं में उनकी फसलों को हरजाना कौन दे और उससे भी आगे बढ़कर कब दे ? बिल्कुल वैसे ही जैसे किसी परिवार की जीविका भरण करने वाले की आक्समिक मौत पर बीमा कंपनियों का असमय निर्धारण करना। उसकी मौत व हरजाने के बीच उसका आश्रित परिवार कैसे जीयेगा यह प्रश्न कंपनियों के लिए गौण है। वैसे ही विपदा और दूसरी फसल लाने के लिए किसान का परिवार कैसे जीयेगा, सरकारें मौन हैं। क्या हम यहां उन्हें निशुल्क राशन उपलब्ध नहीं करा सकते, जब तक मुआवजा तय न हो जाये ? क्या सरकारें इनकी इस बीच भूख से हुई मौत की जिम्मेदारी ले स्वयं के गले में फांसी का फंदा पहनने को तैयार हैं ? जबकि कारखाने के बंद होने पर भी उसे पुनः
शुरू करवाने हेतु करोड़ों रूपये की माफी का ऐलान हमने कई बार देखा है, जबकि मजदूर अन्य रोजगार में स्वयं को स्थापित भी कर लेता है। तो ये घोषित छूट क्या, किसी भूख से मरने वाले मजदूर किसान के लिए होती है या करोड़पति परिवार के लिए ? आखिर प्रश्न उठना हमारे मन में स्वाभाविक है। तब क्या हमारे टेक्स का दुरपयोग नहीं हो रहा है ? नैसर्गिक विपत्ति के वक्त प्रधानमंत्री कोष, राजकीय कोष के लिए भीख मांगती हैं और फिर भी मदद सरकारी तौर तरीके से ही की जाती है। यहां हम तो सोचते हैं फिर कारखानों के लिए भी सरकार ऐसी भीख मांगे या जमीन सहित कारखाने का प्रश्न मजदूरों पर छोड़ दे और उनके उत्पादन की सुरक्षा व बाजार सरकार उपलब्ध कराये। ठीक उसी तरह निजी कंपनियों के हाथों में किसानों की जमीन हड़पने का खूबसूरत अधिग्रहण नाटक बंद कर उनकी फसलों का सरकार स्वयं बीमा करे व बरबाद होने पर तुरंत मुआवजा प्रदान करे। भ्रष्टाचार होगा भी तो वहां जवाबदेही भी होगी और उनसे निबटा भी जा सकेगा। कम से कम कंधों पर किसान या परिवार के सदस्य की अर्थी तो नहीं उठेगी।
क्या कोई बतायेगा जहां भरपूर पानी उपलब्ध है, जमीन उपजाऊ है वहां भी हमारा किसान 2.7 टन प्रति हेक्टेयर से 4.6 टन प्रति हेक्टेयर गेहूं क्यों नहीं ला सकता ? क्या हमें यहां दूसरे देशों के मुकाबले अनुसंधान की कमी नहीं अखरती और इस सीधे हरजाने के लिए किसानों को मुआवजा अधिक मूल्य में फसल खरीदकर सरकार पूरा नहीं कर सकती ? क्योंकि हमारी जनसंख्या में ही इसकी पूर्णतः खपत है, इसमें किसान द्वारा आत्महत्या के उपरांत दिये मुआवजे को भी जोड़े तो नगण्य हो जायेगी। इस तरह हम अपने देश की 65 प्रतिशत आबादी का भला कर सकते हैं और उनके शहरी आकर्षण को कम कर शहरों को भोजन भी प्रदान कर सकते हैं। इसके बाद भी अनाज बचा तो निर्यात करें उसे देश को अपने खरीदी दाम पर अन्य खर्चे जोड़कर दें जो डॉलर, यूरो, पौंड मिले प्रति टन फिर भी नगण्य सा होगा।
यहां हम हमारी भारतीय मानसिकता को भी दोष देंगे, जो सदा प्रति एकड़ उत्पन्न अनाज से होने वाले नफे व जमीन बेचकर होने वाले नफे से तौलता है और यह विचार नहीं करता कि जमीन की कीमत बाजार की तरह बढ़ेगी और बेचकर जमा किये पैसे की बाजारी कीमत घटेगी और तब वह परिवार की बढ़ती आवश्यकता व उपलब्ध संसाधनों में तालमेल कैसे बैठायेगा, यही मानसिकता उसे फांसी का फंदा नहीं पहनायेगी, जब उसे मालिक से मजदूर बनना होगा ? हम अपने जातीय, वर्ण अभिमान में इतने जकड़े हुए हैं कि फांसी के फंदों की जकड़न यहां भी बढ़ जाती