बातचीत-सुरेन्द्र रावल

‘एक मुलाकात’ व ‘परिचय’ श्रृंखला में इस तथाकथित पिछड़े क्षेत्र से जुड़े हुए और क्षेत्र के लिए रचनात्मक योगदान करने वाले व्यक्ति के साथ बातचीत, उनकी रचनाओं की समीक्षा, उनकी रचनाएं और उनके फोटोग्राफ अपने पाठकों के साथ साझा करेंगे।
सुरेन्द्र रावल नाम बस्तर क्षेत्र का जाना पहचाना और अपना सा नाम है। शायद ही कोई ऐसा साहित्यकार होगा जो सुरेन्द्र रावल जी के साथ जुड़कर उनसे कुछ न पाया हो। स्वभावगत श्रेष्ठता तो मिलते ही समझ आ जाती है और साहित्य संबंधी ज्ञान अद्भुत है। कुछ देर उनके साथ गुजारते ही बस्तर के तमाम मूर्धन्य साहित्यकारों के साथ व्यतित किया समय सिलसिलेवार बताना शुरू कर देते हैं। सुनते हुए ऐसा महसूस होता है मानों हम उसी युग में उन सभी के पास पहुंच गये हों। उन्होंने अपनी लेखनी को व्यंग्य की स्याही से भरा है। अपने उत्कृष्ठ मंच संचालन और व्यंग्य पाठ से चर्चित रहे हैं। आज भी वे कार्यक्रमों की पहली मांग होते हैं। इस उम्र में भी वे वर्तमान घटनाओं को ध्यान में रखकर अपना लेखन जारी रखे हुए हैं। अपनी व्यंग्य शैली से एकदम विपरीत शांत रस की कविताओं का लेखन अचरज से भर देता है। अपनी कविताओं और व्यंग्य आलेखों से साहित्य में एक विशिष्ट मुकाम हासिल करने वाले रावल जी सहज, सरल और आत्मीय व्यवहार के चलते हमेशा याद रहते हैं। मैंने उनसे साहित्य से जुड़े विभिन्न संदर्भों पर बात की और उन्होंने बेबाक जवाब दिया। आईये हम सभी उनके विचार जानकर उन्हें समझने का प्रयास करते हैं।

सनत जैन-किसी नये नवेले साहित्यकार को कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनाने से उसका फायदा है या नुकसान?
सुरेन्द्र जी-उसका नुकसान है। उसे व्यर्थ ही भ्रम हो जाता है कि वह मुख्य अतिथि की आसंदी के योग्य है, जबकि यह सच नहीं है!

सनत जैन-किसी ‘पहुंच’ वाले को साहित्यिक कार्यक्रम की आसंदी देना कहां तक उचित है?
सुरेन्द्र जी-पहुंच वाले को भी आसंदी देना गलत ही क्योकि उसे पहले ही लगने लगता है कि आयोजक मुझसे कुछ स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है!

सनत जैन-किसी भी साहित्यिक पत्रिका के संपादक की योग्यता क्या होनी चाहिए?
सुरेन्द्र जी-साहित्य का ज्ञान, साहित्य की समझ, साहित्य में आ रहे बदलाव और साहित्य के उचित सरोकारों से उसे परिचित होना चाहिए!

सनत जैन-साहित्यकार होने के लिए व्यक्ति को कितना पढ़ा लिखा होना चाहिए?
सुरेन्द्र जी-पढ़ा लिखा का आज कोई अर्थ नही रह गया है। उसका भाषा पर अधिकार हो, भावना और संवेदनाआें को शब्दों में पिरो सकने की कला उसमे होनी चाहिए।

सनत जैन-सामाजिक असंतुलन के लिए लेखक जिम्मेदार होता है या फिर संपादक?
सुरेन्द्र जी-मैं तो संपादक को जिम्मेदार मानता हूं, उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि वह लेखकों के माध्यम से पाठकों के सामने क्या परोस रहा है।

