व्यंग्य-सुरेन्द्र रावल-मेरी सड़क

मेरी सड़क

मुझे लगातार लग रहा है कि मेरी सड़क के प्रति पुरातत्ववेत्ताओं की उपेक्षा कोई सोची समझी चाल है, उन्हें जो चौंकाने वाले ऐतिहासिक नतीजे निकालने थे, वे नहीं कर पाए। मेरी सड़क पुरातत्ववेत्ताओं की इसी उपेक्षा के कारण भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण पृष्ठ बनने से वंचित रह गई।
इस सड़क की लम्बाई लगभग दो किलोमीटर है इसके अंतिम छोर पर मकान है। मुझे अपनी जिन्दगी को खतरे में डाल रोज इस सड़क से गुजरना पड़ता है। वो मेरा मकान है। सौभाग्यवश मैं अभी तक गुजर जाने से बचा हुआ हूं।
मैं इतिहास का छात्र रहा हूं, मुझे पूरा विश्वास है कि जब औरंगजेब की फौज दक्षिण के राज्यों पर जीत का परचम फहराने निकली थी, वह इसी मार्ग से गई होगी। मेरे विश्वास का आधार यह है कि उसके हजारों घुड़सवारों के यहां से निकलने के कारण ही सड़क पर इतने बड़े बड़े गड्ढे बन सकते थे। पी.डब्ल्यू.डी. या उनके पसंदीदा ठेकेदारों को सड़क बनाने के ठेके मिलते हैं, गड्ढे बनाने के नहीं, अतः गड्ढे उनकी रचनाएं नहीं हो सकतीं।
मैंने अन्य विकल्पों पर भी विचार किया ’शोध का काम गंभीर होता है’। मैंने अंतरिक्ष विज्ञान के दफ्तरों में तारे गिनने और उनके मध्य की दूरियों का अनुमान लगाने वाले अंतरिक्ष विज्ञानी मित्रों से भी पूछा कि गत् हजारों वर्षों में इधर उल्कापातों की कोई संभावना या जानकारी क्या उनके पास है? उन्होंने नकार दिया बल्कि हंस दिये। क्या एक ही सड़क पर इतने सुव्यवस्थित ढंग से उल्कापात संभव है ? नहीं, कदापि नहीं। अपना संदेह दूर करना मेरा शोधोचित कर्तव्य था। मैं उधर से निश्चिन्त हुआ। फिर मुझे ज्ञात हुआ कि केशकाल के पास कुछ टूटी हुई मूर्तियां मिली हैं, जरूर यह औरंगजेब के कुछ दुष्ट सैनिकों की करतूत रही होगी। क्योंकि जहां तक मेरी जानकारी है, औंरंगजेब एक धर्मनिरपेक्ष बादशाह था। उसने हिन्दू मराठा राज्यों और दक्षिण के शिया मुस्लिम राज्यों पर आक्रमण में कोई भेदभाव नहीं किया। और मैं ये भी मानता हूं कि औरंगजेब एक धार्मिक बादशाह था, शाही खजाने का एक धेला भी खुद पर खर्च नहीं करता था।
मैंने जिन पुरातात्विकों के समक्ष अपने उपरोक्त विचार रखे, उन्होंने पुरातात्विक संस्कारों के अनुसार गंभीरता ओढ़ ली। उन्होंने नॉन कमिटल स्टेटमेंट दिया कि-आपके विचार सही भी हो सकते हैं। उन्होंने सड़क के हर छोटे बड़े गड्ढों को वात्सल्यपूर्ण दृष्टि से देखा। गड्ढों की मिट्टी खंरोच कर भी देखी। अब इन बातों की भनक लोक निर्माण विभाग और नगरपालिका को भी लग गई। उन्होंने तत्काल गेंद लोक निर्माण विभाग के पाले में डाल दी। लोक निर्माण विभाग हर काम फूंक फूंककर करता है क्योंकि कभी-कभी वह दूध का जला होता है। वहां अफसरों ने बुद्धि दौड़ाई कि भगवान न करे कहीं यह सड़क ऐतिहासिक विरासत सिद्ध हो गई तो विभाग को लेने के देने पड़ जायेंगे। एक अलिखित आदेश निकल गया – कोई उन गड्ढों को पाटने की कोशिश न करे। वैसे उन्होंने सड़क के निर्माण का इस्टीमेट भी पास करवा लिया पर पुरातत्व का वास्ता देकर वे ’वेट एंड सी’ के आजमाए प्रचलित तरीके पर रूक गये।
बहुत सोचता हूं तो कई बार मुझे लगता है यह सड़क बनाई ही नहीं गई है, बल्कि खोद कर निकाली गई है। फिर पता नहीं क्यों काम रोक दिया गया। शायद इसलिए बस्तर में राम वन गमन का मार्ग भी इन दिनों ढूंढा जाने लगा है। शायद किसी साम्प्रदायिक तनाव की आशंका से काम रोका गया होगा।
अपने मुहल्ले के प्रतिभाशाली बच्चे अब दो गुट बनाकर शर्त भी लगाने लग गये हैं कि बताओ पूरी सड़क का क्षेत्रफल अधिक है या गड्ढों का।
मैं गत पचास वर्षों से इस सड़क को जैसे का तैसा देख रहा हूं। सड़क बीचों बीच से अनेक सेठों के निजी गंगोत्रियों से निकली धाराएं दूर-दूर तक बहती रही हैं। कुछ पुराने लोग नाक भौं सिकोड़ते गंदगी की इस पावन धारा को कूदते फांदते रास्ता तय करते हैं।
सुना है यातायात विभाग वाहन चाल हेतु ली जा सकने वाली परीक्षा के साधनों की कमी के चलते यह भी सोचने लगा है कि क्यों न वाहन चालन के नये लाइसेंस जारी करने की परीक्षा इसी सड़क पर ली जाये। जो सकुशल निकल गया उसे लाइसेंस दे दिया जाए। और जो सकुशल नहीं निकल सका उसके समुचित उपचार की व्यवस्था की जाए। पर यह सब सुना है पक्का पता नहीं। यातायात प्रभारी अधिकारी मेरे मित्र हैं, कभी उनसे पूछुंगा।
आश्चर्य यही है कि इसी सड़क पर सबसे ज्यादा आवाजाही होती है। नगर में कोई अन्य ऐसी सड़क ही नहीं जिस पर ट्रक, बस, कारें, रिक्शे, बाइक्स, बैलगाड़ियां, सायकिल और ढेरों ढेरों पशुओं और मनुष्यों के झुंड सुबह से शाम तक चलते हैं। इतनी वैरायटी नगर के किसी दूसरे मार्ग में नहीं। मेनरोड पर रहने वाले मेरे दुश्मन दोस्त घृणावश इसे गली कहते हैं जबकि कसम भगवान की यह सड़क है। सौ फीसदी सड़क। इसे गली कहने पर सुना दो गुटों में मारपीट भी हो गई थी।

-सुरेन्द्र रावल