एक मुलाकात
-पद्मश्री मेहरुन्निसा परवेज़
‘एक मुलाकात’ व ‘परिचय’ श्रृंखला में इस पिछड़े क्षेत्र से जुड़े हुए और क्षेत्र के लिए रचनात्मक योगदान करने वाले व्यक्ति के साथ बातचीत, उनकी रचनाओं की समीक्षा, उनकी रचनाएं और उनके फोटोग्राफ अपने पाठकों के साथ साझा करेंगे।
एक मुलाकात भी खास हो जाती है जब हम उनसे मिलते हैं जो खास होते हैं। हम साहित्य के सुधि पाठकों के लिए भी यह खास मुलाकात है क्योंकि हम मिल रहे उस शख़्सीयत से जो इस दुनिया खुद के होने को साबित करने में न जाने कब से लगा हुआ था और आज साबित भी कर चुका है। हम इस मुलाकात की कड़ी में मिल रहे हैं देश की जानी-मानी कहानीकार, उपन्यासकार, द्विमासिक पत्रिका ‘समरलोक’ की संपादिका मेहरून्निसा परवेज़ से। वे भोपाल में रहती हैं। उनसे बातचीत कर रहे हैं श्री महावीर अग्रवाल। (साभार-आजकल)
महावीर अग्रवाल– अब तक छपी कहानियों में कौन-सी कहानी आपको अधिक प्रिय है और क्यों ?
मेहरून्निसा परवेज़– मुझे अपनी अधिकांश कहानियां पसंद हैं, यदि मैं कहूं कि सभी कहानियां पसंद हैं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। आप फिर भी नाम ही जानना चाहें तो मुझे अपने परिवेश और बस्तर से जुड़ी कहानियां अधिक प्रिय हैं क्योंकि वहां हमारी संस्कृति के जीवन के साफ-सुथरे, सीधे और सच्चे रूपों के दर्शन होते हैं। कुछ कहानियों के नाम और लिख लीजिए-लौट जाओ बाबू जी, ढहता कुतुबमीनार, ओस से भीगा गुलाब, अयोध्या से वापसी, अम्मां, फाल्गुनी, आदम और हव्वा, रिश्ते कहानियां अलग-अलग पाठकों द्वारा बहुत पसंद की गईं। सैकड़ों पत्र आये जिनमें लिखा गया है कि शोषित और पीड़ित नारी की व्यथा-कथा हमारे मन को छू लेती है। आपकी कहानियों में स्त्री के आंतरिक दर्द की अभिव्यक्ति बहुत गहराई के साथ हुई है।
महावीर अग्रवाल- आपकी पहली कहानी कब और किस पत्रिका में छपी ?
मेहरून्निसा परवेज़- मेरी पहली कहानी ‘जंगली हिरनी’ तत्कालीन लोकप्रिय साप्ताहिक ‘धर्मयुग’ में अक्टूबर 1963 में छपी थी। उन्हीं दिनों 1963 में दूसरी कहानी ’पांचवी कब्र’ कहानी चर्चित पत्रिका ‘नई कहानियां’ में छपी थी। उन दिनों पत्रिका के संपादक कमलेश्वर थे। इसके बाद साप्ताहिक हिन्दुस्तान और सारिका में कहानी लगातार छपती रही। देश की अधिकांश महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में कहानियां तब से अभी तक निरंतर छपती रही हैं।
महावीर अग्रवाल- आप कहानियां क्यों लिखती हैं ?
मेहरून्निसा परवेज़- मुझे लगता है, दबे-कुचले लोगों की व्यथा को, उनके दुख-दर्द को शब्द देने के लिए ही मेरा जन्म हुआ है, इसलिए कहानियां लिखती हूं। जीवित पात्रों की संघर्ष गाथा को इसलिए लिखती हूं ताकि उनको न्याय मिल सके। स्त्री के दर्द को मैंने अपने लेखन का आधार बनाया। मैंने अपने आसपास की शोषित और पीड़ित नारी को देखा। नसीमा, तहमीना और बूंदाजान ये सारे स्त्री पात्र मेरे खानदान या उसके आसपास के ही हैं। ठोकर इन्हें लगती थी पर चोट का दर्द मैं महसूस करती थी। रोती-कलपती नारी के आंसू पोंछे हैं मैंने।
महावीर अग्रवाल- कहानियों में कथ्य और कलात्मक संतुलन की कोई सीमा तय होनी चाहिए या कहानी कथ्य प्रदान होनी चाहिए ?