सनत जैन-साहित्यकार का बेटा साहित्यकार ही बने क्या ऐसा जरूरी है?
सुरेन्द्र जी-बिल्कुल नहीं! आवश्यक नहीं की उसमे साहित्यकार होने की प्रतिभा भी हो।

सनत जैन-साहित्यिक सफलता के मायने क्या होते हैं?
सुरेन्द्र जी-साहित्यिक सफलता उसे ही कहेंगे जहां पाठक उसकी रचनाओं से जुड़ाव महसूस करे। प्रसिद्धि की तो मार्केटिंग की जा सकती है।

सनत जैन-सहित्यकार अपने जीवन में क्या करता है और वह क्या रचता है, क्या दोनों में तारतम्य होना जरूरी है?
सुरेन्द्र जी-दरअसल साहित्यकार जिसे जीवन मे नहीं कर सकता, उसकी झलक उसके साहित्य में आती है, पर उसके जीवन मूल्य या संस्कार उसकी रचना से जुड़ कर ही आते हैं।

सनत जैन-गज़लें अब अपने विषय बदल रहीं हैं, पहले और आज भी शराब व शवाब में डूबी रहती हैं; क्या परिवर्तन जरूरी है? और यह परिवर्तन समय के कारण है या फिर ग़ज़लकारों की कमजोरी है?
सुरेन्द्र जी-ठहरे हुए जल में सड़ांध पैदा हो जाती है। तब नए विषयों को उठा कर लहरों की तरह चलने वाले ग़ज़लकार ग़ज़लों को सार्थक और नए सरोकारों से युक्त बना देते हैं।

सनत जैन-मंचीय कवि और साहित्यिक कवि में क्या अंतर है?
सुरेन्द्र जी-जमीन आसमान का! मंचीय कवि अपनी कविता बेचता है जबकि साहित्यिक कवि उसे प्रसाद बना कर मां भारती के चरणों मे अर्पित करता है!

सनत जैन-व्यंग्य और हास्य में क्या अंतर है?
सुरेन्द्र जी-बहुत बड़ा अंतर है। व्यंग्य एक प्रकार की अन्योक्ति होती है जो किसी विसंगति को अनूठे अंदाज में प्रस्तुत करता है। जबकि हास्य तो सिर्फ हंसाता है, कुछ देता नही।

सनत जैन-क्या वास्तव में सफल महिला साहित्यकार होने के लिए परिवार नामक संस्था से दूर रहना आवश्यक है?
सुरेन्द्र जी-नहीं! अनेक महिला साहित्यकार अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व का पालन करते हुए श्रेष्ठ लेखन करती हैं।

सनत जैन-हर सफल व्यक्ति के पीछे उसकी पत्नी होती है, तो सफल औरत के पीछे कौन होता है?
सुरेन्द्र जी-सफल पुरुष साहित्यकार की तरह सफल महिला साहित्यकार के पीछे भी उसका पूरा परिवार होता है।

सनत जैन-संपादकीय के विषय क्या होने चाहिए, समसामायिक घटनाएं, साहित्य से संबंधित या फिर सामाजिक समस्याओं पर?
सुरेन्द्र जी-समसामयिक घटनाएं नहीं, समसामयिक प्रश्न चिन्ह जो समाज, राष्ट्र और कला के क्षेत्र के होते हैं। पर उसका दृष्टिकोण हर स्थिति में सकारात्मक होना आवश्यक है।

सनत जैन-नये साहित्यकारों के सृजन के कैसे प्रयास होने चाहिए?
सुरेन्द्र जी-उन्हें अधिकाधिक लिखने के बदले कम और सार्थक लिखना चाहिए। और उसे समय पर उस विधा के पारंगत साहित्यकार से परीक्षण करवाना चाहिए।

सनत जैन-क्या उम्र के साथ लेखन में परिपक्वता आती है, या ये जुमला यूं ही उछाला गया है?
सुरेन्द्र जी-परिपक्वता साधना से आती है, इसका उम्र से कोई संबंध नहीं है।

