अंक-5-पाठकों से रुबरु – शिक्षा का भाषाई माध्यम

शिक्षा का भाषाई माध्यम

मैं बहुत ज्यादा कनफ्यूज हूं समझ के भी समझ नहीं पा रहा हूं। जो जरूरी है उसे करना बेवकूफी है और जो गैर जरूरी है उसे करना मजबूरी है। ढाई साल का मेरा बच्चा स्कूल की दुनिया में कदम रखने वाला है और मैं निर्णय लेने में असमर्थ हूं कि उसे हिन्दी माध्यम से पढ़ाऊं या अंग्रेजी माधयम से। किसी शोधकार्य की तरह लगातार लगा हूं इस विषय में सोचने को। तमाम पहलू दिमाग में घुमड़ रहे हैं, कभी कोई पहलू अच्छा लगता है तो कभी कोई। कानवेन्ट के भांदू-तोंदू सरीका बनाया जाये जिन्हें कालेज पहुंचने के बाद भी यह समझने में दिक्कत होती है कि ढाई सौ रूपया, पौने तीन सौ रूपया और साढ़े तीन सौ रूपया क्या होता है। घड़ी में पौन, सवा, ढाई, साढ़े तीन-चार बजते हैं, जो आम जीवन में बहुत ज्यादा प्रचलित हैं। या फिर किसी मुहावरे पर भावार्थ की जगह शब्दार्थ ढूंढने लगते हैं। माना कि इनके बिना भी जीवन चलाना बहुत आसान हैं परन्तु गमले के पौधे से कितनी उम्मीद की जा सकती है। जो जमीन से जुड़ा ही नहीं वह कैसे जी सकता है ? ऐसे लोगों की सोच में ठीक वैसा ही अनदेखा प्रभाव नहीं पड़ता है, जो गणित विषय पढ़ने वाले बच्चां में आ जाता है; गणित वाले बच्चे गणित पढ़ते हुए गोल ओरियन्टेड हो जाते हैं उन्हें अपने जीवन में चलताऊ तरीके से जीने की तरह उद्देश्यपरक जीना अच्छा लगने लगता है क्योंकि गणित को हल चाहिए, किसी भी तरह। क्योंकि गणित पढ़ते हुए लगातार हल ढूंढते हुए प्रश्न का सटीक उत्तर पाना जीवनशैली में बदल जाता है।
लगातार 16-17 साल वह भी एकदम साफ स्लेट पर पेन्सील गड़ा-गड़ाकर लिखना, बच्चे को नयी प्रजाति में नहीं बदल देता है। जो खाता रोटी-सब्जी, इडली-दोसा, चटनी-समोसा है और पढ़ता, सोचता ब्रेड-बटर, सैण्डविच-पिज्जा है। जिन्हें जीना इस देश में है, इस मिट्टी में है और बताया जाता इंग्लैड-अमेरिका का पर्यावरण, वहां के रीति रिवाज! जब हमें यहीं जीना, खाना और मरना है तो क्यों न हम यहीं की बातें ज्यादा अच्छे से सीखें। बच्चों का ब्रेनवाश किया जाता है शिक्षा के माध्यम से। उन्हें जड़ां से काटा जा रहा है शिक्षा के माध्यम से। विश्व के इतिहास की जानकारी के माध्यम से भारतीय इतिहास और संस्कृति को दोयम दर्जे में ढकेला जा रहा है। हिन्दी माध्यम की पुस्तकों में धोती-कुर्ता-तिलक, पैजामे-टोपी के साथ भारतीय जीवन दिखता है तो वहीं अंग्रेजी माध्यम की पुस्तकों में टाई-कोट, स्कर्ट-जीन्स में टेबल कुर्सी पर बैठा स्वप्नील जीवन होता है।
जरा विचार करें, अंग्रेजी माध्यम का पढ़ा बच्चा कृषि विस्तार अधिकारी बनता है तो क्या होगा। क्या वह दोमट मिट्टी, काली मिट्टी आदि की विशेषता जान पायेगा ? भारतीय परिवेश के अनुसार योजनायें गढ़ पायेगा ? क्या उसके दिमाग में भरा विदेशी परिवेश इस मिट्टी के लिए आप ही आप कुछ सोच सकने के काबील रहने देगा ?