है। ये रिश्ते पगडंडियों पर तानों के रूप में सरक आंखों में अश्क लाते हैं। अब समय आ गया है, सरकारों का सरेआम विरोध निजी कंपनियों के बीजों को तिलांजली देने का। कैसे भी हो छोटे से अपनी जमीन के टुकड़ों पर अपने तरीके से जीने के पुराने संसाधनों व बीजों पर विश्वास करने का। क्या किसान को यह नहीं डराता कि आज तीस से भी कम उम्र में हार्ट अटैक आने, कैंसर, टीवी जैसे रोगों के साथ नये-नये रोग पैदा होने लगे, जिनके निदान पर खर्च, उत्पादन कर मिली अधिक फसल के नफे से भी अधिक है। क्या किसान भी इन पर विश्वास कर स्वयं में बदलाव लायेगा ? गांव-गांव स्वयं के सह-सहयोग से कोल्ड स्टोरेज लगा स्वयं बाजार का मूल्य तय करेगा। निजी कंपनियों का निषेध करेगा। वह क्यों गिड़गड़ाये बहुराष्ट्रीय को नाक रगड़ने दे। क्या किसान अपने गांव के साथ इन कंपनियों से नालियों, सड़कों, शौचालयों, ट्यूबवेलों पर अग्रिम खर्च कर गांव की फसल का सौदा करना सीखेंगे और ग्राम पंचायतें किसानों को आवश्यक भोजन की जिम्मेदारी लेगी ? चाहे फसल अनाज हो, सब्जियां हो, फल हो या कपास!
प्रश्न आज यह खड़ा हुआ है कि हमें बाजार चाहिए या अपने तरीके से जीने का अधिकार। इस लड़ाई में हमें समझना होगा जमीन, खनिज, हवा का मालिक कौन ? मालिक के खेतों में काम करने वाला जमीन रहित पर रोजगार पाने वाला मजदूर कौन और इन दोनों को सुविधा उपलब्ध कराने भले छोटे-छोटे व्यापारी, सामान के विक्रेता कौन ? जब इस ‘कौन’ को हम खोज लेंगे तो गांधी जी के अमीर और गरीब के जीवन की स्वतंत्रता को समझ लेंगे। याद रहे इसमें कसबों के मजदूर और जमीन अधिग्रहण के आसपास के लोगों को भी अपने लालच व सपनों को उन विस्थापितों के लिए त्यागना होगा। इसके साथ ही बाजार आधारित विकास की कल्पना को ही खत्म करना होगा और विकास की परिभाषा बदलनी होगी। क्यो कोई समझायेगा सन् 1991 से 2011 तक 6.5 करोड़ किसान जमीन अधिग्रहण करवा बगैर जमीन के जीवन यापन करने मजबूर हुए, कितनों को रोजगार उपलब्ध हुए, तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। उनके परिवार को सरकारों ने क्या रोजगार दिया ? जब हमारे संसाधनों में ही जीना है तो हमें तय करने दें कि हमारी जमीनों का हम क्या करें। सरकार कानून बनाये, अधिकारों पर नहीं अत्याचारों पर।
हमें ताज्जुब है प्रगति को, जी.डी.पी. दिखाकर हम शहरों, सड़कों व रैन बसेरों से कहने लगे हैं, परन्तु यही पक्के रैन बसेरे गांवों में क्यों नहीं, गांव के गांव शहर के नाम तले अपनी अंतिम सांसें गिन रहे हैं और कई लोग झुग्गियां, टपरियां, बिना स्नानघर, बिना शौचालय, नंगी सड़क के सिरहाने पसर रहे हैं। जिनके एक ओर हरिभरी भूमि बना फसल बंजर हो रही है। कंकर शहरों की तरफ से उचककर इनके हृदय को चोट पहुंचा रहे हैं। क्या आप समझ सकते हैं 24 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र वाला दुनिया का देश भारत,दुनिया की 17 प्रतिशत जनसंख्या व 15 प्रतिशत पालतू जानवरों का देश है। अब सोचिए अगर कृषि ही खत्म हो जायेगी, गांव शहर में बदल जायंेगे तो खरपतवार भी नहीं होगी यानी जानवरों की मौत, किसान की हत्या ही होगी, क्योंकि वह रहने के लिए धूप, खाने के लिए दो रोटी के लिए भी संघर्ष नहीं कर सकेगा। तो क्या करें….?
