कला में नकल, प्रेरणा एवं गुलामी
एक अच्छी कलात्मक रचना दुनियाभर के रचनाकारों, कलाकारों को प्रेरित करती है। दुनिया के महाकाव्यों ने किसी न किसी रूप में आज तक हमें प्रेरित किया है। आज के सवालों के जवाब हम उनमें ढूंढते हैं, नयी रचनाएं उनमें से लाते हैं। यह आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य तो तब होता है जब हू-ब-हू नकल की जाए। जी हां, आप टीवी चैनलों के डांस-ड्रामा देख लीजिए-आधुनिक माइकल जैक्शनों की फोटो कापियां थोक के भाव में मिलेंगी। मजा ये कि ये सभी, खासकर अपने देश में अपने क्षेत्र के माने हुए ‘सेलबिट्री’ हैं। इन्होंने अपना स्कूल खोल रखा है जहां हजारों नकलची तैयार किये जाते हैं। ये बात कला-साहित्य के लगभग हर पहलू में देखा जा सकता है।
आखिर ऐसा क्यों ? इन्हें कौन मान्यता देता है ? इनकी लोकप्रियता का राज क्या है ?
क्या किसी भी भौंड़ी नकल कर कोई कलाकार वाकई कलाकार-रचयिता कहलाने का अधिकारी हो सकता है ?
सर पे मिस्टर जैक्शनी टोपी पहनकर, कोट के बटन खोल, कोट के पहलू को पीछे झटकते हुए आप फ्लोर पे मून डांस करते हैं। दर्शक सीटियां बजाते हैं। वाह! आपने हू-ब-हू जैक्शन साहब की नकल की।
बॉलीवुड शुरू से ही हॉलीवुड से प्रेरित रहा है। यह ठीक है, मगर ज्यादातर लगभग हर स्टोरी, घटनाएं, सीन कुछ तोड़-मरोड़कर यहां प्रस्तुत कर दिये जाते हैं। राजकपूर चैपलिन साहब से प्रेरित थे, (चैपलिन ने दुनिया के कलाकारों को प्रेरित किया है-आज भी कर रहे हैं।), दिलीप कुमार मेथड स्कूल से प्रभावित तो देव साहब सीधे ग्रेगरी पैक की स्टाइल ही कापी कर ली। देव साहब का स्टाइल उड़ाना वाजिब-सा है क्योंकि उनकी प्रेयसी सुरैया ग्रेगरी पैक की जबरदस्त फैन थी। अतः आपने ज्यादा सुविधाजनक ये समझा कि असली न सही, नकली ‘पैक’ ही प्रेयसी के सामने प्रस्तुत किया जाए। यह प्रेम में भावुक समावेश लाजवाब है। इस नकली पैक को सुरैया ने (उनकी प्रेमिका) कितना पसंद किया, पता नहीं, पर हिन्दी सिनेमा के चहेतों को आज भी देव साहब अपने स्टाइल के कारण रोमांचित करते हैं। पता नहीं तब मीडिया/टीवी के आज के युग में जब हमारे दर्शक असली हीरो को देखते तो देव साहब कितने चल पाते-कहना मुश्किल है। पर इसमें दो राय नहीं कि आज भी अपने देश में असल से ज्यादा नकल चलता है। नकली वीडियो, नकली कैसेट्स, नकली नोट, नकली साहित्यकार, नकली भगवान तो गली-गली मिल जायेंगे जहां के आश्रमों में दाखिला लेते आपको बैकुण्ठ दर्शन होने लगेगा। नकली कुकुरमुत्ता संस्थाएं जहां मैनेजमेंट के फंडे सिखाए जाते हैं-नकली विचारक जो देश को, समाज को तेरहवीं सदी में ले जाने की कसम खाए बैठे हैं, नकली शिक्षा-जैसे अमेरिका ने साहित्य और इतिहास से अपना बजट जैसे ही कम किया हमने भी हू-ब-हू अपने देश में वही किया। ठीक माइकल जैक्शन की फोटोकापी जैसा!
चारो ओर देखो तो प्रतीत होता है अपने देश की प्रतिभा बस फोटो-कॉपी की प्रतियां हैं वह भी खराब!