मेहरून्निसा परवेज़- कहानी में कथावस्तु को मैं महत्वपूर्ण मानती हूं। इसका यह अर्थ भी नहीं लगाया जाना चाहिए कि शिल्प को कम महत्व दिया जाए। कथ्य बहुत शानदार हो और उसकी प्रस्तुति भी मन को छू लेने वाली हो तभी कहानी बहुत दूर तक पहुंच पाती है। मेरी लिखी कहानियों पर घर में जब भी विवाद होता तो घर-परिवार में तूफान आने के बाद जैसी शांति छा जाती। जीवन के आंगन में देखे, पहचाने और परखे हुए पात्रों पर ही मुझे हमेशा कथ्य मिलता रहा है। उनकी अनुभूति की अनुगूंज मुझे विचलित करती है और मैं कहानी लिखने लगती हूं। मैं पात्र के आसपास के वातावरण में तथा उसकी खुरदरी ज़मीन पर घिसटकर, उसकी मानसिकता के साथ डूबकर शिल्प को एक नया रूप देती रही हूं।
महावीर अग्रवाल- कहानी की भाषा के संबंध में आपके विचार ?
मेहरून्निसा परवेज़- भाषा हमेशा कहानी की संरचना और विषय-वस्तु के अनुरूप ही होनी चाहिए। अपने आसपास की दुनिया और पात्र की स्थिति को पठनीय कहानी बनाती है भाषा। कहानी में जितनी भी स्थितियां होती हैं, मोड़ आते हैं उसमें भाषा का चुटीलापन और करूणा की अपनी अलग-अलग भूमिका होती है। कहानी में जिस प्रकृति के पात्र होते हैं, उसी के अनुरूप भाषा रची जानी चाहिए तभी कहानी के चरित्र प्राणवान होकर बोलने लगते हैं।
महावीर अग्रवाल- क्या लेखन के कारण आपको व्यक्तिगत जीवन में कभी संघर्ष का सामना करना पड़ा ?
मेहरून्निसा परवेज़- मैंने जब लेखक बनना तय किया तो जिन्दगी के उबड़-खाबड़ रास्ते में ढेर सारे अवरोध आये। रास्ते के कंकड़-पत्थरों ने पैरों को लहुलुहान किया लेकिन मैंने रास्ता नहीं बदला और आगे चलती रही। पहली कहानी ‘जंगली हिरणी’ तत्कालीन लोकप्रिय धर्मयुग में अक्टूबर 1963 में जब छपी तब घर में सभी ने मना किया था। परन्तु मेंरे पिता जज थे। उनके सामने एक अपराधी की तरह मेरी पेशी हुई। मैं अपना मार्ग चुन चुकी थी। मैं घर से दूर लेकिन दूसरों अर्थात् पाठकों के निकट पहुंचती गई। यश, प्रसिद्धि, यातना और प्रताड़ना उसी तरह मिलने लगी जैसे फूल के साथ कांटे मिलते हैं। घटनाएं न जाने कितनी हैं ? एक बताती हूं-हमारे एक पड़ोसी परिवार में बचपन से मेरा आना-जाना था। उसी को आधार बनाकर मैंने ‘फाल्गुनी’ कहानी लिखी। घर-परिवार, मोहल्ले से लेकर थाने तक उस घर की कथा पर चर्चा होने लगी। उस स्त्री का मेरी मां के पास खूब आना-जाना था। सन 1970 के आसपास मैंने उस पर ‘फाल्गुनी’ कहानी लिखी तो हंगामा मच गया। बहुत विरोध हुआ। उस स्त्री के पति के दाह-संस्कार में हमारा पूरा परिवार उपस्थित था। मेरे अब्बा से ही उन्होंने अपना अंतिम संस्कार मंझले बेटे से कराने की इच्छा व्यक्त की थी। इस कथा को सारा शहर पहले से जानता था पर कहता नहीं था। मैंने खूब ढांप-ढांपकर लिखा, उसके बाद भी उन्होंने मामले में मुकदमें की धमकी तक दी। उस परिवार से हमारी दुश्मनी हो गई। ऐसे ही मेरे उपन्यास ‘उसका घर’ पर विरोध हुआ। मेरे लेखन पर रोज़ाना कचहरी बैठती, मेरी पेशी होती, मुझे अपराधी किया जाता। अंत में फै़सला सुनाया जाता ‘इसका कहानी लेखन बंद करवाया जाए’। अपने कहानी लिखने के अपराध के कारण मुझे धीरे-धीरे अकेले रहना पड़ा। अम्मी-अब्बा मुझे समझा-समझाकर थक जाते। लोग मुझे बदनाम करते और मुझसे दूर भी भागते।
महावीर अग्रवाल- आप किन कथाकारों से अधिक प्रभावित रही हैं ?