सनत जैन-आप साहित्य की किस विधा में लिखते हैं ?
सुरेन्द्र जी-इसका उत्तर कठिन है। जिस तरह किसी पिता को अपनी सारी संतानें प्रिय होती हैं उसी तरह मुझे भी हर विधा प्रिय है। इन सभी विधाओं ने मेरे लेखन में मेरी पहचान बनाई है।

सनत जैन-क्या कोई राष्ट्रीय साहित्यिक संगठन में जुड़कर ही साहित्य की सेवा कर सकता है?
सुरेन्द्र जी-ऐसा कतई जरूरी नहीं है। जो साहित्य साधक है, साहित्य सेवक है वो कहीं भी सेवा कर सकता है। बल्कि नामी गिरामी संगठन में आजकल चालबाज लोग सम्मान और खुद को बड़ा दिखाने की प्रत्याशा से ही जुड़ते हैं। इनसे अच्छा काम तो स्थानीय संगठन करते हैं।

सनत जैन-साहित्य लेखन में आजकल देखा जा रहा है कि लेखक को देश विरोधी, समाज और संस्कृति विरोधी, मानसिकता बदलने वाला लेखन करने पर मजबूर किया जा रहा है; क्या यह सही है ?
सुरेन्द्र जी-साहित्य का अर्थ होता है समाजहित! जो लेखन हमारे समाज और संस्कृति के विरूद्ध है उसे खारिज किया जाना चाहिए। इसकी जबाबदारी तो लघु पत्र पत्रिकाओं के सम्पादकों की है। उन्हें ऐसा आलेख प्रकाशित ही नहीं करना चाहिए। बल्कि ऐसे लेखकों की कभी भी किसी भी विधा में लिखी रचना को प्रकाशित नहीं करना चाहिए। लघु पत्रिकाओं ने सामाजिक परिवर्तन में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है। समाज निर्माण की उनकी महती जिम्मेदारी है। और हां, एक बात और अगर कोई पत्रिका इस तरह की संस्कृति विरोधी है तो उसे खरीदना या चंदा देना देश और संस्कृति के प्रति अपराध है।

सनत जैन-आजकल शासकीय धन के दुरूपयोग से लोग खुद को साहित्यकार बना कर पेश कर रहे हैं। अपने शासकीय पद के बूते कवि बनकर आ रहे हैं; इस बारे में आप क्या सोचते हैं?
सुरेन्द्र जी-आपने कभी ऐसे साहित्यकार को इतिहासपुरूष बनते देखा है? आजतक जितने भी साहित्यकार इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाये हैं वे अपनी साधना के बूते न कि शासकीय धन और पद के बूते! हां, ये जरूर है कि हमें ऐसा लगता है कि ये अपने समय में आगे चल रहे हैं पर होता है नहीं। ये सारी हरकतें उनकी मानसिक बीमारी की तरह हैं।

सनत जैन-आकाशवाणी और दूरदर्शन वास्तव में साहित्य के विकास में कितने सहायक हैं ? क्या इनसे नवीन साहित्यकारों को फायदा होता है ? या फिर ये भी सफेद हाथी हैं ?
सुरेन्द्र जी-घुन, सारे गेंहूं में लगी है। किसी एक को क्या दोष दें। जब तक ये विभाग अपनी पुरातन पद्धतियों को नहीं बदलेंगे तब तक इनका अवदान और योगदान अपेक्षित ही रहेगा।

सनत जैन-आजकल खुद को ऊपर उठाने के लिए लोग पत्रिका प्रकाशन करते हैं। पहले लोग संग्रह प्रकाशित करवा कर साहित्यकारों के बीच बांटा करते थे; क्या ये वास्तव में खुद को आगे बढ़ाने में सहायक होता है या फिर सिर्फ झूठी तसल्ली है खुद को बहलाने की?
सुरेन्द्र जी-गजब का प्रश्न है। ये सारे साम-दाम-दण्ड भेद एक महत्वाकांक्षी साहित्यकार को तात्कालिक संतुष्टि दे सकते हैं पर साहित्य में सिर्फ साधना ही स्थापित होती है। ये मां सरस्वती का वरदान कहें या फिर उनके द्वारा स्थापित मर्यादा!