एक और तरह की नकल की बात कहना चाहूंगा, वह है कला की दुनिया में पाइरेसी। दुनिया भर में पुरानी कलाएं, मूर्तियां, डाक टिकट, पेंटिंग्स, क्रॉफ्ट इत्यादि की भारी मांग है। दुनिया के रईस अकूत धन खर्च कर इनका संग्रह करते हैं। शौक लाजवाब है। मगर कहा जाता है इसमें नकली बाजार(अर्थात् पाइरेटेड आर्ट) खरबों डॉलर का है। यह सिर्फ अनुमानित है। इन महान चोरों (नकलचियों, पाइरेटरों जो कहें।) का काम होता है दुनिया की रेअर हो चुकी कला, विशेषकर पेंटिंग्स, मूर्तियों की हू-ब-हू नकल करना, इनमें केमिकल का प्रयोग कर पुराने जैसा करना और विश्वप्रसिद्ध नीलामियों में बेच देना। एम.एफ. हुसैन और रज़ा साहब की पेंटिंग्स इसी तरह नकलचियों ने ना सिर्फ नकल की वरन् प्रसिद्ध गैलरियों से बेच भी डाला।
उक्त उदाहरण तो सीधा-सीधा चोरी और ठगी (एक किस्म की) से है-हां, इस नकल में और तमाम प्रक्रिया में जिस गज़ब की प्रतिभा का इस्तेमाल होता है-उसकी हम सिर्फ कल्पना कर सकते हैं।
पर हमारा मामला सिर्फ नकल या चोरी तक सतही नहीं है। बात यहीं तक होती तो चल जाता। (भारत में सब चलता है।) बात संस्कृति और यों कहें कि सीधा-सीधा ये अप-संस्कृति के उदाहरण हैं। हमने अपनी जमीन छोड़ी, हमने अपनी परम्परा से प्राप्त चीजों को नकारा, इस ओर देखा ही नहीं। हमारे वेद और आयुर्वेद की व्याख्या अमेरिकन कर रहे हैं।
क्या हम प्रबुद्ध हुए हैं ?
क्या हम अब भी अंधकार युग में नहीं जी रहे हैं ? (वैचारिक/सांस्कृतिक रूप से)
दिलीप कुमार, राजकपूर या मुंशी प्रेमचंद (रूसी लेखकों से ) प्रेरित हुए-मगर अपनी जमीन नहीं छोड़ी। यूरोप ने तकनीकी विकास किया, हम उनकी ओर देखते रहे-उनका प्रभाव स्वाभाविक है-मगर नकल ?उधर वैचारिक क्रांति होती है-इधर हम बिना लाग-लपेट के, बिना विचारे उसे हथिया लेते हैं। जैसे अपने बाप का माल हो।
बात नृत्य या संगीत की होती तो क्षम्य थी मगर नकल वह भी हमारे बौद्धिकों द्वारा विचारकों और दार्शनिकों द्वारा! साहित्यकारों द्वारा….! उन्हें जिन्हें अपनी जमीन व समय व परम्परा के हिसाब से एक पृथक वैचारिक भूमि रखनी थी, उन्होंने हू-ब-हू यहां भी ‘मून-डांस’ किया। जैसे इनके पास अपना कुछ है ही नहीं!
पर कुछ खांटी लोग भी हुए जिन्होंने अपनी जमीन नहीं छोड़ी। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने शहनाई को ऊंचाई दी, सितार और संतूर और तबला को भी एक मुकाम दिया गया। इसी तरह तमाम क्षेत्रों में इक्के-दुक्के विलक्षण अपने काम में लगे रहे, अपने-अपने क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते। अफसोस इस बात का है कि जब-तक यूरोप या अमेरिका ने ‘सर्टिफिकेट’ नहीं दिया हमें अपने पर, अपनेपन पर अपने होने पर यकीन नहीं आया।
क्या ये बौद्धिकों की पहचान है ?
क्या हम आज भी वैचारिक रूप से परतंत्र नहीं ?
यहां सर अरविंदो और गुरू टैगोर के विचारों से सहमत होना पड़ता है-उनके लिए भौतिक आजादी ज्यादा मायने नहीं रखती थी। असल है सांस्कृतिक उत्थान, आत्मा की स्वतंत्रता। हम जिस तरह नकल में झूम रहे हैं वह हमारी बद्ध आत्मा की निशानी है-मजा ये कि इसका अहसास हमें नहीं।
कला व रचनाएं तो हमें मुक्त करती हैं-हमें गुलामी नहीं सीखाती, जब प्रकृति की हर शै विविध है, ना प्रोटोटाइप ना स्टेरियोटाइप ना कार्बन-कॉपी या फोटोकॉपी, फिर हमारे रचयिता इस मूल सिद्धांत को क्यों नहीं देख पा रहे हैं ?
