व्यंग्य-सुरेन्द्र रावल-अंग्रेजों की जूठन

अंग्रेजों की जूठन

सुना है, अंग्रेजों का भारत से जाने का कोई इरादा न था। कभी कभी मेहमान को मेजबान का घर, मेहमान नवाजी इतनी अच्छी लगने लगती है कि उसे वहीं टिक जाने का मन करता है। यही बात अंग्रेजों के साथ थी। मुफ्त की जमीन पर मुफ्त में मिले डाकबंगले, शिकारगाह, घने जंगल, गोलियों से मरने को आतुर जंगली जानवर, मुसाहिबों को यस सर-यस सर कहती टोली, मजदूरों किसानों पर हंटर बरसाते रहने का आनंद, ये सारे सुख उन्हें लौटने पर इंग्लैण्ड में कहां नसीब होते।
उधर इण्डिया बिगड़ गया था। अंग्रेजों की किताबें पढ़ पढ़ कर उसे भी आजाद होने की इच्छा होने लगी थी, फलस्वरूप आये दिन अहिंसक जुलूस, गगनभेदी नारे और बाद में भारत छोड़ो आंदोलन-इन सबने अंग्रेजों का मूड खराब कर दिया। इन अहिंसक प्रदर्शनकारियों पर जब जब उन्होंने लाठियां और गोलियां चलाई तो उन्हें अपनी ही पार्लियामेंट में जवाब देना मुश्किल हो गया। जब प्रदर्शनकारी सिर्फ नारे लगा रहे थे तब तुमने लाठी, गोली क्यों चलाई-ऐसे प्रश्नों ने उनका जीना हराम कर दिया था तो फिर न चाहते हुए भी उन्हें भारत छोड़ना पड़ा। उन्हें याद आया कि सुदूर इंग्लैण्ड में उनका भी कोई अपना घर है। वे गये तब बड़ी जल्दबाजी में गये। उनका बस चलता तो पूरी बीसवीं सदी वार्ताओं बैठकों में गुजार देते।
बड़ी जवाबदारी में जाते समय जैसे मेहमान का चश्मा छूट जाता है, गीला चड्डी बनियाइन अलगनी पर सूखती रह जाती है, छाता पता नहीं किस कोने में पड़ा है, जुराबें बाथरूम में रह गई-ऐसा ही अंग्रेजों के साथ हुआ। यहां तक कि मेकाले द्वारा प्रेषित अंग्रेजी भी भारत में छूट गई, फिर इस पीछे छूटी अंग्रेजी की बंदर बांट हुई। बहुत से लोगों के हाथ लगा -गुडमार्निंग, गुड इवनिंग, सॉरी, थैंक्यू, प्लीज और ओके।
उनके अच्छे अच्छे वेदवाक्य भी यहीं रह गये, जैसे इवरी थिंग इज फेयर इन लव एण्ड वार, प्रेम और युद्ध में सब जायज है। उनके जाने के दस बीस बरस बाद नेहरू, गांधी, पटेल, बोस की पीढ़ी के निकल जाने के बाद बिहार, उत्तरप्रदेश जैसे प्रखर बुद्धि वाले राज्यों के नेताओं ने इस वेदवाक्य का विस्तार कर उसमें राजनीति भी जोड़ दिया। इवरी थिंग इज फेयर इन लव, वार एण्ड पॉलिटिक्स। किशोर और युवा विद्यार्थियों ने उसमें परीक्षा भी जोड़ दिया। परीक्षाओं के दिनों में आपने देखा होगा छोटे बड़े अखबारों में चार-चार मंजिला विद्यालयों की हर खिड़की पर लटक-लटक कर भीतर परीक्षार्थियों तक आये हुए प्रश्नों के उत्तर पहुंचाये जा रहे हैं। वे खिड़कियां जैसे हवा आने के लिए नहीं, नकल आने के लिए बनाई गई हों। हमने अखबारों में ऐसी घटनाओं के लिए की गई कार्यवाही के बारे में नहीं पढ़ा। जाहिर है -’’बच्चे हैं, नादान हैं, शरारत तो करेंगे ही’’ ऐसे वाक्यों द्वारा पूरे वात्सल्य भाव से उसे बाल सुलभ चंचलता मान लिया जाता है। अब उस वेदवाक्य में प्रेम, युद्ध, राजनीति के साथ ही परीक्षा भी जुड़ गया जो पूरे देश में वायरल हो गया। ’’इवरीथिंग इज फेयर इन लव, वार, पॉलिटिक्स एण्ड एक्सामिनेशन।’’
बाद में देश को यह सूझा कि अब इसे पूर्ण कर देना ठीक है-इवरीथिंग इज फेयर इवरीवेयर। सर्वत्र सबकुछ जायज है।
उधर परिक्षाओं में सबकुछ जायज होने के परिणामस्वरूप देश को विचारार्थ एक नया मुद्दा मिला। ’’शिक्षा में गुणवत्ता की कमी’’ चूंकि यह समस्या देशव्यापी थी अतः विचारकों ने इसे समस्या न मान कर देश में तेजी से हो रहे विकासोन्मुख परिवर्तन का एक अनिवार्य लक्षण मान लिया।
