पद्मश्री मेहरून्निसा परवेज़
वरिष्ठ एव प्रसिद्ध कहानीकार, संपादक पद्मश्री मेहरून्निसा परवेज़ जी पर केन्द्रित इस अंक की योजना मेरे दिमाग की उपज है क्योंकि मैं चाहता हूं बस्तर क्षेत्र से जुड़े साहित्यकारों के बारे में हर कोई जाने, लगातार जाने, पढ़े और बस्तर के बारे में बनी अपनी सोच को बदले। वह सोच जिसमें हर बस्तरवासी आदिवासी है और आधुनिक दुनिया से दूर बीहड़ में कंदमूल खाकर जीता है। देश में कहीं पर भी अपनी पहचान ‘बस्तरवासी’ बताते ही सामने वाला हमें मूर्ख और नक्सली मान लेता है जबकि सच इस बात से इतर कुछ और है। जब आवागमन के साधन नहीं थे आधुनिक सुख-सुविधाएं नहीं थीं तब से लेकर आज तक बस्तर अपनी राय देश और दुनिया के लिए स्पष्ट रूप से रखता रहा, अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहा। इस श्रृंखला में अनेक नाम हैं परन्तु इस अंक में पद्मश्री मेहरून्निसा परवेज़ जी।
इस योजना में आदरणीय नायडू सर कैसे जुड़े यह भी एक विशिष्ट घटना हैं। पद्मश्री मेहरून्निसा परवेज़ जी की पत्रिका ‘समरलोक’ में मेरी एक कहानी छपी थी। और उस कहानी को नायडू सर ने पढ़ा। उन्हें मेरा नाम कुछ जाना पहचाना सा लगा। वे तुरंत अपने घर से निकले मुझे खोजने को और उन्होंने मुझे अपने ही घर की अगली गली में पाया। तब मुझे भी जानकारी मिली कि नायडू सर भी साहित्य में हस्तक्षेप रखते हैं। लगातार हुई बातचीत से जानकारी मिली कि उनकी बातचीत मेहरून्निसा जी से होती रहती है। उनके साथ घनिष्ठ संबंध हैं। बस फिर क्या था अंधे को चाहिए दो आंखें! तुरंत ही इस अंक की नींव रख दी गई। और यह अंक नायडू सर की विशिष्ट मेहनत का नतीज़ा है। अंक इस परिशिष्ट का संपादन आदरणीय नायडू सर ने किया है। मैं उनका आभारी हूं। यह उनका बड़ा आशीर्वाद है मुझ पर।
पद्मश्री मेहरून्निसा परवेज़
बस्तर के साहित्य मरू की गुप्त सरस्वती
आज ये बात अविश्वसनीय, अप्रत्याशित, अटपटी भले ही लगती हो परन्तु साहित्य सलिला मेहरून्निसा पर यह बात सटीक-सार्थक है। एक सलिला अपने शैषव में भले ही क्षीण धारा की रही हो, परन्तु उसके साहित्य सृजन की कल-कल, छल-छल, नाद-निनाद से अपने अस्तित्व अर्विभाव का बोध कराती उत्कृष्ट हृदयस्पर्शी रचनाओं आंखों की दहलीज, उसका घर, कोरजा, मेरी बस्तर की कहानियां, आदम और हव्वा, टहनियों पर धूप, गलत पुरूष के सृजन के साथ बस्तर को छोड़ा, फिर मध्यप्रदेश में उनका पुनः प्रागट्य, अनेक रचनाओं की अजस्त्र धाराओं के साथ विराट दिग्दर्शन, त्रिवेणी में गंगा-जमुना की मध्यस्थ सरस्वती की तरह, प्रमाणिक सिद्ध कर गया।