बात जब हिन्दी भाषा हिन्दी साहित्य-संस्कृति की आती है और जिस तरह हमने ही इसे दयनीय, हाशिए पर ढकेला है, वह क्षोभजनक तो है ही हमारी ‘अस्मिता’ को ही चुनौती देती प्रतीत होती है। हम कहां हैं-
-हिंगलिश बोलता एक दिल्लीवासी या पटनावासी जो सिर्फ अमेरिका के सपने देखता है ?
-वह अपनी भाषा को सिर्फ और सिर्फ एक ‘संवाद’(कम्यूनिकेट) करने की ‘चीज’ समझता है। उसे ना अपनी संस्कृति पर गर्व है ना अपनी कला-भाषा पर ?
-क्या हम वास्तव में अपनी जमीन पर खड़े हैं ? आज की युवा पीढ़ी सांसे तो यहां से ले रही है मगर उसका दिल धड़कता है न्यूयार्क या लंदन में!
शायद-यही हम हैं।
-फिर हिन्दी की किताबें क्यों बिकें,
-फिर हिन्दी के कलाकार-रचनाकार क्यों न हाशिए पर हों-जिस आवाम या पाठक या श्रोताओं का लगाव ना अपनी जमीन से है ना आसमान से-भला ऐसे समाज-देश में ऐसे ही लोगों द्वारा अंग्रेजी के लेखकों को करोड़ों रायल्टी दी जाती है तो आश्चर्य क्या!
कहानी में संवाद
कहानी का महत्वपूर्ण कलात्मक पहलू है-कहानी में प्रयुक्त संवाद! कथा लेखकों और पाठकों के लिए यह नयी चीज नहीं है। हम यों ही संवाद लिख या पढ़ लेते हैं-लेकिन उसकी अहमियत से शायद अनभिज्ञ! हिन्दी कहानी में लेखक (ज्यादातर लेखक) संवाद लेखन के प्रति कामचलाऊ रवैया अपनाते हैं, जबकि सच ये है कि संवाद आपकी कथा-रचना की जान हो सकते हैं। कहानी के प्रारंभ, मध्य या अंत में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
प्रश्न है-एक कहानी में संवाद या बात-चीत की भूमिका क्या हो सकती है, कहां तक उनका प्रयोग सार्थक हो सकता है।
यों तो, जैसा कि अकसर यहां कहा गया है कि-ये सारी बातें रचनाकार पर निर्भर है, वहीं किसी तत्व का कितना, कहां और किस तरह का प्रयोग/उपयोग करना है-जानता है। मसलन बगैर संवादों के भी, कहानी रची गयी है-और अच्छी कहानियां लिखी गयी हैं। फिर भी कथा-रचना में संवादों की भूमिका उल्लेखनीय होती हैं-इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
कहानी में परिवेश, पात्र व वातावरण महत्वपूर्ण होता है। यह जितना सजीव होगा, कहानी उतनी विश्वसनीय होगी। आपकी कहानी चाहे जितनी फेंटेसी भरी हो, यह पाठकों को विश्वास दिलाए और पाठकों का विश्वास जीतने के लिए एक सजीव, सशक्त वातावरण, पात्र-पात्रों की रचना अहम है। जैसे कोई पात्र आम के बगीचे में बैठकर रोटी-दाल खा रहा है, लुंगी और सर पे पगड़ी बांधे है यदि उसकी जुबान से ये संवाद निकले-‘‘वाऊ! इट्स अमेजिंग…,नाइस लंच….।’’ -ऐसा वाक्य पूरी तरह विरोधाभाषी है, पाठकों की अपेक्षा के प्रतिकूल चौंकानेवाला, अविश्वसनीय! पाठकों में कौतुक तो जगाएगा फिर लेखक महोदय को तर्कसम्मत तरीके से बताना पड़ेगा कि उनका यह पात्र ऐसी अभिव्यक्ति क्यों कर रहा है। क्या लेखक का मंतव्य हास्य पैदा करना है ? चौंकाना ?