हमें चाहिए शहरों के फैलाव पर पाबंदियां, कारखानों की बंजर जमीन पर स्थापना, रासायनिक कारखानों पर पाबंदी, बीज का सकल घरेलु उत्पादन व उत्पादन का लगभग प्रतिशत अनुसंधान पर खर्च, फसल का सरकारी खर्च पर बीमा जो किसान की फसल बिकने पर प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन व असल उत्पादन के मापदण्डों को निर्धारित कर उसकी बिक्री से प्रीमियम से सरकारी खजाने में जमा हो। भारत सरकार द्वारा बिजली व फोन पर आने वाले सर्विस टैक्स को ही इन किसानों पर इस तरह खर्च किया तो सार्थक होगा। वैश्विक बीमा कंपनियों की जीवन बीमा पर नहीं बल्कि फसल, गांवों के आवास, फसल व गांवों में उपयोग आने वाले उपकरणों पर ही आमंत्रण दें। निश्ंिचत किसान की बेफिक्री उसे अधिक उद्यमी व उत्पादन क्षमता बढ़ाने में मदद करेगी। वरना सरकार के नुमाइंदों को राज के उन सिपहसलारों से तुलना करनी पड़ेगी, जो राजाश्रय में राजा की प्रशंसा कर उसे उसके शौक में उन्मादी बना, स्वयं के परिवारों को विदेशों में विस्थापित कर देश को गुलाम बना छोड़ गये थे।
किसान भाईयों आने वाली पीढ़ी आपसे यह नहीं पूछेगी जमीन कैसे, किसने और क्यों बेची या किस सरकार ने हड़पी, वह सीधे प्रश्न करेगी गर भविष्य आप बना नहीं सकते थे, पेट में दाना पानी दे नहीं सकते थे तो ऐसी आबोहवा में पैदा ही क्यों किया ? आज की सरकार का भूमि अधिग्रहण पर व खनिजों की नीलामी पर सरकारी खजाने की बढ़ोतरी का हवाला देकर जो अंधाधुंध औद्योगिकीकरण व रोजगार के नाम पर जो दोहन, शोषण हो रहा है, वह आत्महत्या की परिभाषाओं को बदल अच्छे दिन का दुःस्वप्न जरूर है। याद रहे कृषि, कृषि-भूमि, और कृषक हमारे जीवन का यथार्थ सत्य हैं। अंबानी, अदानी की दुनिया में टाटा, किर्लोस्कर, बिड़ला का देशप्रेम व देश के प्रति सोच का भाव अब बिल्कुल निष्प्राण हो गया है और सेवा के स्थान पर लाभ, उपयोगिता व औचित्य ने ले लिया है। अब हमें इन्हें त्याग बंधु प्रेम, सहकारिता व उत्पादन बढ़ाने की प्रक्रिया व संसाधनों पर ज्यादा ध्यान देना होगा। देश के अंदर करोड़ों निवास डामरी सड़कें, पक्के आशियाने तब बेमानी हो जायेंगे, जब हम सड़कों पर दो रोटी के टुकड़ों के लिए खूनी संघर्ष करेंगे। हमें अपने दर्शन अपनी विचारधाराओं, संस्कृति को संजोना होगा जिसमें हमारी पीढ़ी का भविष्य है, भले ही वे कपूत क्यों न हों परन्तु देश में जिन्दा रहने के लिए आवश्यक उपलब्धता और एक मुट्ठी आसमान, दो गज जमीन तथा दो रोटी पर उनका भी अधिकार है, रस्सी गले में नहीं बल्कि सरकार की शोषक नीति के खिलाफ उनके गले में बांधो।
जय मजदूर, जय किसान, मेरा भारत महान
मैं हूं गांव का बागड़बिल्ला, मुझे शहर की मिल गई नार रे।
इस लम्बे हट्टे-कट्टे बिल्ले का, तूने करके रख दिया गार रे।।


नरेन्द्र परिहार
सी 004, उत्कर्ष
अनुराधा
सिविल लाइन्स
नागपुर-440001
मो.-9561775384