मेहरून्निसा परवेज़- प्रभाव तो समग्रता में होता है। सच तो है कि जब मेरी पहली कहानी ‘जंगली हिरनी’ तत्कालीन लोकप्रिय साप्ताहिक धर्मयुग में अक्टूबर 1963 में छपी, उस समय नाइन्थ क्लास में पढ़ रही थी और 14-15 वर्ष की उस उम्र तक मैं किसी बड़े या स्थापित कहानीकार से प्रभावित नहीं थी क्योंकि मैंने अधिक कहानियां पढ़ी ही नहीं थीं, तो प्रभावित कैसे होती ? मेरे ऊपर अपने आसपास के पात्रों का ही प्रभाव सबसे अधिक पड़ता रहा है। दस-बीस कहानियां छप जाने के बाद कहानीकारों को मैंने पढ़ना प्रारंभ किया। कहानियां पढ़ते हुए प्रेमचंद, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, आशापूर्णा देवी, अमृतलाल नागर और मोहन राकेश की कहानियां मुझे अधिक अच्छी लगती रहीं। दूसरी बात जब मैंने लिखना शुरू किया तब सौभाग्य से बहुत अच्छे संपादकों का दौर था। संपादकों की चर्चा अवश्य करना चाहूंगी। अपने समय के ही नहीं हिन्दी साहित्य में बड़े और महत्वपूर्ण संपादकों में इनकी गणना होती है-कमलेश्वर, धर्मवीर भारती, भीष्म साहनी, मनोहर श्याम जोशी, अवधनारायण मुद्गल। ये सभी केवल संपादक ही नहीं थे, हिन्दी के बड़े रचनाकार भी थे, सभी से मैं प्रभावित रही।
महावीर अग्रवाल- नए कहानीकारों के विषय में कुछ बताएं ?
मेहरून्निसा परवेज़- नई पीढ़ी में जो भी कहानीकार आए हैं, वे बहुत कमाल की कहानियां लिख रहे हैं। नया शिल्प और नए तरह के कथ्य में कहानी की बुनावट देखते ही बनती है।
महावीर अग्रवाल- क्या रचनाकार के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता का होना आवश्यक है ? यदि हां तो क्यों ?
मेहरून्निसा परवेज़- प्रतिबद्धता होनी चाहिए लेकिन किसी एक विचार या विचारधारा के प्रति न होकर समूची मानव जाति के लिए होनी चाहिए। लेखन के लिए विचार का आडम्बर मैंने नहीं रचा। मैंने जीवन -भर मजदूर की तरह रोज़ाना लेखन -कार्य किया। पाबंदी से समय बांधकर लिखती रही। मिट्टी के चूल्हे के पास बैठकर खाना बनाते समय लिखा, चिल्ल-पों और घर के शोर के बीच लिखा, बच्चे को दूध पिलाते में लिखा है। इसे आप साहित्य के प्रति मेरी प्रतिबद्धता मान सकते हैं।
महावीर अग्रवाल- कहानी के साथ-साथ और किस विधा में लिखना आपको अच्छा लगता है ?
मेहरून्निसा परवेज़- साप्ताहिक रविवार और नई दुनिया दैनिक में मैंने नियमित स्तंभ लिखे हैं। अभी तक मेरे छह उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। संस्मरण और सामाजिक समस्याओं पर लेख भी समय-समय पर लिखती रही हूं। मेरी लंबी कहानी ‘जूठन’ और ‘सोने का बेसर’ पर धारावाहिक बनकर प्रसारित हो चुके हैं।
महावीर अग्रवाल- रूस और फ्रांस की क्रांति के समान ही आज की बदलती हुई परिस्थितियों में लेखन द्वारा सामाजिक, वैचारिक और क्रांतिकारी परिवर्तन संभव है या नहीं ?
मेहरून्निसा परवेज़- क्रांतिकारी परिवर्तन रूस और फ्रांस की तरह होगा या नहीं, मैं नहीं जानती, लेकिन सकारात्मक और सार्थक समाज के निर्माण के लिए मैं हमेशा प्रयत्नशील रहती हूं। विद्युत चलित संचार माध्यमों में दूरदर्शन, फैक्स आदि क्षेत्रों में लगातार परिवर्तन हो रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों एवं गोष्ठियों में महिलाएं पूर्णतः मुखरित होकर अपने अधिकारों की बात कर रही हैं। यह भी परिवर्तन का तरीका ही है। वैचारिक क्रांति को यदि सीमित अर्थों में न बांधा जाए तो मैंने टेलीफिल्म के माध्यम से यह काम करने की कोशिश की है। वेश्यावृत्ति जैसे सामाजिक अभिशाप पर स्वयं की टेलीफिल्म ‘लाजो बिटिया’ 1997 में बनाई और निर्देशन किया। इसी क्रम में स्वतंत्रता संग्राम पर आधारित लोकप्रिय धारावाहिक ‘वीरांगना रानी अवंतीबाई’ का निर्माण एवं निर्देशन 1998 में मेरे द्वारा किया गया।
महावीर अग्रवाल- रचनाकार के लिए सामाजिक दायित्व का बोध बहुत जरूरी माना जाता है। सांप्रादायिक दंगों की आग बुझाने में लेखक को अपनी भूमिका किस रूप में अदा करनी चाहिए ?
मेहरून्निसा परवेज़- ज़रूरत पड़ने पर घर-घर जाकर दंगों की आग को बुझाने की कोशिश करनी चाहिए। मैं सन 1995 में बरारे शरीफ़ में हिंसा के समय पर ‘गांधी शांति मिशन’ के साथ सांप्रदायिक शांति का संदेश लेकर कश्मीर गई थी। इसके साथ ही साथ समय-समय पर कमजोर वर्ग में उनकी चेतना को बढ़ाया तथा सरकार एवं सामाजिक संगठनों से वांछित सहयोग देने के लिए प्रेरित किया। बस्तर के आदिवासी तथा बांछड़ा जाति की लड़कियों का उनके ही परिवार द्वारा शोषण देखकर दंग रह गई थी। वहां से निकालकर उन्हें आश्रम में रखा और उनका विवाह भी कराया।
महावीर अग्रवाल- कहानी की आलोचना पर अपने विचार बताइए ?
मेहरून्निसा परवेज़– आलोचना पर कुछ नहीं कहना ही अधिक उचित प्रतीत होता है। आलोचकों के नाराज हो जाने का डर तो लगता ही है परन्तु सच तो सच ही रहता है। सबके अपने-अपने ख़ेमे और गुट हैं। भारतीय आलोचना में मेरा अनुभव यह कहता है कि अपने इर्द-गिर्द के मित्रों पर ही आलोचक अधिक लिखते रहे हैं। अपने ही दोस्तों की चर्चा में इतने मशगूल रहते हैं कि दूसरे कहानीकारों तक उनकी नज़र या तो पहुंच ही नहीं पाती और यदि पहुंच गई तो जान-बूझकर टाल जाते हैं। यह जरूर कहूंगी कि भारतीय पाठक बहुत अच्छे हैं। उनके फोन और चिट्ठियों से नए से नए कहानीकार का हौसला बढ़ते हुए मैंने देखा है।