जबकि उक्त परिवेश में भोजन का आनंद लेते हुए उस पात्र द्वारा यह कहलवाना ज्यादा यथार्थ के करीब होगा-‘‘वाह! आज के रोटी में गजबे मिठास है।’’
उसी तरह एक दूसरा पात्र मुंह में पहला कौर ले जाते ही थूक दिया-‘‘औरत के हाथ नमक और तिजोरी पर एके समान रहना चाहिए जहां हाथ खोलना हो चुटकी से काम लेवे, हमारी घरवाली तो दोनों हाथ से बहावे…।’’
उक्त संवाद पात्रों की अलग-अलग मनोदशा, स्थितियों का चित्रण करते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि एक जीवंत कहानी जीवंत पात्रों व परिवेश से ही रची जा सकती है। संवादों की भूमिका असंदिग्ध है।
संवाद कैसे हों ? लम्बे, छोटे, चुटीले, प्रवचननुमा। इसका कोई फार्मूला नहीं हो सकता और होना भी नहीं चाहिए। यह सब रचनाकार पर निर्भर करता है कि वह संवादों के मार्फत क्या और किस बात की अभिव्यक्ति चाहता है। फिर भी, लेखक स्वयं देखे कि ये संवाद विश्वसनीय हों,परिवेश को जीवंत करने वाले, पात्र और परिस्थिति के अनुकूल। थोड़ी सी सावधानी आपकी कहानी को उम्दा बना सकती है।
एक संवाद कहानी में विविध भूमिका रचता है। ऊपर सार व्यक्त किया गया है, मगर जो सबसे अहम् और कलात्मक अभिव्यक्ति संवादों की हो सकती है वह है घर्षण, संघर्ष या विवाद की स्थिति का चित्रण! चाहे आंतरिक हो या बाह्य। एकालाप प्रधान कहानी में भी संवाद आते-जाते रहते हैं। देखा जाए तो संवाद वे ही नहीं जो ‘इनवर्टेट कोमा’ में बंद किये गये होते हैं। विरोधी बातें ही संवाद होती हैं। और बगैर विरोध, घर्षण या संघर्ष के कहानी कला अधूरी रहेगी। गौर फरमाएं-
‘क्यों भाई! आम खा रहे हो!’
‘हां भाई! तुम भी साथ दो न!’
‘क्यों नहीं, आम देखते ही मेरे मुंह में पानी आ जाता है…।’
‘खाओ, खाओ! यहां कोई कमी नहीं, जी भर कर खाओ।’
ऊपर के संवाद में कोई झगड़ा, विवाद या चरित्रगत विशेषता, संघर्ष कुछ भी उजागर नहीं हो रहा। लेकिन ये बात-चीत है, संवाद है, पाठकों को यही ज्ञान मिलता है कि दो दोस्त हैं और दोनों को आम पसंद है। यहां आम की कोई कमी नहीं।
अब गौर फरमाएं-
‘भाई वाह! खूब आम खा रहे हो।’
‘तो क्या मैं तुझे इमली चूसता नजर आ रहा हूं, भगवान ने बड़ी-बड़ी आंखें दी हैं, कभी तो इन पर यकीन कर लिया करो….।’
‘आंखों पे तो पूरा यकीन है दोस्त, पर मेरी जुबान को नहीं।’
‘क्यों, मीठे आम का एक कतरा इन्हें चटाओ, वाह! क्या मिठास है….आह…।’
‘मुबारक हो भाईजान, आप ही को यह मिठास मिले!’
‘चल जा। जिस जुबान को हड्डी, मांस प्यारी हो उस कमीनी जुबान को यह प्यारी चीज क्या पसंद आएगी…।’
’खबरदार! तू क्या जाने मुर्गे की टांग का मजा! तू खाक समझ पायेगा…ये घास और पत्ते चबाने वाली जुबान…खाक समझ पाएगा सेंकी कबाब का मजा…।’
‘चल हट…मुबारक हो तुझे। कातिल कहीं के…।’
‘क्या कहा…..कातिल…?’