सनत जैन-साहित्य में दलितवाद शब्द का प्रयोग आजकल बहुत किया जाता है। क्या ये फैशन है या फिर साहित्यकार की वास्तविक चिंता ?
सुरेन्द्र जी-एक वाक्य में कहूं तो ये एक छलावा ही है। ये लोग साहित्यकार ही नहीं हैं। इसलिए साहित्य की वास्तविक धारा को यहां वहां मोड़ रहे हैं।

सनत जैन-साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं का खर्च किस तरह निकाला जाए? बुक स्टाल वाले तो पैसा देते नहीं हैं, और आजकल पत्रिकाएं सभी को मुफ्त में चाहिए होती है वो भी अधिकारपूर्वक! आपके दिमाग में इस समस्या के लिए कोई उपाय है?
सुरेन्द्र जी-मैंने पहले ही कहा कि वास्तविक साहित्यकार अपनी मेहनत को प्रसाद की तरह बांटता है। इसलिए खुद को डुबाने की क्षमता रखने वाला ही इस ओर अपने कदम बढ़ाये। मुझे नहीं लगता कि आपकी पत्रिका की हजार प्रति के पचास सौ से ज्यादा सदस्य होंगे। जबकि हमारे आसपास के लोग, हमारे दोस्त-यार, रिश्तेदार भी इसके सदस्य बन जाते तो इसका खर्च निकल जाता। हां, ये सारे लोग आपको पत्रिका न देने का ताना हमेशा देंगे। ये हमारे संस्कार में दोष बनकर आ चुका है। लोगों की मानसिकता तो यह है कि वे आपको अपनी पत्रिका से अपना तीन मंजिला मकान बनवाये हो कहेंगे, जबकि वास्तविकता ये होगी कि पत्रिका के न होने से आपके मकान में एक मंजिल और बन जाती।

सनत जैन-साहित्य में मार्क्सवाद क्या बला है? क्या ये साहित्य और समाज के लिए आवश्यक तत्व है?
सुरेन्द्र जी-वास्तव में मार्क्सवाद, मार्क्स के देश के लिए अमृत की तरह था। हमारे देश और मार्क्स के देश की परिस्थितियां अलग हैं। हमारे यहां हमारी संस्कृति और संस्कार से जुड़ा वाद ही सफल हो सकता है। थोपा हुआ विचार कभी भी लाभप्रद नहीं हो सकता। हमेशा एक ही चश्में से देखना, एक जैसा लिखना और एक जैसे लिखे को ही स्वीकृति देना, साहित्य का बेड़ागर्क करने की तरह है। साहित्य तो इंसान की वास्तविकता से ओतप्रोत मानसिक स्थिति का शब्दांकन है। ये कैसे बनावटी हो सकता है! समाज के एक वर्ग को नकारात्मक घोषित करना और एक वर्ग को निरीह बताना, सामाजिक ढांचे को नुकसान पहुंचाने का काम है।

सनत जैन-अंत में एक सवाल और। बरगद साहित्यकार और नवोदित महत्वाकांक्षी साहित्यकार दोनों के बीच आप कैसा रिश्ता देखते हैं? सुरेन्द्र जी-ये दोनों एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। दोनों ही साहित्य का नुकसान करते हैं। इस तरह के साहित्यकारों को हम लोग ही प्रश्रय देते हैं। हम इनको क्यों अग्रपंक्ति में बैठाते हैं? हमारी दी गई मान्यता ही इनका हौसला होती है।

सनत जैन-आदरणीय आपका बहुत बहुत धन्यवाद, जो आपने अपना बहुमूल्य समय और बहुमूल्य विचार हमारे पाठकों को दिया। आपकी बातों से निश्चय ही पाठकवर्ग को एक दिशाबोध होगा। अपने लेखन को उत्कृष्ठता की ओर लेकर जायेंगे। बस्तर पाति परिवार की ओर से आपके उत्तम स्वास्थ की कामना के साथ उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएं।