लघुकथा-रजनी साहू

पारदर्शी शंख

मैं बेडरूम की खिड़की की तरफ लेट कर आकाश के तारे देख रही थी। शीतल हवा चल रही थी ऐसा लग रहा था कि वह कोई धुन गुनगुना रही है। मेरी आंख कब लग गयी पता ही नहीं लगा। मैंने देखा, मैं एक समुद्र के नीले जल में तैर रही हूं। तैरते-तैरते मैं उसकी अथाह गहराई में पहुंच गई। वहां कितने सुन्दर रंग-बिरंगे जलचर दिखाई दिये। बहुत सुखद दृश्य था।
तभी मैंने वहां एक पारदर्शी शंख देखा, उसमें गुलाबी रंग का जल था। सुन्दर बुलबुले उठते नजर आ रहे थे। उसे देखते ही मुझे अपने पास रखने का मन हुआ। मैंने धीरे से उसकी ओर हाथ बढ़ाया। तभी अचानक एक आवाज गूंजी- ये शंख तभी उठाना, जब तुममें साहस हो इसका जल उन सभी व्यक्तियों पर डालो जो अमानवीय, अनैतिक, दुराचारी हैं। उससे उनकी बुद्धि में परिवर्तन हो जायेगा। वो अपनी दुष्टता छोड़ देंगे। मुझे लगा जैसे मेरे जीवन का उद्देश्य भी यही है। मैंने तुरंत उस शंख को उठा लिया। तभी मेरी नींद उचट गयी और मेरा सपना टूट गया।
काश मेरा सपना सच होता। काश ऐसा कोई पारदर्शी, गुलाबी जल वाला शंख होता।

जल बिन मछली

नेहा एक घरेलु औरत है जिसका पति अर्पित सोचता है कि घरेलु औरत अस्तित्वहीन होती है और दिमाग भी नहीं होता है। अर्पित, नेहा का शोषण करना ही जानता था बस। धरती का बोझ, नालायक की उपाधियों से नवाजता था।
नेहा भी क्या करे, भगवान के प्रसाद की तरह मजबूरी में झेल रही थी। क्योंकि प्रसाद कड़वा भी हो तब भी फेंका तो नहीं जा सकता। भाग्य में यही लिखा है मानकर बच्चों की परवरिश में दिन काटती थी।
घर के कामों से फुर्सत मिलती तो नेहा सोचती कि उसका पति अर्पित सोलह-सत्रह साल अपनी मां के पास था फिर छात्रावास में उसने पढ़ाई करी। शादी के बाद बीस साल से वही तो उसे उसकी मां से ज्यादा अच्छी तरह से पाल रही है। सुख-दुख, हर वक्त प्राण न्योछावर करने को तैयार रहती है। मरते दम तक जैसा भी है मेरा पति है, मैं हमेशा उसके साथ हूं-फिर भी अर्पित को मेरे इस समर्पण का कोई मोल समझ नहीं आता है ?

श्रीमती रजनी साहू
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