वे मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ की प्रथम, बस्तर की प्रथम हिन्दी की मुस्लिम महिला लेखिका रहीं हैं। हिन्दी साहित्य सृजन उन्हें त्रिवेणी की गुप्त सरस्वती की तरह स्थापित कर गया। बस्तर में सबकुछ खोकर भी वो मुकाम हासिल किया जो असंभव लगता है। इनकी रचनाओं की उत्कृष्ट शैली सशक्त मनोविज्ञान एवं सामाजिक, पारिवारिक संदर्भ में नारी के द्वंद, अंर्तव्यथा कथा से जुड़ी रचनाओं ने जैसे समरांगण, पासंग, अकेला पलाश, सोने का बेसर, अम्मा उन्हें साहित्य लोक के इंद्रासन पर विराजित कर दिया। उनकी रचनाओं को व्यक्त करना उनकी व्याख्या करना बहुत सहज भी है दुरूह भी है क्योंकि नारी मनो विज्ञान की प्रकृति, परिवेश की तर्ज पर इतनी विषद् व्याख्या हर किसी के लिए संभव नहीं है। परन्तु मेहरून्निसा बाजी ने कर दिखाया। खूब किया।
अतीत की कड़वाहट, असीम वेदना अन्तर्मन के नासूर की छटपटाहट, इस पर विधाता का क्रूर, निर्मम प्रहार झेलती एक नारी, अपने विशिष्ट सृजन गंधराग और परिमल से वैश्विक स्तर पर बस्तर की कुंज कली बन गई। त्रैमासिक पत्रिका ‘समरलोक’ का सृजन कर उन्होंने बताया कि नारी मात्र सृजन का प्रतीक नहीं अपितु सृजन शक्ति है, प्रकृति भी उसके सृजन से अपने संतुलन समन्वयन का नियमन एवं आयाम रचती है।
एक लेखिका के तौर पर मात्र लिखना ही नहीं बल्कि उनका एक और विलक्षण गुण है, पाठकों के साथ उनके सुख-दुख को साझा करने का। उनके सहज सादे संवाद हर पाठक को उनसे बांध लेते हैं। बातें करती वे उस व्यक्ति के लिए अपनी हमदर्द बन जातीं, सामने वाला अभिभूत, अवाक, जड़ हो जाता। उनका यह प्रयास अनूठा है परन्तु साथ ही अपने चारो ओर एक ऐसा झीना परदा भी रखती हैं जिससे हर कोई उनकी अतीत की कड़वाहट, दुख को कुरेदने का साहस न कर सके।
बालाघाट, जबलपुर, बस्तर, झाबुआ, मन्दसौर, रतलाम जैसे आदिवासी बहुल वनांचल की तो वो अद्भुत चितेरी हैं। एक ओर उन्होंने आदिवासियों की जीवन शैली, उनकी परम्परायें, संस्कृति की चित्रमय प्रस्तुति से जीवन्त किया, साथ ही उनके उत्थान-विकास के लिए सतत् सक्रिय प्रयासरत रहीं और आज भी हैं। उनमें व्याप्त कुप्रथा, कुरीतियों के प्रति नारी चेतना को जागृत कर हितकारी योजनाओं का सूत्रपात कर उन्हें आर्थिक रूप से स्वालम्बी बनाकर विकास की धारा से जोड़ने का भी प्रयत्न करती आ रहीं हैं। इसका ज्वलंत उदाहरण है बांछड़ा जाति की महिलाओं के लिए किया गया प्रयास। उनके इस कार्य से प्रशासन सामाजिक संगठनों ने भी इस दिशा में सक्रिय योगदान देना शुरू कर दिया।
उनके पदभार एवं सम्मान के बारे में संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
सन् 1974 में बाल विकास एवं कल्याण परियोजना की अध्यक्ष।
सन् 1977 में मध्यप्रदेश समाज कल्याण मंडल की बस्तर से सदस्य। आकाशवाणी कार्यकारणी समिति तथा बैंकिग भर्ती बोर्ड की सदस्य।
1993 से 1996 तक मध्यप्रदेश में पिछड़ा वर्ग की राज्यमंत्री स्तर की सदस्या।
महात्मा गांधी ट्रस्ट की न्यासी।
