मेहरून्निसा परवेज़ के कृतित्व में नायिकाएं
मेहरून्निसा परवेज़ की नायिकाएं तो अनेक हैं, जो हैं तो सामान्य नारियां, परन्तु समय के बदलाव, अन्तराल के साथ उनमें भी परिवर्तन प्रत्यावर्तन, परिलक्षित है। जीवन के कटु अनुभव, कसैले सत्य को स्वीकार करती हैं, परम्पराओं एवं सामाजिक मानदंड के अनुरूप समझौता भी करती हैं, परन्तु नारी मनोविज्ञान एवं मानसिक द्वंद के आगे नतमस्तक भी हैं। नारी के दुःख उत्पीड़न का, शारीरिक, मानसिक संत्रास का ऐसा विस्तृत ससांर उन्होंने रचा है जो अद्भुत है, उनकी सूक्ष्म पैनी दृष्टि ने नारी के अन्तरतम के अनछुये प्रसंगो को भी नहीं छोड़ा, चाहे वो यथार्थवाद एवं आदर्शवाद के बीच झूलती किंकर्तव्यविमूढ़ नारी हो, स्त्री-पुरूष के असंतुलित, असहज जड़ रिश्तों को ढोती हां। अपराध बोझ से नमित, तिरस्कृत ग्लानि में जीने वाली नारी हो।
‘नारी‘ सृजन शक्ति का नाम है, यही विशेष नारी के प्रेरणा मूलक गुणसूत्रों के विशिष्ट बिन्दु पर गढ़ने वाले गुणां का संकलन, नारी को हर प्रतिकूल परिस्थिति में लड़ने जूझने की ताकत देता है, उसे सक्षम बनाए रखता है। पुरूष जहां वर्तमान की प्रतिकूलता, विषम विसंगतियों से हताश कुंठित होता है, भागता है, वहीं नारी प्रत्यक्ष में रोकर चीख-चिल्लाकर कमजोर भले ही लगती है, पर अन्दर से कठोर शिला की तरह होती है, हर चन्द कोशिश से प्रतिकूल स्थिति को अनुकूल बनाने की जिद उसमें होती है। जीवन के अन्तिम समय तक अपनी लड़ाई लड़ने की हिम्मत व धैर्य उसके साथ चलते हैं। नारी की अस्मिता अस्तित्व से जुड़े अनेक ‘यक्ष प्रश्नों‘ का समाधान करने में लेखिका को महारत हासिल है।
लेखिका का यह नारी विमर्ष, विश्लेषण इतना सत्य, हृदय ग्राही होता है पाठक मात्र पढ़ता ही नहीं वरन चरित्र के संघर्ष, पीड़ा की अनुभूति को अनुभव कर पात्र के साथ जीने लगता है, ये लेखिका की अभूतपूर्व उपलब्धि है। इस विधा की वे सिद्धहस्त चितेरी हैं। ऐसा लगता है कि जटिल जुझारू नायिकाओं के साथ उनका भी हतपिंड पूरी संवेदना सच्चाई के साथ दोलन करता है, स्पन्दित होता है। लेखिका ने नारी के दैन्य निकृष्टतम जीवन, वैभव, ऐश्वर्य में विचरता नारी जीवन, अपनी अस्मिता नैतिक मूल्यों को पहचान कर एक सफल जीवन जीने की क्षमता से लेखिका ने नारी को नवाजा है, ऊंचा उठाया है।
इन नायिकाओं में जो मुझे एक चरित्र जो सबसे अच्छा लगता है वो है ‘कोरजा‘ उपन्यास की नानी ‘अरमान बी‘ का । आम जिन्दगी जीने की जद्दोजहद में लगी नानी ‘अरमान बी‘ एक आम हिन्दुस्तानी नारी का पर्याय बन सामने आती है। उसकी हिम्मत, जीने की जिद तकलीफों से लड़ने के प्रयास में भले वो झगड़ालू कर्कशा लगती हो, परन्तु कर्तव्यनिष्ठ जुझारू, अपने दायित्वों को हजार मुश्किल के बावजूद निर्भिकता पूर्वक गृहस्थी की गाड़ी के साथ खींचती है। हर बेघर, आश्रय विहीन लोगो को अपनाकर उनकी सरपरस्त बन जाती है। हाड़तोड़ मशक्कत से पत्थर सी होकर भी इन्सानियत, कर्तव्यनिष्ठा में बेमिसाल है। धर्म-कर्म और फर्ज का समन्वयन, सन्तुलन उसे, साधारण होते हुए भी आम भीड़ से अलग असाधारण बनाते हैं। दिन-रात काम में मशीन की तरह लगी रहती है। जिल्लत हिकारत के साथ भी उसका एक मौन मूक समझौता है, घुट-घुट कर उसे स्वीकारती है, उसे न तो किसी से शिकवा है न गिला। उसके हृदय की विशालता उदारता है, किसी के भी प्रति कटुता नहीं पालती बल्कि सबको दुआ ही देती है उनके सुखद भविष्य की मंगलकामना करती है। यही गुण कमोबेश उसकी लड़की सज्जो में भी है। नानी के कहे गए एक वाक्य में प्रतिफलित होता है। नानी का जीवनवृत्त, उसने जो भोगा, जो सहा वो किसी पर भी न हो अनवरत जीवन के अंतिम क्षणों तक जूझती, पीड़ा भोगती छटपटाती रही पर सबको यही कहती गई कि मेरी बदकिस्मती का साया भी तुम पर न पड़े।