अगर वह शिक्षाकर्मी बन गया तो क्या होगा ? वह बच्चों को नैसर्गिक ज्ञान दे पायेगा ? हिन्दी के बच्चों को दिग्भ्रमित नहीं करेगा, क्योंकि आज की स्थिति में सरकारी स्कूल में गरीबों के बच्चे ही पढ़ते हैं, क्या वे विदेशी परिवेश के बारे में जान सुनकर कुण्ठाग्रस्त होकर हीन भावना से नहीं भरेंगे ?, क्या वे अपने को दोयम दर्जे का नहीं मान बैठेंगे ? बड़ी विचित्र कश्मकश है। नौकरी पाना है इसलिए पढ़ रहे हैं और डाक्टर इंजीनियर बनना है, इसलिए अंग्रेजी माध्यम में पढ़ रहे हैं। विदेश जाना है इसलिए मशीन बनकर पढ़ रहे हैं। क्या कोई बता सकता है कि कितने प्रतिशत पढ़े लिखे लोग विदेश में रहने/नौकरी करने चले गये ? या फिर कितने प्रतिशत लोग ऐसी नौकरी कर रहे हैं जिसमें अंग्रेजी जान कर ही काम किया जा सकता है ? और जहां हिन्दी जरूरी है वहां किसने जानबूझकर अंग्रेजी को लागू कर रखा ह,ै उसका कारण क्या है ? न्याय क्षेत्र को ही लीजिए, लगभग सौ प्रतिशत केस आम जनता के हैं जिन्हें हिन्दी ही समझ आती है पर कानून लिखा अंग्रेजी में है। सरकार बनी है जनता से और जनता की बातें अंग्रेजी में होती हैं और लिखी जाती भी हैं अंग्रेजी में। ये कैसा गड़बड़झाला है। कुछ गिने चुने लोग जनता पर राज करने के लिए एक दोयम की अनुभूति वाला माहौल तैयार रखते हैं जिसमें वे विशिष्ट हों!
ऐसे में अनावश्यक रूप से अंग्रेजी में शिक्षा देना तो जनता के साथ शासक वर्ग की दगाबाजी है, बेइमानी है। जब शून्य से भी कम प्रतिशत के लोग ही अंग्रेजी शिक्षा से लाभान्वित हैं तो फिर सभी को उसमें ढकेल देना कहां तक उचित है! जिन्हें बाहर जाना है या कुछ ऐसा करना है जिसमें अंग्रेजी ही जरूरी है तो वे कर लें एक दो साल की विशेष शिक्षा, किसने रोका है। पर उन शून्य से भी कम प्रतिशत के लोगों के एवज में दुनिया को उठाकर एक तरफ से दूसरी तरफ करने का क्या औचित्य ?
अंग्रेजी के प्रति ऐसा माहौल तैयार करने में सरकार क्यों लगी है ? अंग्रेजी दासता की ये मेहनत हम सभी के लिए मुसीबत है ये जानते हुए भी हम मजबूर हैं अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने के लिए। क्यों ?
क्योंकि समाज सबकुछ जानते हुए भी अपने को नहीं बदल रहा है। आसपास रहने वाले हर व्यक्ति अपने बच्चों अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में भर्ती कर रखे है, यदि मेरा बच्चा हिन्दी माध्यम में पढ़ने लगे तो वे हमें चीथकर रख देंगे। सुबह से शाम तक इस पर ही चर्चा होगी। हमारा बच्चा तो हेय दृष्टि से देखा जायेगा ही और हम भी हेय हो जायेंगे। बच्चा बड़ा होकर हीनभावना से भर जायेगा। वो कितना जानकार है अन्य दुनियावी बातों का उसे भुलाकर लोग मात्र अंग्रेजी माध्यम की ही बातें करेंगे।