‘हां, और क्या….प्राणी ही तो हैं बेचारे, खून पीते हो, हड्डी चूसते हो…।’
‘बस, बस…। तुम्हारे घास-पत्तों में मालूम है कितने कीड़े और बैक्टीरिया होते हैं कातिल मैं या तू …।’
‘अब बस कर यार! मैं बहस के मूड में नहीं, साला आम का स्वाद ही जाता रहा…कुछ लोगे ? मेरे यहां गोड़ी का रस या मछली का शोरबा मिलने से रहा…।’
‘उठ कर चला जाऊं…।’
‘तेरी मर्जी…मैं तो मजबूर हूं…जो खाता हूं वही तो खिलाऊंगा…।’
‘इतना शिष्टाचार तो मैं जानता हूं, तू मेरे घर आता और मुझे मटन बिरयानी खाते देखता तो मजाल जो दरवाजे तक आ जाए….जनाब को तब भूत नजर आता…उल्टे पांव भागते….।’
ऊपर के संवाद में दो भिन्न स्वाभाव, रूचि या विचार वाले पात्रों के संवाद हैं। यहां असीमित संभावनाएं हैं।
हिन्दी कहानी में ज्यादातर विचारों को प्रेषित करने में संवादों का इस्तेमाल किया जाता है-जैसा कि बार-बार कहा गया है वे विचार एजेण्डाबद्ध तरीके से लिखे जाते हैं और रचना बेजान सी होती है। वे विचार पात्रों के मुंह से तो कहलवाए जाते हैं मगर मूल रूप से वे लेखक के किताबी ज्ञान होते हैं। यह उतना बुरा नहीं है-मुश्किल तब है जब दो पात्र एक ही विचार को सीधे रास्ते से गुजरते हुए एक खास निर्णय पर पहुंचना चाहते हों। यहां संघर्ष या विवाद के लिए कोई जगह नहीं। कहानियां क्यों न बेजान हो….।
एक और बात! कहानी या संवाद में लेखक तथ्यों, स्थिति का, विचार का चित्रण भर करे-किसी पक्ष की ओर झुकाव आखिरकार एक कमजोर रचना ही बनाएगी। कलात्मक कुशलता तो यही है कि विरोधाभाषी तस्वीरें खींच दी जाएं-पाठक पर थोपी न जाए। मांसाहार बुरा है तो इसकी बुराई का चित्रण कर तटस्थ रहें-प्रवचन देने से कहानी कला (या कैसा भी लेखन) कमजोर ही होगा। ऊपर के संवाद में शाकाहार या मांसाहार किसी का पक्ष नहीं लिया गया है।
मुलाहिजा फरमाएं-
आज का तापमान 44 डिग्री पार कर गया। उफ्फ! जी मचल गया है सापेक्ष आर्द्रता भी नब्बे प्रतिशत से कम न होगी। पत्ते तक हिल नहीं रहे हैं-हवा का मानों अस्तिस्व ही नहीं। ना भीतर चैन ना बाहर! इस उमस भरी गर्मी ने तो जैसे अजगर बना दिया है-प्रतीत होता है सांस कहीं अटकी पड़ी है। यह तस्वीर उमस भरी गर्मी का है-वर्णन है। इस वर्णन में उमस भरे जीवन को लक्षित कर खास-खास बिन्दुओं को दर्शाया गया है-जैसे तापमान, सापेक्ष आर्द्रता (डिग्री मापने की जरूरत नहीं थी।) गतिहीन पत्ते, मन की बेचैनी, अजगर सा आलस्य, अटकी सांसे।
इसे इस तरह व्यक्त करने पर विचार करें-
दीनदयाल जी अपनी गीली बनियान निकाल फेंके और लुंगी वहां तक उठा लिया जहां तक संभव हो सकता था। चौराहे के पुलिया पर जा बैठे, दो-चार मित्र पहले से मौजूद थे, लुंगी को पंखे की तरह हिलाते हुए बोले-‘ओफ्फ ई गर्मी तो गांड़ मार के रख दिया है, न सोते आराम ना जागते…।’
दूसरा दृश्य देखें-
मास्टरनी जी लथ-पथ किसी तरह सीढ़ियों को पार कर अपने तीसरे मंजिलें पर स्थित मकान का दरवाजा खोली। धड़ाम! एक जोर की आवाज आई। आते ही वह सोफे पर पसर गई-‘अरे ओ बाई! कहां मर गई , कूलर-पंखा सब ऑन कर…। मार डाला इस उमस ने…।’
उसी तरह गर्मी-उमस से परेशान पाण्डे जी का ये उद्गार है-‘कूलर है, पंखा है मगर चैन नहीं। इतनी गर्मी तो हमारे गांव में भी नहीं पड़ी, तब ना बिजली थी ना बत्ती…, सब इंसान का पाप है….यह कुछ नहीं बस पाप की तपन है….हे भगवान…!’
