हल्बी लोक संगीत की दशा और दिशा-बलबीर सिंह कच्छ

हल्बी लोक संगीत की दशा और दिशा

जनजातीय जीवन का अभिन्न हिस्सा है संगीत! पर्व, तीज-त्यौहार का जीवन्त हिस्सा है संगीत! सुख और दुःख की भावाभिव्यक्ति का उत्कृष्ट माध्यम है संगीत, क्यांकि यह प्रकृति और संस्कृति के बीच की कड़ी है। बस्तर का संगीत प्रकृति और जीवन के अटूट रिश्तों को उजागर करता है। संगीत के माध्यम से संस्कृति की पहचान का मार्ग प्रशस्त होता है।
बस्तर की जनजातीय संस्कृति में जितनी विविधता है, जितनी सम्पन्नता है उतनी शायद देश की किसी अन्य आदिम संस्कृति में हो। बस्तर में अनेक समुदाय के लोग निवास करते हैं- कलार, सूण्डी, हल्बा, घसिया, धुरवा, माहरा, राउत, बामन, धाकड़, गोंड़, माड़िया, मुरिया, भतरा, झोड़िया इत्यादि।
यदि हम यहां की जन बोलियों के बारे में बात करें तो यहां अनेक बोलियों का प्रचलन मिलता है। उत्तर-पश्चिम में गोंडी और छत्तीसगढ़ी, पूर्व-दक्षिण में दोरली, धुरवी, मध्य और पूर्व बस्तर में हल्बी और भतरी बोलियों का प्रयोग किया जाता है। किन्तु बस्तर की सम्पर्क बोली हल्बी है जिसे सम्पूर्ण बस्तर के लोग समझते और बोलते हैं।
हल्बी परिवेश के लोकसंगीत को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है-
1. लोकगीत 2. लोक नृत्य 3. लोक वाद्य-यंत्र
4. लोक कथा 5. लोकगाथा।
हल्बी परिवेश के लोक गीतों में लेजा, परब, मारिरसोना, खेलगीत, मुंदी गीत, छेरटा गीत, डंडारी गीत, लोरी गीत, जगार गीत, झाली आना गीत, विवाह संस्कार गीत, कहनी गीत, चाखना गीत।
हल्बी परिवेश के लोक नृत्यों में परब, डंडारी, छेरता, उड़जा, बीया नाचा, गोंडदी नाचा, देव नाचा।
हल्बी परिवेश के लोक वाद्य यंत्रों में-नंगरा, मोहरी, तुड़बुड़ी, निशान, ढ़ोल, टामक, किन्दरी बाजा, बांसुरी, ठुड़का, ठुमरी, तोड़ी, करनाल, ठुसिर, बिरिया ढोल, राम बाजा, दासकाड़ी, मुण्डा बाजा, खंजरी, घीनि, मांदर, मांदरी, मिरदिंग, डमरू, धनकुल, टिगों, ठोंगरा, और झाप बाजा।
हल्बी परिवेश की लोक गाथाओं में बेलतीमती रानी, पारदेया राजा, हरदी गुण्डी, काला सुन्दर, आला-उदल, बाली उदल, मार राजा, हुडबंद राजा-मालती रानी, ललीत कुंवर, करित माल, सिलयारीमती रानी-जलजलया राजा, दयला दई, बेलुता बेलुर घसनीन, इन्दरजीत- पवनजीत, काटा सेलार रानी- बाण्डा ढोंडेया राजा, बेलार सन, दुलमा दई रानी, बांजा राजा, नंदनी बुड़ी, सोनादई रानी, मैनामती रानी, बिरला ढिण्डा।
हल्बी परिवेश के कटाव लोक कथा-काकड़ा, जूटेया-मूसा, कोलया आरू टेण्डका, कोलया आरू बाघ, कोलेया आरू ढेला, डोकरा-डोकरी, सातभाई, खोड़या माटया, धुंगिया खाया सवकार, माय-बेटा, नकटा स्वांग, राकसीन, कुमण्डा फुलेया राजा इत्यादि।
यहां मैं कुछ गीतों का उल्लेख करना चाहूंगा। बस्तर के सांस्कारिक कार्यों में विवाह एक महत्वपूर्ण सामाजिक कार्य है। बस्तर के विवाह संस्कारों में गोत्र व्यवस्था का पूरा ध्यान रखा जाता है और निषेधों को भी मानकर पालन किया जाता है। विवाह संस्कार बस्तर की जनजातियों में अपनी विशेषताओं, सादगी, आडम्बरों से दूर दहेज या मांग जैसी, विसंगतियों से अछूता होने के कारण एक आदर्श प्रस्तुत करता है। विवाह संस्कार को सम्पादित करने कई रस्म हैं। 1. हरदी पिसनी 2. मांडो गाड़नी 3. रैला माटी 4. मउड़ बांधनी 5. देव तेल 6. सगा तेल 7. लगीन 8. जोड़ी तेल 9. बान 10 तेल उतरानी 11. चाउर मारनी 12. भाटा-भाटा 13. बंधनी 14. कोरली 15. माण्डो झलानी 16. बूची 17. गोहनो 18. समधीन भेंट।