कितना विचित्र माहौल है हिन्दी माध्यम के स्कूल के समस्त कर्मचारी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढा़ते हैं। हिन्दी टायपिस्ट का बच्चा अंग्रेजी माध्यम में पढ़ता है। हिन्दी के प्रोफेसर का बच्चा अंग्रेजी माध्यम में पढ़ता है। सरकारी कालेज के समस्त कर्मचारी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाते हैं। पुलिस विभाग जहां अंग्रेजी का लेना-देना नहीं वहां के बच्चे अंग्रेजी माध्यम से पढ़ते हैं। जबकि ये सारे हिन्दी की खा रहे हैं। अन्य व्यापारी वर्ग, मजदूर वर्ग देखा देखी दौड़ रहा है। व्यापारी वर्ग तो शुरू से ही धन से सबकुछ खरीद सकने की सोच पाले हुए है। जब से अफसरी जनता पर हावी हो गई है तब से जनता में भी शासन प्रशासन में घुसने की होड़ जागी है। अफसर वर्ग अपने आपको सुरक्षित रखने के लिए कानून अंग्रेजी में ही लिखे रहने देना चाहता है। जब हिन्दी में ही सबकुछ होना है तो फिर हिन्दी के प्रति इतना बैर क्यों ? क्यों न हम हिन्दी माध्यम के कान्वेंट शैली के स्कूल खोलें ! क्यों न हम धोती-कुर्ता-पैजामा को ही जोड़कर स्कूल चलाने का प्रयास न करें! ये हिन्दी को सम्मान देना नहीं है बल्कि अपने भीतर के इंसान को मरने से बचाना है। अंग्रेजी से सबकुछ पा लेने का झूठा अहसास बहुत सी ऐसी कमियां हमारे भीतर घुसाता जाता है जो प्रत्यक्ष रूप से नहीं दिखती हैं परन्तु पीछे बहुत कुछ छूटता जाता है। मात्र अंग्रेजी में शिक्षा पाते हुए बच्चा अपनी सोच में आप ही आप वृद्धाश्रम, अनाथाश्रम के लिए सहज स्वीकृति दे देता है। ये बातें उसे प्राकृतिक महसूस होती हैं। हिन्दी माध्यम की शिक्षा चूंकि मातृभाषा में होती हैं इसलिए गुणाभाग, लाभहानि जोड़घटाना, शब्दज्ञान, आसपास की जानकारी, नाते रिश्तेदारी यूं ही सीख जाता है। दर्शन, ज्ञान, संस्कार, संस्कृति, मौसम, पर्यावरण यूं ही जान जाता हैं। मां-बाप, पड़ोसी आदि यूं ही बात करते हुए बहुत कुछ सीखा देते हैं जिन्हें बच्चा स्कूल में ‘‘बोझ’’ समझ पढ़ता है क्योंकि वह जीता हिन्दी में है और पढ़ता अंग्रेजी में हैं। अच्छा मजे की बात यह है जितनी मेहनत और ऊर्जा वह खर्च करता है सोलह-सत्रह सालों में वह शून्य हो जाती है। जब उसे वास्तविक जीवन जीना पड़ता है तो वह शिक्षा बेमकसद साबित होती है।
आखिर सरकार ये क्यों नहीं समझाती है जनता को कि हिन्दी माध्यम से भी बैंक की नौकरी मिलती है और अच्छे से की जा सकती है। या जितने भी सरकारी आफिस हैं वहां हिन्दी में ही काम होता है अंग्रेजी का तनाव न लें। आज की स्थिति में सरकारी स्कूल गरीबों के बच्चों को पढ़ाने के अड्डे हैं वे मजबूरी में वहां पढ़ रहे हैं। ये साबित भी हो चुका है। अभी जब सरकार ने निजी स्कूलों में 20 प्रतिशत गरीब बच्चों को भर्ती करने का आदेश जारी किया तो निजी स्कूलों में भीड़ लग गई। यह है देश का माहौल! इस भ्रम के महौल को क्यों तैयार किया जा रहा है। यह सोचना जरूरी है या नहीं ? ये नीतियां सरकार विदेशी कर्जे में दबे होने के कारण मानती हैं। इस नीति से जो अंग्रेजों के द्वारा लादी गयी हैं, उनके यहां दोयम दर्जे के काम करने वाले आसानी से मिल जाते हैं। अपने यहां हमेशा सस्ते मजदूर और सेवादारों की आपूर्ती बनाये रखने के लिए वे साम, दाम, दण्ड, भेद की नीतियां अपनाते हैं। किसी भी व्यक्ति को उसकी जड़ से उखाड़ने का महत्वपूर्ण तरीका भाषा और संस्कार से काट देना होता है। ये जो अमेरिका अन्य देशों में लोकतंत्रीय स्वतंत्रता और मानवतावाद का परचम लेकर दौड़ता है, वहां ऐसा कहां हैं ? हमारे देश में सरकारें बदलने से विदेशी कूटनीति बदल जाती