उक्त संवादों (एकालाप के रूप में ही) से वातावरण और चरित्र दोनों की जानकारी पाठकों को मिलती है। संवाद से ही ज्ञात हो जाता है कि पात्र व परिवेश कहां के हैं-पात्र किस तरह का है, शहरी ग्रामीण, शिष्ट या भदेस। स्थान का भी बोध होता है-पूर्वी या मुम्बईया या बंगाली या और कुछ।
रचनाकार इन संभावनाओं को अपनी कहानी में मांग के अनुसार प्रयोग कर सकते हैं। ध्यान देने की बात ये है कि लेखक अपने पाठकों को किस तरह और कितना कथा के परिवेश, स्थिति, समय व स्थान इत्यादि से अवगत कराते हैं। और वह भी विश्वसनीयता से।
भावना व भावुकता
मनुष्य एक भावना प्रधान प्राणी है। मनुष्य ही क्यों, शायद इस संसार का हर प्राणी भावनाओं से संचालित है। बात सीधी सी है-यदि भावना नहीं तो व्यक्ति रोबोट है, मनुष्य नहीं।
जब भावनाओं के बिना मनुष्य, मनुष्य नहीं बन सकता तो इन भावनाओं को नियंत्रण में रखना, काबू में रखना इत्यादि बातें क्यों सुनने मिलती हैं।
असल में-भावनाएं उस जल की तरह हैं जिस पर हमारी नाव तैरे न कि जल नाव में समाए। मनुष्य से भी अपेक्षित है कि वह भावनाओं के सागर में डुबकी लगाए, तैरे न कि डूब जाए। अति भावुक या नियंत्रणहीन भावुकता डुबाने का काम करती हैं। असल में जिस भावुकता की हम आलोचना करते हैं वह हमारे यही अति भाव हैं-कोरी भावुकता! यह व्यक्ति और जीवन की कितनी क्षति पहुंचाती है पता नहीं मगर जब साहित्य या कहानी में भावनाओं पे काबू न रखा जाए तो रचना डूब ही जाती है।
सार यही है कि ये संसार (भावनाओं से ओत-प्रोत) आपके ऊपर (या भीतर) समाया है या आप इनके ऊपर। नाव जल पर है या जल नाव पर!
कई रचनाकार एकदम शुष्क, नीरस किस्म की रचनाएं गढ़ते हैं-खासकर पश्चिमी साहित्यकार। (जिसकी शानदार फोटोकापियां हमारे यहां मौजूद हैं।) जहां तक मैं समझता हूं पश्चिमी लोग तर्कवादी पहले होते हैं-भावुक बाद में। हम पूर्वी लोग ठीक उल्टे हैं-भावुक पहले व तर्कशीलता तो बहुत दूर की बात हुई। इस पूर्व व पश्चिम के बुनियादी फर्क के कारणों पर हम नहीं जाना चाहेंगे, ये बहुत गहरी हैं और परम्पराओं से जुड़ी हैं। यह हमारे विकास से भी जुड़ा है। हम मूलतः आस्थावादी हैं तार्किक बहुत बाद में। हमारा साहित्य कभी भी हमारी नजर से पश्चिम के लोग नहीं समझ सकते, वैसे ही हम पश्चिम के साहित्य को उनकी आंखों से नहीं पढ़ सकते। पश्चिमी चीजें यहां ओढ़ी गयी हैं-फैशन के तौर पर लिया गया है या स्वयं को सदियों का गुलाम साबित करने हेतु प्रयुक्त किया गया है।
कहा गया है-हम अच्छे नौकर तो हो सकते हैं मगर अच्छे मास्टर नहीं।
मास्टर वही हो सकता है जो अंग्रेजी के इस जुमले को गहराई से समझता है-‘बी योर सेल्फ’ या फिर जो हमारे वेदों, बौद्ध व अन्य साहित्य में चीख-चीख कर कहा गया है-तुम वही हो जो तुम हो…अपना दीपक तुम स्वयं हो…अह्म ब्रह्मास्मि…मैं ही ब्रह्म हूं। संसार मेरी प्रतिच्छाया….इत्यादि।
हमारे थोक के कला-साहित्य हमारे अच्छे नौकर होने को ही साबित करते हैं-तहेदिल से धन्यवाद जो कुछ गिने-चुने मूर्धन्य हुए जिन्होंने साबित कर दिया कि वे अपनी ज्योति आप हैं।(यहां उनका नाम गिनाना मेरी योजना में नहीं …आप स्वयं उन्हें ढूंढें तो अच्छा हो…पहले मेरे कहे के आशय को पूर्वाग्रहरहित होकर पकड़ने का प्रयास करें।)
अंधी नकल में हिन्दी के कई रचनाकार भावना या भावुकता को समझे बगैर संवेदनशून्य, शुष्क रचनाएं गढ़ते जाते हैं मानों उनके पात्र व्यक्ति नहीं रोबोट हों। जबकि सत्य ये है कि एक अच्छी रचना हमेशा हमारे मर्म पर प्रहार करती है। हम कहते हैं हमारा दिल भर आया। आंखें नम हो गयी। वैज्ञानिक रूप से कहें तो हमारे मस्तिष्क के दोनों हिस्से एक साथ सक्रिय हो जाते हैं। हम आध्यात्म के दरवाजे पर जा खड़े होते हैं। कलात्मक रचनाओं की यही महानता है-वे हमें एक ही वार में पलट देती हैं-हमें उच्च भूमि पे बैठा देती हैं।
आप अपनी पसंद की किसी भी रचना को उठाकर देखिए-उसने अवश्य ही आपके मर्म को भेदा होगा। संवेदित किया होगा तभी वो कालजयी होती है-क्योंकि मनुष्य बदलता है मगर उसकी भावनाएं सनातन है। बुद्धि, तर्क, तकनीक पर मानव ने बहुत काम किया मगर भावनाओं के संसार में वह जहां आदम काल में था, आज भी लगभग वहीं है। बस कुछ अभिव्यक्ति के तरीके बदल गये हैं। पहले झगड़ा होने पर लोग एक दूसरे का कत्ल कर देते थे-आज थाना-पुलिस होता है। पर, मूल वही है।
भावनाओं के सही होने पर सब सही है वरना उनके विकृत होने में देर नहीं लगती। साहित्य पढ़ते वक्त पाठक देखे कि वे पात्रों की भावनाओं से संवेदित हैं या उनके विकारों से ऊबे!