प्रत्येक रस्म वाद्य धुन और गीत से आरंभ होते हैं। विवाह संस्कार का आरंभ हल्दी पीसने की रस्म से होता है। पास-पड़ोस की महिलाएं कच्ची हल्दी को सील में पीस कर तथा ओखली और ढेकी में कांड कर (कूट कर) नई हण्डी में रखते हैं। इस समय जो गीत गाया जाता है उसे हरदी-गुण्डी गीत कहते हैं-
गुण्डी रे गुण्डी बलीस रे सरगी
गुण्डी रे गुण्डी बलीस रे
बाड़ी चो हरदी मुण्डी रे
बाड़ी चो हरदी मुण्डी रे सरगी
बाड़ी चो हरदी मुण्डी रे
चलो रे पैसा मुण्डी रे
चलो रे पैसा मुण्डी रे सरगी
चलो रे पैसा मुण्डी
बाबा के रचन धरीस रे सरगी
बाबा के रचन धरीस से
आया के रीस धरीस रे
आया के रीस धरीस रे सरगी
आया के रीस धरीस से
सिलो रे रिलो बलीस रे
दूरस्थ ग्रामीण अंचल के लोग अधिकांशतः अशिक्षित हैं।
यहां साहित्य केवल वाणी तक ही सीमित है। इनकी देह ही इनका साहित्य है। इनका साहित्य स्मृति या जिव्हा पर संचित है। वाणी के द्वारा जो भी साहित्य सृजन होता है। उसे स्मृति में सुरक्षित रखा जाता है। और संगीत के माध्यम से उसका सम्प्रेषण होता है। चांदनी रात में युवक-युवतियों का समूह मनोरंजन के लिये एकत्रित होता है ये एक-दूसरे पर कटाक्ष करते हुए हंसी-मजाक करते हुए गीत गाते हैं। जिसे खेल गीत कहा जाता है।
लड़की- आमी लेकी मन तीनक तीना/ गोटक मुंदी दिया चिना/ आले गीलट मुंदी के नाय दिया चीना/ दखु आय घिन-घिना रे सेलो-रानो बेलोरे सेलो सई टोरा तेलो चकर, चक ढांय-ढांय करे सेलो सुरबेलो…….बला बाली फूलो……
लड़का- आले बला-बला टपाय बला पाका बाटे जाओ झोला आले बलु आहस बलते बला टोंडे-टोंडे नाय छोला रे सेलो/सेलो-रानो बेलो रे सेलो सई टोरा तेलो/ चकर, चक ढांय-ढांय करे सेलो सुरबेलो……….बला बाली फूलो…………
लड़की- ओदरला टेण्डका चेगीला गचे/ मुण्डी झुलाय-झुलाय नोचे/ आले पानी घाटे बसुन टाकते रलु/ तुमचो किरता काजे रे सेलो/सेलो- रानो बेलो रे सेलो सई टोरा तेलो/ चकर, चक ढाय-ढाय करे सेलो सुरबेलो बला बालीफूल…………
जोली गीत, जिसे लोरी गीत भी कहते हैं। जब बच्चे के माता-पिता, खेत, बाजार, पानी लाने, जंगल में लकड़ी लाने या कहीं घर से बाहर रहते हैं। तब बच्चों को देख-रेख कर रही उसकी नानी या कोई देख-रेख कर रही महिला रोते बच्चे को लाड़ करते हुए बांस से बने झुलना में सुला कर मिठाई, कपड़े, खिलौने आदि का नाम बताते हुए गीत गा गाकर बच्चे को सुलाने की कोशिश करती है।
जो-जो जोली रे बाबु सामसुन्दर 2
चाई चाचा रे बाबू करो तुई जे 2
जो जो जोली रे बाबु सामसुन्दर 2
तुचो बुआ रे बाबु सामसुन्दर 2
गांजा मिठई आनुन देयदे 2
जो जो जोली रे बाबु सामसुन्दर 2
चाई चाचा रे बाबु करो तुईजे 2
तूचो बाबा रे बाबु तूचो काजे 2
लाड़ु घेनुन आनुन देयदे
जो जो जोली रे बाबु सामसुन्दर 2
चाचा चाई करो रे हाण्डा करो तुइ 2
फसल कटने के बाद पौष मास के शुक्ल पक्ष में छेरता पर्व
आता है। जिसमें गांव के बालक, बालिकाएं, किशोर, प्रौढ़, वृद्ध सभी अपना-अपना समूह बनाकर सज-धज कर घर-घर में नाचने निकलते हैं। इसके बदले इन्हें चावल, धान, मक्का, जोंदरी(ज्वार) आदि अनाज मिलते हैं। जिसे छेरता नाच समाप्त होने के बाद सभी मिलकर तालाब या नदी किनारे जा कर पकाते हैं। खाने के पूर्व एक रस्म अदा करते हैं। एक दोनी में दाल-भात, आग की लुठी (जलती हुई लकड़ी), गुड़ और धूप लेकर तालाब या नदी के खण्डहर में जाकर पूजा करते हैं। पश्चात दोनी में रखे दाल भात को तालाब या नदी में डाल देते हैं। इसके बाद सभी लोग स्नानकर एक साथ बैठ कर भोजन करते हैं।