अंग्रेज अपने साथ इतिहास भी लाये-’’भारत का इतिहास’’। उन्होंने भारतीय बच्चों को रटा दिया कि आर्य बाहर से आये हमलावर थे जिन्होंने देश के उत्तरी भाग में काबिज होकर भारतीयों को दक्षिण की ओर ढकेलने में कामयाब हो गये। इस प्रकार उन्होंने उत्तर भारत और दक्षिण भारत को अलग अलग बताकर एक विभाजक रेखा खींच दी।
उन्होंने यह भी बताया कि भारत का इतिहास ज्यादा से ज्यादा पांच हजार वर्ष का है। रामचंद्र जी का जन्म ईसा मसीह से लगभग डेढ़ हजार वर्ष पूर्व हुआ और कृष्ण जी का उनके भी पांच छै सौ साल पहले। इस प्र्रकार विद्यार्थियों को भारत के इतिहास का पाकेट एडिशन उपलब्ध हो गया।
अंग्रेजों ने यह भी बताया कि संस्कृत एक मृत भाषा है। यह कभी लोक व्यवहार में नहीं आई। उन्होंने इस बात पर भी खेद प्रकट कर दिया कि पता नहीं कैसे संस्कृत के अनेक शब्द ग्रीक, लेटिन, अंग्रेजी आदि में कहां से घुस गये।
उनके इतिहास से ही हमें जर्मनी इटली आदि संबंधित शब्द फासीवाद, नाजीवाद, हिटलरशाही जैसे शब्द मिले जिन्हें देश के निष्क्रिय राजनीतिक दलों ने हाथों हाथ लपक लिया जो उन विरोधियों द्वारा सरकार पर छोड़े जाने वाले प्रक्ष्ेपास्त्र बन सकें। उन्होंने गोयबल्स के उस सूत्र वाक्य पर भी प्रकाश डाला कि झूठ यदि लगातार दोहराया जाय तो वह सच बन जाता है। ये भारतीय राजनीति के लिए सिद्ध मंत्र सिद्ध हुए।
अंग्रेजों ने भारत को मदारियों, बाजीगरों तथा जंगलियों का देश बताया जो मंत्र-तंत्र, टोने-टोटके में फंसे थे। वे इस देश को अपने जैसा सभ्य और सुसंस्कृत बनाने को कृतसंकल्प थे। इसके पहले कि वे अपना काम पूरा कर पाते, गांधी, जवाहर, पटेल, सुभाष जैसे लोग बीच में आ गये और हमारे उन शुभचिंतकों का हमें सभ्य बनाने का अधूरा सपना लेकर ही इस देश से विदा होना पड़ा।
सामान्य जनजीवन में भी अंग्रेजों और अंग्रेजी का अच्छा प्रभाव पड़ा। लोग लंगोटी, धोती, कुर्ता छोड़ सभ्य कहलाने के लिए शर्ट, पेन्ट, टाई, कोट का उपयोग करने लगे। उन्होंने भारत के गर्म मौसम का भी लिहाज न किया।
बच्चों ने भी सॉरी, थैंक्यू, प्लीज, ओके, एक्सक्यूज मी आदि का प्रयोग सीख कर अपने जीवन को सरल बना लिया अब तो दुष्कर्म में पकड़ा गया आरोपी भी थानेदार के यह कहने पर कि तुम्हें शर्म नहीं आती दुष्कृत्य करते।, आरोपी ’सॉरी’ कह देता है। थानेदार भी उसे लुक्खा समझकर मामले को दर्ज न कर उसे समझाइश देता है और आरोपी उसे समझकर ’थैंक्यू अंकल’ कहकर निकल लेता है।
बप्पा, बाबूजी, अम्मा, मां, बुआ, चाची जैसे शब्दों का प्रयोग अब देहातीपन माना जाता है। इनके स्थान पर डैड, डैडी, पप्पा, मम्मी, आंटी, अंकल जैसे शब्दों का प्रयोग करना सही माना जाता है।
शहरों में सबसे अधिक प्रचलन में है प्लीज, सॉरी और थैंक्यू। अमीर बाप का अमीर बेटा भी अपने बाप से ‘प्लीज’ कहकर आठ-दस लाख की कार ऐंठ लेता है। उच्च मध्यम वर्ग का बेटा ’प्लीज’ कह कर साठ-सत्तर हजार की बाइक पा लेता है। और निम्न वर्ग का बेटा ’प्लीज’ कहकर डेढ़ सौ, दो सौ रूपये वाला पिज्जा बर्गर आदि का मजा ले लेता है। मैं चिन्तित हूं बोबो, बासी, ठेठरी खाने वाले बच्चों के लिए जो अब मैगी, चाउमिन, कुरकुरे खाने लग गये हैं। लाई, चना, मुर्रा उन्होंने बहुत पीछे छोड़ दिया है।