रचनाकारों को यहां सतर्क रहना समीचीन है।
भावनाएं हैं क्या…., वे कब भावुकता में बदल जाती हैं ? प्रश्न विचार योग्य है। हम इन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के मार्फत इस दुनिया से जो भी देखकर, सूंघकर, चखकर, स्पर्श, अहसास अर्थात वे तमाम तरह की प्रतिक्रियाएं हम प्रेषित करते हैं-वे सब हमारी भावनाओं के कारण ही हैं। गुस्सा, प्रेम, घृणा सभी भावनाएं हैं। ये ऐसी भावना हैं जिनकी पहचान बड़ी आसानी से हो जाती है। हम कहते हैं-अपनी भावना पे काबू करो। यानी गुस्से पर काबू करो। अपने प्रेम को काबू करो और कर्तव्य को विचारो। इत्यादि। ये सभी ऐसी भावनाएं हैं जो सतह पर लहर की तरह देखी जा सकती हैं। पहचानी जा सकती हैं। मगर कई भावनाएं इतनी सूक्ष्म होती हैं कि ना हम उन्हें पहचान पाते हैं ना ही दूसरे। जैसे सवेरा होते ही पक्षियों की चहकने की आवाज आयी। वर्षा की बूंदे तप्त धरती को भिगोने लगी। एक प्यारा मुस्कुराता बच्चा आपको दिख गया या स्मृति में आ गया। आपको अपनी प्रेयसी की याद आ गयी। बचपन का कोई दृश्य, घटना सहसा आपके मस्तिष्क में कौंध गया। ये सभी वो दृश्य, घटनाएं हैं जो यह संसार आपसे प्रतिबिंबित हो रहा है। दरअसल आप प्रतिबिंबित हो रहे हैं। अपना या पराया भूलकर। क्यों ? क्योंकि आप ही वो प्राणी हैं जिसमें ऊर्जा है-आत्मा है, ऊर्जा या आत्मा ही आपको उद्वेलित कर रही है। (मस्तिष्क में चेतना बनकर) भावना से जोड़ रही है। और ये सुखद है। आपको तृप्त कर रही है। सुंदर फूलों का गुच्छा और बेली के फूलों की महक अगर आपको शांत रोमानी दुनिया में ले जाती है तो यह मनुष्य की भावनाशीलता है। दार्शनिक इसकी दूसरे तरह की व्याख्या करेंगे-लेकिन एक कला-साधक इन चीजों को अपनी ही तरह से समझने का प्रयास करेगा।
जैसे उपर्युक्त दृश्य सुखद हैं, उसी तरह गंदे सूअर का मुंह मारना और जर्जरता, गंदगी, ईष्या, कुढ़न इत्यादि की कल्पना ही आपके मनोभावों को पीछे अंधकार में ले जाएगी। यानी मनुष्य हर पल इन भावों के ऊपर सवार है-प्रिय देखकर प्रसन्न, अप्रिय देखकर (या विचार कर) अप्रसन्न!
क्या मानव नामक प्राणी अपनी भावनाओं को पढ़ने, जानने की कोशिश करता है ? उस पर कौन हर पल हुकूमत कर रहा है ? वह शासित है शासक ?
भावनाओं के कारण ही मनुष्य सौंदर्य की तलाश करता है। वह सौंदर्य के नये-नये आयाम ढूंढता है। वह अपने प्रेम, घृणा, क्रोध को एक लक्ष्य के साथ जस्टिफाई करना चाहता है।
इन भावनाओं का जिक्र कर एक लेखक या रचनाकार के लिए आखिर क्या प्रयोजन, निहितार्थ हो सकते हैं ?