दूसरा चरित्र है कहानी ‘शनाख्त’ की मां का जो बेमानी बेकार से लगते रिश्तों के बीच मानवीय मनोविज्ञान एवं संवेदना का बड़ा नाजुक सा सम्मिश्रण है, असहनीय बोझ ढोती हुई, जवान होती लड़की को सहेजने में सुरक्षा में लगी रहती है। पति यदा-कदा आता है। तो अपनी इच्छा भी एक वेश्या की तरह पूरी कर लेती है, क्षणभर के उन्माद आवेश की तृप्ति के बाद उसका जीवन ‘ढाक के तीन पात‘ की तर्ज पर चलने लगता है। पुरूष की प्रवृत्ति गलत दृष्टि अपनी ही पुत्री पर पड़ती देख, शेरनी की तरह बिफर पड़ती है। अपमान, लांछन सहते हुए भी उसे घर से ही नहीं अपने जीवन से भी निकाल बाहर कर देती है। मृत पति की शिनाख्त न कर अपनी लड़की के भविष्य को सुरक्षित करती है। वहां एक योद्धा की तरह सी मुश्किलों से निजात पा लेती है।
थोरा एवं लालमणि, भिल्लला एवं बांछड़ा समुदाय से ताल्लुक रखती हैं। ‘सूकी बयड़ी‘ की नायिका, ‘थोरा खेलाबड़ी’ की नायिका लालमणि दोनों पिछड़े समुदाय एवं आदिवासी समुदाय की है। श्रीमती मेहरून्निसा परवेज़ ने इन दोनों नारियों का उनकी जीवन शैली एवं रीति-रिवाजां का ऐसा वर्णन किया है कि उन्हे आदिवासी विशेषज्ञ की संज्ञा दी जा सकती है, वो नृतत्व शास्त्री भले न हो परन्तु आदिवासी बांछड़ा समुदाय को पूरी निष्ठा से जिया है। अंग्रेज लेखक द्वय ग्रीक्सन एल्विन ने बैगा, गोंड, मुरिया, दोरला आदिवासियों को, उनकी जीवन शैली को वर्णित किया है, वहीं श्रीमती मेहरून्निसा कहानियों में इन जनजातियों की उनकी संस्कृति को इस तरह पिरोकर प्रस्तुत किया है कि पाठक पात्र, परिवेश उनकी जीवनचर्या दुःख त्रासदी के साथ सांझा कर आत्मसात कर लेता है। इसका प्रमाण है कहानी ‘देहरी की खातिर’ आज के पचास साल पहले बस्तर की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर ये कथा, फिल्म की रील की तरह घूमने लगती है। नायिका युवती है, एक निपट ग्राम्या, उन्मुक्त जीवन जीने वाली, पर कुछ मर्यादा की लक्ष्मण रेखा के अन्दर। ऐसे परिवेश में स्वछंद विचरती नायिका एक कुंआरी मां बन जाती है, तब पिता-विमाता सब उसके खिलाफ हो जाते हैं उसे घर से बेघर कर दिया जाता है और एक देहरी की आस में ‘नानी आया’ या काकी का घर उसे आश्रय देता है। यहीं उसको एक लड़का होता है, संतान सुख से वंचित काकी के साथ नायिका बच्चे को लेकर वो आश्वस्त रहती है, परन्तु पिता तुल्य काका उस पर बुरी नजर डालता है और अनाचार की कोशिश करता है, पति की कुचेष्टा देखकर काकी टंगिये से वार कर उसकी हत्या कर डालती है, यह वो निर्णय का पल होता है, नारी की छठी इन्द्रिय सक्रिय हो उठती है, एक विद्रोह जागता है उसके अन्दर की आग भी उसे उसके बच्चे पर ऐसे ही अनाचार होते रहेंगे, यह सोचकर बच्चे को सम्हालती काकी को छोड़कर खून से सनी देह, कपडे़ टंगिया लेकर गांव से भागती है और जगदलपुर के थाने पहुंचकर हत्या का दोष स्वयं पर लेकर, जेल पहुंच जाती है। जिस देहरी की तलाश में वो जूझ रही थी, वो अनायास एक झटके में, उसके लिए, निर्णय ने दे दिया। जेल की देहरी के भीतर उसकी देह सुरिक्षत हो गई साथ ही उसके पुत्र को ममता वात्सल्य एवं जिम्मेदारी तथा संरक्षण की, काकी की देहरी मिल गई।
‘सूकी बयड़ी’ की नायिका, थोरा रंग काला होने पर भी गुणी थी, गरीबी झेलते बाप-मां के चार बच्चों में सबसे बड़ी समझदार गुणी सहनशील है छोटी बहन होरा जो बहुत सुन्दर है एक साथ एक घर में ब्याह दी गई, थोरा का पति उसके बांझ होने पर काले रंग को लेकर प्रताड़ित करता रहा। अन्त में जब उसने छोटी बहन होरा पर बुरी नजर डाली तो थोरा बड़ी सूझबूझ से होरा को उससे बचाती आई। अन्त में दूसरी सौत भगौरिया से लाने पर उसे कोठरी खाली करने को कहता है, नायिका का स्वाभिमान उसे इतनी हिम्मत देता है कि इस अन्याय के प्रतिकार में तन कर सामने आती है बड़े गर्व से अपने अधिकार अपने विधिवत ब्याहता होने की घोषणा पूरे गांव के सामने कर अपनी स्थिति मजबूत करती है। पति की हत्या के बाद पुलिस के सामने इसे दुघर्टना बता देती है पूरा गांव उसकी प्रशंसा करता है, आदर देता है इस तरह ‘सूकी बयड़ी’ थोरा, ‘ऊंची बयड़ी’ बन जाती है जहां से भविष्य का सुख-सम्मान, छोटी बहन होरा की गृहस्थी सबका प्रमासित पक्ष नजर आने लगता है। ‘सूकी बयड़ी’ में फसल न लगती हो परन्तु होरा ने सुखद भविष्य के नारी के सम्मानजनक वद के प्रत्यावर्तन से ‘सूकी बयड़ी’ विशेषण का विलोम रच डाला।
इस प्रक्रम की अन्तिम नायिका कहानी ‘खेलावड़ी’ की अप्रितम सुन्दरी लालमणि है, जो बांछड़ा जाति की है। बांछड़ा जाति की स्त्रियों का जन्म ही होता है वेश्यावृति के लिए और इस परम्परा, कुप्रथा के निवर्हन के लिए वे बाध्य हैं। इस विषय पर लेखिका का प्रयास जारी है। समाजसेवी संस्थाओं, शासन-प्रशासन का ध्यान भी इस ओर आकृष्ट किया। उनके उत्थान विकास की दिशा में उनके प्रयास अब भी जारी हैं। ऐसे परिवेश ऐसी कुप्रथा में जीने वाली ‘लालमणि’ का, उसकी बेबसी, मजबूरी का ठाकुर उमेर सिंह के साथ मर्यादित, समर्पित जीवन जीने का, लेखिका ने बड़ा ही मार्मिक हृदयस्पर्शी चित्रण किया है। मृतक ठाकुर उमेर सिंह का शव एक ओर रखा हुआ है, दूसरी ओर हवेली में गोद लेने की रस्म, वारिस का चुनाव, जायदाद की हिफाजत के लिए संरक्षक का चयन इस स्वार्थ सिद्धि के खेल की गहमागहमी के बीच-एक पतित, निम्नवर्ग की नारी आती है जिसकी छटपटाहट, उसका संताप मात्र मृत ठाकुर के अंतिम कर्मकांड विधि विधान से हो, शास्त्रवर्णित उचित उत्तराधिकारी द्वारा हो जो ठाकुर उमेर सिंह एवं उसका पुत्र है। उसे किसी भी प्रकार की दौलत, जायदाद से कोई मोह नहीं परन्तु लोगों के द्वारा ठाकुर को निःसंतान कहना उसे सहन नहीं था, और ठाकुर के नाम से जुड़े इस कलंक को धोने की यह पीड़ा उसे थी।
अपढ़ सात्विक परम्पराओं से अनभिज्ञ होते हुए भी उसे इतना ज्ञात था, कि पुत्र के हाथ से मुखाग्नि, पिंडदान, खारी विसर्जन हो, उसकी यह पीड़ा मृतदेह के मुक्ति के लिए निस्वार्थ सोच एक विशाल आयाम दे जाते हैं जहां भारतीय जन मानस में स्थापित उन उच्च आदर्श दृष्टान्त के समकक्ष रखते हैं जो आज भी दैदीप्तमान हैं। इस कार्य को सम्पादित करने के लिए दुस्साहस के साथ अस्थि फूल चुनकर दूर नर्मदा के तट पर विधि विधान से पिंडदान, खारी विसर्जन अपने पुत्र से करवा लेती है। अपने मन की शान्ति एवं ठाकुर के मोक्ष की कामना के आगे पाठक नतमस्तक हो जाता है। एक सामान्य खेलावड़ी पतिव्रता सहधर्मिणी पति की अनुगता का मर्यादित पद अपने प्राजंल, पुनीत कृत्य एवं सोच से पा लेती है।