मधु सक्सेना के काव्य संग्रह “पत्ते” की समीक्षा-भवेश दिलशाद

कृति/कृतिकार – पत्ते : मधु सक्सेना

‘पत्ते कभी निरर्थक नहीं हुए’
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जिस कठिन समय में हम हैं, जो विष चारों आरे से हममें घोला जा रहा है और जिस तरह हम अमानुषिकता के जाल में फंस रहे हैं… इसमें हमारे पास बचाव का एक ही उपाय है, प्रेम. लेकिन प्रेम किस तरह का? दैहिकता के वासना चक्र से फंसा प्रेम? आत्म व्यामोह के पाश में बिंधा प्रेम? स्मृतियों और विस्मृतियों के अंधकार में रमा प्रेम? या एक सजग प्रेम, एक जागरूक भाव और विचार बोध वाला प्रेम, एक जिजीविषा और एक प्रवाह देता प्रेम…

मधु सक्सेना जी की कविताई की उम्र संभवतः बहुत नहीं, अपितु उनके प्रेम भाव की आयु चिरंतन है. उनकी कविताओं में उस प्रेम के दर्शन जगह-जगह बिखरे पड़े हैं, जो मानव एवं जग कल्याण के लिए आवश्यक है. यह कपोल कल्पित, फैंटेसी या फैसिनेशन वाला प्रेम नहीं है और न ही यह जीवन से विमुख किसी संन्यास या त्याग वाला प्रेम है. यह प्रेम वह है, जो हमें जीने के लिए एक उचित मन और जी देता है.

‘एक भाव है सब देने का / और सब देने के बाद / कृतज्ञता से भरे रहने का’, मधु जी के शब्दों को ध्यान से गुन लीजिए. ‘देनहार कोउ और है’ वाली गूंज भी इसमें है और एक संदेश भी कि प्रेम का अभिमान संभव नहीं है. ‘तातै नीचे नैन’ ही प्रेम भाव है. इन पंक्तियों से हमें ‘कृतज्ञता के संस्कार’ की ओर भी विचार करना चाहिए. हाल में एक व्याख्यान में वरिष्ठ विचारक प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने इस बारे में सही हस्तक्षेप करते हुए कहा भी कि हम कृतघ्नता के संस्कार को पल्लवित कर रहे हैं. ‘नेहरू, गांधी से लेकर अपने पिता तक की हम आलोचना तो कर सकते हैं लेकिन उनके योगदान को लेकर कृतघ्न भाव को पोसना सर्वथा दुखद है.’ जो कविताएं हमें कृतज्ञता को प्रेम का भाव समझाती हैं, वो सचमुच आदरणीय हैं.

एक छोटी-सी कितबिया है ‘पत्ते’. इसमें मधु जी की वो कविताएं संकलित हैं, जो आकार में छोटी हैं, लेकिन अपने विस्तार में बहुत सक्षम. ‘तेरा प्रेम/वो पेड़ है/जिसका पत्ता/पतझड़ को नहीं मानता/पीले पड़ने से इनकार कर देता है’, ये पंक्तियां प्रेम को ही सृष्टि का मूलतत्व प्रमाणित करती हैं. ‘पीले पत्ते पर भी/लिखना चाहती हूं प्रेम/हरियाये पत्ते से हरा रंग लेकर/शायद बचा सकूं/पीले में कुछ हरापन’, तो ये पंक्तियां मदर टेरेसा के उस भावप्रवण बयान की याद दिलाजी हैं, जिसमें उन्होंने अपना जीवन उद्देश्य बताते हुए कहा था, ‘मैं चाहती थी कि कोई मनुष्य यह वेदना लेकर प्राण न त्यागे कि वह अवांछित है, उसकी इस दुनिया में किसी को कोई ज़रूरत नहीं, किसी को उससे सरोकार या लगाव नहीं.’

मधु जी की कविताओं में ‘प्यारी चिड़ियो!’ जैसे संबोधन हैं, तो एक काव्योक्ति में वह नदी को ढांढ़स बंधा रही हैं और एक जगह लिखती हैं, ‘मां भी ना… कितना बांध लेती है/अपने आंचल की गांठ में’. एक ओर उनकी कविताओं में पत्ते अलग अलग प्रतीकों, बिम्बों के रूप में केंद्र में हैं, तो दूसरी ओर प्रेम का ममत्व रूप उनकी कविताओं में समानांतर चलता हुआ दिखता है.

नदी ने प्रेम किया पानी से
पानी विहीन हो गयी
पेड़ ने प्रेम किया हरेपन से
नहीं रहा सदा हरा
मैंने प्रेम किया तुमसे
हम कभी साथ नहीं रहे
पर प्रेम जगमगाता रहा
नदी, पेड़ और हमारे बीच

 

ममता रूप के साथ ही प्रेम का यह विश्वरूप भी इन कविताओं में ध्यान मांगता है. इन रागिनियों में मधु जी प्रेम के चिरजीवी सुरों को छेड़ती हैं, लेकिन उनका कवि मन या प्रेम मन ऐसा है कि वह तन, व्यक्ति या वर्ग जैसी संकुचित सीमाओं से परे निकल जाता है. वह दोनों हाथों से प्रेम लुटाने के भाव की प्रबल समर्थक इन कविताओं में दिखती हैं.

प्रेम पानी बन लहराया
हवा बन सरसराया
मिटटी बन महका
बादल बन सरसा
आग बन हुलसा
प्रेम मनुष्य हुआ
मुस्कराया, खिलखिलाया

उनके यहां प्रेम साक्षात मनुष्य हो उठता है. कविता में इसे मानवीकरण कहा जाता है. जब आप एक भाव का मानवीकरण कर सकते हैं, तो आप कवि के तौर पर इस जगत को एक स्पष्टता दे सकते हैं. इन दिनों सूत्र काव्य के नाम पर कुछ कविश्रेष्ठ बहुत ही साधारण दर्जे की पंक्तियों के नीचे अपना नाम दर्ज करवा रहे हैं. इसके बरक्स मधु जी के पास कई बेहतर मिसालें हैं. मसलन, ‘कितने ही लिखित नियमों के/होते हुए भी/मज़बूत हो जाते हैं/प्रेम के अलिखित नियम’ या ‘मेरे कहे और अनकहे में/तुम और तुम्हारे ही शब्द हैं’. इस तरह की कई सूत्र कविताएं इस छोटी-सी कितबिया में हैं.

कुछ कविताएं ग़ज़ल के शेर जैसा एहसास भी देती हैं. ‘साथ चलता रहा, मेरे साथ हौसला तेरा/मैं मुश्किलों के माथे पर पांव रखकर चलती रही’. पत्तों की तरह कई छटा की कविताएं इस कितबिया में मिलती हैं, लेकिन आकार पत्तों की ही तरह है. कोई तुलसी की पत्ती जैसी तो कोई कमल के पत्ते की तरह, केले के पत्ते के आकार-सी कोई कविता यहां नहीं है. संभवतः एकाध निराकार अवश्य है.

आख़िरश कहूं, तो विविधवर्णी इन कविताओं का महत्व यही है कि ये हमारे समय में संवेदना को बचाने, जिलाने और एक जायज़ संस्कार को पोसने की पक्षधर हैं. द्वेष, निराशा और विभाजनकारी समय में ये कविताएं एक थके हुए राही को संबल दे सकती हैं. मधु जी की इन पंक्तियों के साथ ही उन्हें शुभकामनाएं – ‘समय भी थक गया अब तो/पर इस उम्मीद का क्या करूं/जो थकती ही नहीं…’

समालोचना – भवेश दिलशाद