बालक समूह में एक लड़का को नकटा बना दिया जाता है। नकटा याने नकलाह जिसे जोकर कह सकते हैं। इसके देह में कोयले से विभिन्न आकृति बनाकर, जंगली, फल-फूल से सजा दिया जाता है। एक बड़ी सी लौकी को खोलकर मुंह की तरह मुखड़ा(मुखौटा) बना देते हैं। जिसे नकटा मुंह में रख कर नाचता है । समूह निकलता है गांव के घरों में नाचने। इस समय जो गीत गाया जाता है उसे झिरलिटी गीत कहते हैं।
झिरलिटी-झिरलिटी पण्डकी मारा लीटी रे नकटा छेरछेर
अयले ढोड़ा-फयले ढोड़ा मुंजी दांदर ओड़ा रे नकटा छेर छेर
दांदर दखुक जा बोड़ा चुचाय हाड़ा-गोड़ा है नकटा छेरछेर
करया डांडा लुरे लुरे पंडरी डांडा लुरे रे नकटा छेरछेर
माहदेव चो परसाद ने पंडरी बायले मिरे रे नकटा छेरछेर
इसी तरह लड़कियों के समूह में भी एक लड़की को सजावटी वेशभूषा पहना कर सजा दिया जाता है। पैर में घुंघरू, हाथ में मयुर मुठा (मयूर पंख से बना झाडू की आकृति का गुच्छा), मुंह में रंगीन फूंलों का रंग होता है। इस सजी धजी लड़क़ी को धंगड़ी कहते हैं। यह समूह नाचते निकलता है। शुरू होता है धंगड़ी गीत-
गुड़दुम-गुड़दुम बाजा बाजीला
बाजा बाजीला तेब दांय गोरी लो
आरापुरीन धंगड़ी लेकी धंगड़ी नाचीला
धंगड़ी नाचीला तेब दांय गोरी लो
गुड़दुम-गुड़दुम बाजा बाजीला
आचीला-पाचीला, चीहला फुटीला
चीहला फुटीला देब दांय गोरी लो
चीहला भीतरे मांग मचरी झपके लुकिला
झपके लुकिला तेब दांय गोरी लो
गुड़दुम-गुड़दुम बाजा बाजीला
हल्बी परिवेश के लोक संगीत में लोक वाद्य यंत्रों का विशेष महत्व है। सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक कार्यों का निष्पादन नंगरा, मोहरी, ढोल, निशान, टामक, तुड़बुड़ी वाद्यों और गीतों से आरंभ होता है। चरू, जतरा, बजार, मण्डई जगार में देवी-देवताओं को आहवान करने के लिये नंगरा, मोहरी और तुड़बुड़ी वाद्यों से वाद्य धुन बजाई जाती है। परब नाचा, बिया नाचा में भी ढोल, निशान, मोहरी और तुड़बुड़ी वाद्यों का प्रयोग किया जाता है। मांदर वाद्य का प्रयोग नृत्य में किया जाता है। राम बाजा तथा दासकाड़ी का प्रयोग भजन व गीत गायन में किया जाता है।
इस प्रकार हम हल्बी लोक संगीत में सामाजिक चेतना, धार्मिक आस्था, सामाजिक तथा सांस्कृतिक एकता, नैतिक तथा बौद्विक विकास, प्रकृति दर्शन, आंचलिकता, सार्वजनिकता, स्वच्छता, सहजता एवं सादगीपन जैसे जीवन के महत्वपूर्ण घटकों से परिचित होते हैं।
किन्तु आज समय बदल रहा है, परिवर्तन की होड़ लगी है। परिवेश, वातावरण और पर्यावरण आदि में परिवर्तन आ रहा है। चमक-दमक के क्षतिकारक प्रभाव से कुछ भी अछूता नहीं रहा है। लोक संगीत भी इससे प्रभावित हो रहा है जो भविष्य के लिये अशुभ संकेत हैं। वृक्ष कटेंगे तो वृक्षारोपण हो जायेगा, वायुमंडल प्रदूषित होगा तो वैज्ञानिक उपक्रमों द्वारा दोष मुक्त कर लिया जायेगा यदि लोक संगीत विलुप्त हो गया तो निश्चित ही हम अपनी यशस्वी परम्परा खो बैठेंगे। जिसे पुनः अर्जित करना हमारे लिये असम्भव तो नहीं जटिल अवश्य हो जायेगा।
इन्हें संरक्षित करने के कुछ विकल्पों पर विचार कर सकते हैं। लोक गीतों, लोक कथाओं, लोक गाथाओं को लिपिबद्व किया जाये, मूल रूप में ध्वन्यांकन कर संग्रहण किया जाये तथा संगोष्ठियों के आयोजनों में मूल कलाकारों को आमंत्रित कर उनमें जागरूकता लाने की आवश्यकता है।


बलबीर सिंह कच्छ
कार्यक्रम अधिशासी
आकाशवाणी जगदलपुर
मो.-9425590590