है और अमेरिका में जो नीति पचास साल पहले लागू थी वह आज भी लागू है। उन्हीं नीतियों का अनुसरण हो रहा है चाहे सीधे दिखाते-बताते हुए या छिपते-छिपाते हुए। कितने आश्चर्य की बात है कि हम आज देश में भारत और इंडिया की दोहरी नीति अपनाकर समस्त योजनायें चला रहे हैं। एक ओर आईटीआई की तकनीकी शिक्षा हिन्दी में देते हैं क्योंकि गरीब ही ये शिक्षा ग्रहण करता हैं, आखिरकार उसे मजदूर ही बनना है। वहीं उनसे काम कराने वाले यानी इंजीनियर को अंग्रेजी में। विदेशों में यही इंजीनियर मजदूरी करने जाते हैं।
सरकार और अफसर यदि भारतीय जनता के इतने ही रहनुमा हैं तो सीधे अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा के ही स्कूल खोल दें। हिन्दी में शिक्षा बंद ही कर दें। पढ़ायें न सभी को अंग्रेजी में। पर ऐसा कभी नहीं होगा। आने वाले पचास साल तक तो बिल्कुल नहीं। क्योंकि वर्तमान पीढ़ी इस शिक्षा को ही हथियार बनाकर गुलामी प्रथा जीवित रखेगी। जिनके हाथ में सत्ता है, प्रशासन है वे लोग इस व्यवस्था को ग्लूकोज लगने तक जीवित रखेंगे। देखा जा सकता है आज कि प्रत्येक नेता चाहे वह छुटभैया ही क्यों न हो उसके बच्चे अंग्रेजी माध्यम में ही पढ़ेंगे। वैसे ही प्रशासनिक अधिकारियों के बच्चे नियम से अंग्रेजी माध्यम में पढ़ेंगे। और यही लोग हिन्दी माध्यम को जीवित रखने की वकालत भी करेंगे। हिन्दी के लेखक हिन्दी के शिक्षक भी अंग्रेजी के हिमायती होंगे और हिन्दी की आवश्यकता का, हिन्दी के मर जाने से नुकसान का, हिन्दी के तड़फड़ाने का आलेख, कहानी, कविता आदि साहित्यकर्म करके एक ऐसा धुंध पैदा कर देते हैं कि जानाबूझा माहौल भी अनजाना हो जाता है। गरीबी की परिभाषा भूख से गढ़ी जाती है जिससे कि वह पेट भर जाने तक संतुष्ट हो जाये। मुफ्त में शिक्षा मिल रही है वह चुपचाप लेकर उनका सेवक बना रहे। संपन्नवर्ग हिन्दी को गरीबों और मजदूरों की भाषा बनाये रखना चाहता है जिससे उसके जीवन की सुख-सुविधाओं की निर्बाध पूर्ति होती रहे। बुद्धिजीवी वर्ग अपनी बुद्धि की झूठी वाहवाही से ग्रसित होकर कोलाज़ बनाने में लगा है। हिन्दी के बुद्धिजीवी हिन्दी भाषा में अन्य भाषा के शब्दों को घुसाकर भाषा को समृद्ध बनाने का दावा ठोकते हैं तो उन्हीं के बीच कुछ बुद्धिजीवी दूसरी भाषा के हिन्दी शब्द के लिए ऐसा मज़ा गढ़ते हैं कि उनका बुद्धिजीवी होना ही संदिग्ध हो जाता है। ट्रेन के लिए लौहपथगामिनी आदि। (उस जमाने के लिए उचित था, भले ही आज हंसी का मुद्दा है।) वैसे ही आधुनिक विज्ञान में रोमन से हिन्दी लिखने की विधा को क्रांति समझने/समझाने वालों की फौज आ गई है। वे दावा करते हैं कि इससे हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीयकरण हुआ है। कैसा दावा है यह भाषा के शब्द गायब हो जायेंगे, भाषा की लिखने की लिपि गायब हो जायेगी तो भाषा, बोली में परिवर्तित नहीं हो जायेगी ? हम क्यों हर ज्ञान-विज्ञान को अंग्रेजी आधार पर ही आगे बढ़ने की सीढ़ी मान लेते हैं ? क्यों नहीं हम हिन्दी आधार का उपयोग करते हैं ? हम क्यां मुफ्त की खाने वाले बने हुए हैं ? क्यों परजीवी बने हुए हैं ? हिन्दुस्तान में रहना है तो हम क्यों