प्रयोजन है। इन भावनाओं के कारण ही मनुष्य राग या विराग तत्व से जुड़ता है। उसकी कुछ संस्कारगत वासनाएं होती हैं। ये वासनाएं-सांस्कृतिक राग अत्यंत निजी होते हैं-मगर वे संसार से ही व्यक्ति में आकर चिपके होते हैं-इसलिए हमारा निजी राग सार्वजनिक भी हो जाता है। इसलिए साहित्य/कलाएं निजी होकर भी कभी निजी नहीं हो पातीं। वह मानव समुदाय और कभी-कभी सम्पूर्ण मानव समाज के लिए धरोहर बन जाती हैं। सच तो ये है कि ये जितनी निजी होंगी उतनी ही सार्वभौम भी! एक बार फिर आप कालजयी रचनाओं को ध्यान में रखकर इस पहलू से देखें। वे इतनी विश्वसनीय होती हैं कि ‘निजी’ ’सार्वभौम’ बन जाता है। (अब इसके विपरित सोदे्दश्य/एजेंडाबद्ध रचनाओं पर भी गौर फरमाएं।)
इन मनोभावों के ऊपर आचार्य रामचंद्र शुक्ल (चिन्तामणी भाग-1 एवं 2) ने अद्भुत किताब लिखी है। कला और रचना से जुड़े हर रचनाकारों, पाठकों को इसका अध्ययन-मनन करना चाहिए। इन्हें समझकर ही हम इनका अर्थ समझ सकते हैं-
‘ऐ कल्लू के बापू! जरा सुनियो तो…।’
‘हलो मिस्टर जॉन! क्या आप कुछ मिनट हमें सुनना चाहेंगे…।’
उक्त दोनों संवादों में कई प्रकाशवर्ष की दूरी है। वे हमारे भाव को बिल्कुल अलग तरह से प्रभावित कर रहे हैं।
एक रचनाकार के लिए भावनाओं को कहां तक जानना, समझना जरूरी है। भावनाएं कब भावुकता में बदल जाती हैं-विचारणीय है।
कोई भी कलाकार या लेखक भावों की अभिव्यक्ति से परे नहीं जा सकता है। वह तो भवसागर में ही है। अच्छा या बुरा-इससे फर्क नहीं पड़ता कि कोई कफ़न के पैसे से शराब पीकर नाच रहा है या किसी की ‘सद्गति’ जानवर से भी बदतर हो रही है-फर्क तब पड़ता है जब रचनाकार अपने पाठकों/दर्शकों को द्रवित करने के बजाए स्वयं द्रवित हो जाता है। मृत्यु की अभिव्यक्ति के लिए जरूरी नहीं कि नायक सचमुच में ही मर जाए। या दूसरों को हंसाने के लिए स्वयं खूब हंसे। इसे उदाहरण से समझें-
एक बस्तर का कवि नक्सलवाद पर रोना रोता है-
कब-तक चलेंगी गोलियां, कब-तक बहेंगी लहू की धार….., मां का आंचल कब-तक होगा लहू-लुहान…।
यह पूरी तरह भावुक अभिव्यक्ति है।
दूसरी अभिव्यक्ति है-
यहां गोलियां चलती हैं और बहती है खून की धार…., मां का दूधिया आंचल होता है लाल….।
दोनों में अंतर स्पष्ट है।
दूसरी तरफ बहुत से लेखक अनाड़ीपन के कारण अपने पात्रों को भावनाहीन तरीके से अभिव्यक्त करते हैं- मानों उनका पात्र भावनाशून्य हो। रोबोट। यह पश्चिम का रोग है। भावनाएं ‘रिलेशनशिप’ की चाह रखती हैं- अपना, पराया, ऊंच-नीच, नजदीक-दूर इत्यादि। पात्रों के संबंध शुष्क होंगे तो भावनाओं को उजागर करने का कहां स्थान मिलेगा ? पात्र चाहे अन्य पात्रों से या परिवेश से या स्वयं से-प्रतिक्रिया तो करेगा ही। एक भावना की (पात्र द्वारा) दूसरी भावना से क्रिया-प्रतिक्रिया होती है। संघर्ष होता है। रचनाएं तभी सजीव होती हैं।
क्या एक लेखक अपने पात्रों को जिंदा देखना चाहता है ? भावुक बनकर या भावनापूर्ण अभिव्यक्ति द्वारा ?
बस्तर पाति फीचर्स