सन् 1980 में ‘कोरजा’ उपन्यास पर मध्यप्रदेश का अखिल भारतीय महाराजा वीरसिंह जूदेव राष्ट्रीय पुरस्कार, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा सम्मानित। सन् 1995 में सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार।
महात्मा गांधी के जन्म के 125 वें वर्ष पर क्रियाशील लेखन एवं जनजातीय सेवा के लिए 25 मई 1995 को दुर्ग में छत्तीसगढ़ सम्मेलन में सम्मान। सन् 1999 में लंदन में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन में सम्मान।
19 जून 2003 में त्रैमासिक पत्रिका ‘समरलोक’ के श्रेष्ठ संपादन के लिए श्री रामेश्वर गुरू पुरस्कार।
सन् 2005 में भाषा भूषण सम्मान।
सन् 2005 में भारत के राष्ट्रपति के द्वारा पद्मश्री सम्मान।
उनकी कृतियों का अंग्रेजी, उर्दू, मलयालम, गुजराती, मराठी, ओड़िया और नेपाली भाषा में अनुवाद भी हुआ है। दूरदर्शन से उनकी रचनाओं पर धारावाहिक भी प्रसारित हुए। लोकप्रिय धारावाहिक अवंतिबाई (1998) का निर्माण एवं निर्देशन भी किया। टेलीफिल्म ‘लाजो बिटिया’ भी बनाया। अनेक सम्मेलनों में उन्होंने इंग्लैण्ड, फ्रांस, रूस जैसे देशों का भ्रमण भी किया।
कथाकार का सफर
मेहर बाजी ने जून 2015 के ‘समरलोक’ में आत्मदृष्टि में लिखा है बेगम अख़्तर को हम अदब से याद कर रहे हैं, उन्होंने अपना अध्यात्म, अपने जीवन से ही अर्जित किया है। हम भी अपने घायल मन को क्यों नहीं शौक में डुबो देते। उनकी अपनी बात उन पर सौ फीसदी लागू होती है।
आज ‘बस्तर पाति’ का यह अंक जिन्हें समर्पित है, उनके लिए बहुत ज्यादा शब्दजाल, वाक्यविन्यास, विरूदावली का स्थान ही नहीं है। सांसारिक दुख-दर्द के साथ-साथ ईश्वरीय निर्मम प्रहार झेलकर भी न वो थकीं न हारीं। अपनी सारी विसंगतियों को सृजन की चक्की में पीसकर एक नई आभा, नये कलेवर के साथ, विश्व स्तर पर अपना दावा प्रस्तुत कर रही हैं। इतना कुछ पा लेने के बाद भी उनकी जड़ें जमीन की अतल गहराई में हैं और पांव जमीन पर ही हैं। मेरी समझ में सफलतम, शीर्षस्थ लेखकों के बीच प्रसिद्धि के बावजूद वो अपने सामान्य पाठकों से जुड़ी रहना चाहती हैं। उनके साथ संवाद, पत्र-व्यवहार से एक ऐसा रिश्ता कायम कर लेती हैं जो बड़ा सहज, सपाट और सामान्य होता है। आज के परिवेश में ये बड़ा ही असामान्य असहज होता है और यही गुण, भीड़ में उन्हें अलग पहचान देता है।
जीवन के सारे अनुभवों के आधार पर भारतीय नारी की निष्ठा, कर्मठता, त्याग और उसकी तपस्या, साहस को ऊंचा उठाने का प्रयास किया; मात्र नियति, विडम्बना जैसे शब्दों का सहारा न लेकर। नारी को आत्मसम्मान, आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाकर समाज में सिर उठाकर जीने का हक दिलाया है।
उनके सारे पात्र जो ग्रामीण हों, आदिवासी हों, मध्यमवर्गीय हों कैसी भी परिस्थितियां हों निकृष्टतम जीवन जीने के अभ्यस्त पात्रों को एक मार्ग जरूर दिखाया है। नारी को मात्र समझौते से जीने के बजाय समन्वयन के साथ अपना रास्ता बनाने का गुर बताया है। नारी को कैसी भी विपरित परिस्थितियों में रोते हुए, ढोते हुए, हारते हुए, समाज ईश्वर के क्रूर विधान का जवाब देने में सशक्त, सक्षम मानकर उन्हें वही आकार दिया। नारी को अपनी जिन्दगी सही ढंग से, सम्मान से जीने का अधिकार मंत्र तो दिया ही है। इस बात की तसदीक करती ‘अयोध्या से वापसी, कानी बाट, देहरी की खातिर, शनाख्त, रेगिस्तान कहानियां’ तथा ’कोरजा, अकेला पलाश समरांगण, पासंग’ जैसे उपन्यास हैं।
श्रीकृष्ण राघव श्रीमती परवेज़ के विषय में कहते हैं, आज चालीस वर्षों से उनका लेखन जारी है, यह तो समझ आता है परन्तु लेखक नए-नए रूप धरता है, समझ से परे है पकड़ में नहीं आता, थाह भी नहीं मिलती हो ऐसा बहुरूपिया है। मात्र वे लेखिका ही नहीं सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओं से जुड़ी हैं। कहीं सलाहकार, कहीं न्यासी, कहीं अध्यक्ष, एक प्रशासनिक अधिकारी की पत्नी होने बावजूद उनका जुड़ाव सामाजिक सरोकार से है। आदिवासियों की वे हितचिन्तक हैं। लेखिका के तौर पर उन्होंने अपने को परत दर परत हमेशा छिपाये रखा परन्तु सम्पादक के तौर पर तह दर तह अपने आप को उधेड़ती चली जाती हैं इसका प्रमाण है ‘समरलोक’ की ‘आत्मदृष्टि’। मेहरून्निसा जी का भोगा सत्य सामाजिक सत्य होता है जो लाख-लाख पाठकों के निजी सत्य को उद्वेलित करता है कहीं आक्रामक होता है, कहीं निरीह, रोता, दुलारता, मुस्कराता, रिझाता भी है, और शनैःशनैः पाठकों के सत्य से जुड़कर उनके मन में घर कर जाता है। बाजी की सोच और उनका सत्य जब समाज से रूबरू होता है तो समाज को राहत देता है, उनके गम में शरीक होता है, मरहम का काम करता है, उनकी भावनाओं को जबान देता है।
आज भी बस्तर उन्हें भुला नहीं पाया है, उन्हें, मेहरून्निसा जी को उतना ही, आज भी याद करता है, जिस शिद्दत से वे बस्तर को याद करती हैं। बस्तर में उनके किशोरवय एवं यौवन के सतरंगी धागों का ताना-बाना आज भी चटक रंगों में दिखता है, यहां की माटी में उनके पगछाप, अमिट वो निशान हैं जो मेहर बाजी को आज भी बस्तर में उनकी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
ख्याति-उपलब्धियों के संसार में डूबकर भी उनके मन का बस्तर से जुड़ाव, माटी से प्यार, धुंधले होते चेहरों को ढूंढने की हर चन्द कोशिश निरर्थक नहीं रही।
उसी का प्रतिफल है ‘बस्तर पाति का यह ‘विशेषांक’। सम्पादक सनत जैन का यह प्रयास निसंदेह सराहनीय है।
बी. एन. आर. नायडू
सेवानिवृत्त प्राचार्य
शा. उच्चतर माघ्यमिक विद्यालय नायडू मेन्शन
नायडू गली, मेन रोड
जगदलपुर-494001 छ.ग.
मो.-9424280113