नहीं अपने देश के लिए हिन्दी में इंजीनियरिंग, मेडिकल, कानून, अकाउंट की पढ़ाई कराना चाहते हैं ? क्यों इन्हें हिन्दी से दूर रखना चाहते है ? हिन्दुस्तान की आबोहवा के अनुकूल ज्ञान का उपयोग क्यों नहीं करते ? हमने अपने खाता बही में लिखने की विधि उनके लिए बदल ली ? हमने अपने वास्तुशास्त्र को उनके अनुकूल बना लिया। क्यों ? हमने अपने आयुर्वेद को मारकर एलोपैथी को सर पर बैठा लिया। क्यों ? उसके चमत्कार के पीछे आयुर्वेद का विकास रोक दिया और बल्कि ज्ञान का लोप कर दिया। हमने अपने शाकाहार की शक्ति को बेकार मान लिया। मांसाहार अपना लिया। क्या ये सब हिन्दी को मारने के कारण नहीं हैं ? एलोपेथी हिन्दी में नहीं पढ़ाई जा सकती है उसके मूल अंग्रेजी शब्द वही रहें ग्रामर हिन्दी में रहे, तो क्या बिगड़ जाता है ? क्या ऐसा होने से हिन्दी के जानकर छोटे-मोटे डाक्टर भी शोधकार्य नहीं कर पाते ? क्या अंग्रेजी में ही टैली लिखा जा सकता है ? जब हिन्दी को खिचड़ी बनाया जा रहा है तो अंग्रेजी को क्यों नहीं बनाया जा सकता है ?
क्या बुद्धिजीवी नहीं समझते कि जेहन में बोया एक बीज भी कभी न कभी उगता ही है। मात्र हिन्दी नाम की जगह अंग्रेजी नाम रख लेने से भी आज धर्म बदल जाते हैं। एक पीढ़ी के बूढ़े होने का धैर्य रखा जाता है तो फिर हम क्यों पीछे हैं ? हम जैसे ही भाषा की बात करते हैं तो पिछड़े हो जाते हैं या चौथी सदी की सोच वाले हो जाते है। भाषा के साथ ही साथ अपने संस्कारों की केंचुल छोड़ दी, जैसे हमने छोड़ी है।
हमें अपने जीवन में हिन्दी को पिछड़ने से रोकना होगा। समस्त अंग्रेजी कार्यों को हिन्दी में बदलकर करें चाहे अंग्रेजी का फार्म हो हिन्दी में ही भरें। अपने बिलबुक, रसीद, आवेदन हिन्दी में ही लिखे। कान्वेंट शैली के स्कूल हो जहां कपडे़ पहनकर खूब खर्च करवाकर पढाया जाता हो।
शायद तब भी बात न बने। क्यों ? क्योंकि हमने तो अपनी ठसन का कारण ही अंग्रेजी मान लिया है। हम अंग्रेजी में बोलने बतियाने से ही महान हो जाते हैं तो फिर बाहरी उपाय किस काम के।
हिन्दी माध्यम के स्कूल कान्वेंट की तर्ज पर क्यों नहीं खोले जाते ? क्यों हिन्दी कहते ही चुटिया धारी, धोती पैजामे वाली शिक्षा का चित्र खींचा जाता है। जैसे ही हिन्दी पत्रिका निकाली विद्वान वर्ग आंखे चौड़ी करके और चश्मा चढ़ाकर गलतियां ढूंढ़ने बैठ जाता है। भले ही अपने जीवन में अंग्रेजी जीवन शैली अपना चुका होगा परन्तु भाषा की शान के लिए डण्डा, बल्लम लेकर तैयार खड़ा रहेगा। भाषायी शुचिता उसकी जिन्दगी की सांस्कृतिक गंदगी से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी है। ऐसे ही जुगाडू प्रवृति के विद्व्वानों की वजह से ही हिन्दी दोयम दर्जे में समाती जा रही है। अंग्रेजी अपने लचीलेपन से व्याप्त होती जा रही है। अंग्रेजी का पैरोकार अंग्रेजी से मात्र मतलब साधने की अपेक्षा रखता हुआ आगे बढ़ जाता है। हिन्दी वाले हिन्दी को मरते देख सकते है पर उसमें लचीलापन किसी भी सूरत में नहीं चाहते।
आपने अपने बच्चे को किस माध्यम के स्कूल में भर्ती कराया, जरा बताएंगे। शायद कुछ लोगों के लिए अपने विचारों को संतुलित करने में मददगार साबित हो।