अंक-20-बहस-साहित्य के निशाने

साहित्य के निशाने

सन 1984 में एक हिंदी फिल्म आयी थी -’पार्टी’ इस सिनेमा को गोविंद निहलानी ने डायरेक्ट किया था। सिनेमा ने समानांतर विचार को केंद्रित किया था, जैसाकि हम सभी जानते हैं निहलाने जी साम्यवादी विचार के पक्षधर थे। दूरदर्शन से प्रसारित ’भारत एक खोज’-जवाहरलाल नेहरू के पुस्तक पर आधारित सीरियल था -बड़ी कुशलता से आपने नेहरू के विचारों, विश्लेषण को कैमरे के मार्फत चिन्हित किया था। प्रसंगवश यह कहना अनुचित नहीं होगा कि आज की मुख्यधारा के सिनेमा अपने बजट के लिए और बाहुबली का पिछलग्गू होने में ही इनकी कला सार्थक संपन्न मानी जा रही है। यह बात समझ से परे है कि कहानी या कला सिर्फ बजट की मोहताज कब से हो गई ? और इस बात को सृजनधर्मी ही नहीं समझ पा रहे हैं! खैर प्रसंग आया है तो आज के सिनेमा-टीवी सीरियल्स पर अपनी प्रतिक्रिया लिख दी। फिलहाल, गोविंद जी ने नेहरू जी की पुस्तक पर आधारित एपिसोड को प्रभावी व कलात्मक तरीके से और बड़े ही कम बजट में लोक कथाओं जैसा आस्वाद रचा था। उन्हीं निहलानी द्वारा फिल्म ’पार्टी’ में सवाल उठाया गया था कि एक कलाकार या रचनाकार को पार्टी-विशेष धर्मी ही होना चाहिए या नहीं! इस फिल्म में इस आशय को लेकर कुछ रोचक प्रसंग भी जोड़े गए। मसलन वे विचार जो कला को सब-तरह के बंधन-विचार से मुक्त रखे। वह कला जो निजी तौर पर स्वांतः सुखाय हो। उसे पार्टी-राजनीति या विचार-विशेष से कोई ताल्लुक न हो। कला आत्मा को मुक्त करने, उसे सिद्ध करने, उसे अभिव्यक्त करने का जरिया है। कला निजी है, गोपन है, किसी की अभिव्यक्ति पर किसी अन्य की टिप्पणी बहुत मायने नहीं रखती। यह सब्जेक्टिव विषय है। व्यष्टि व व्यक्ति केंद्रित। और, इस नाते एक रचनाधर्मी के कार्य को हम स्वीकार ना करें तो अस्वीकार भी नहीं। यही उसका सम्मान है। यह उसकी अभिव्यक्ति है -यह उसके निजी अस्तित्व का विषय है अतः उसके अस्तित्व की अभिव्यक्ति व मुक्ति के लिए आपके अस्वीकार्य का क्या प्रश्न!
यहां पर कला व्यापक है, पर उतनी ही निजी! इसका विषय और अभिव्यक्ति के साधन असीमित है। इसका विषय राजनीति हो सकता है और नहीं भी। इसके विषय धर्म हो या आत्मा, या ज्ञान हो, या मूर्खता, विषय पदार्थ या मानस -कोई दायरा नहीं । यह निजी मुक्ति है -व्यष्टि मुक्त होता है।
चूंकि 70-80 के दशक में साम्यवादी विचार से सबसे ज्यादा हमारे बुद्धिजीवी प्रभावित थे और बहुत हद तक सच्चे अर्थों में अनेकों अनेक जायज सवाल से देश-समाज-राजनीति को प्रेरित करते रहे हैं। उसी फिल्म में मार्क्सवादी विचार कि कला-रचनाधर्मी को ’पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है, पार्टनर तुम्हारी राजनीति क्या है -इत्यादि परिपेक्ष्य में समान राजनीतिक पार्टी से जुड़ी होनी चाहिए। और स्पष्ट शब्दों में रचनाधर्मी को एजेंडाबद्ध लेखन-कला रचना करनी चाहिए। दूसरे शब्दों में उन्हें समाजवादी, साम्यवादी पार्टी या विचारधारा से जुड़े रहना चाहिए। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इन बुद्धिजीवियों, लेखकों, रचनाकारों की भी यूनियन हो। ताकि सत्ता अगर संविधान सम्मत कार्य ना करें या जबरन इमरजेंसी जैसी स्थिति उत्पन्न करें तो यहां यूनियनबाजी की जा सके। एकता प्रदर्शित की जा सके।
मार्क्सवादी विचारधारा के तहत जैसा कि सोवियत यूनियन की स्थापना (1917 ब्रोल्शेविक क्रांति) के बाद से हम देखते हैं कि किस तरह मार्क्सवाद के पक्ष में लेखन किए गए। और यह भी देखा गया कि किस तरह विरोधी विचार प्रेषित करने वाले रचनाकारों को सुदूर साइबेरिया भेजा जाने लगा।
एक विचार चाहे कितना ही भला हो, जनहित में हो, जनवादी हो यदि सत्ता विरोधियों को कुचलने के लिए आबद्ध हो जाता है और तानाशाही पर उतर जाता है तो प्रश्न स्वतः उठ जाता है। सोवियत रसिया और मार्क्स के चेले आज भी आदर्श राज्य की स्थापना में तानाशाही पर उतारू हैं। हमारी अवधारणा ही सही है और हमारा तरीका ही सही है। सत्ता बंदूक की नली से आती है। यह क्रांति है। यह मानव दासता से मुक्ति का रास्ता है। यह व्यक्ति की नहीं, समाज की मुक्ति है। उस समाज की जो सदियों से दमित है। दलित है। शोषित है। लाचार है। गरीब है। यह शोषणमुक्त समाज ही वास्तविक मुक्ति है जिसके लिए बंदूक की आवाज एक सार्थक आवाज है।
बड़ा अजीब सा दृश्य है । प्रसंग तो कला, रचनाधर्मिता का उठा था। समष्टि व व्यष्टि की मुक्ति का प्रसंग आया था। एक आदर्श राज सत्ता द्वारा आदर्श समाज की कल्पना आयी थी। पर एक सिद्धांत कैसे बंदूक और तानाशाही पर जा अटका! कला और रचनाधर्मिता का इससे क्या नाता! क्या पार्टी-एजेण्डा यही है ? या सचमुच कहीं बड़ा झोल है?
वापस अपने मूल प्रसंग पर आते हैं। कला और रचनाधर्मिता व्यक्तिपरक हो या समाजपरक ?
हिन्दी साहित्य के रचनाधर्मियों ने अद्भुत समाजपरक परिदृश्य से ओत-प्रोत रचनाओं से पटल पाट दिया। अब देखें कि कैसे एक तरह की रायटिंग तत्काल ’दायरे’ में और ’दायरे से बाहर’ हो जाता है। जब अकबर और औरंगजेब को महान शासक घोषित किया जाता है तो वैसी रचना ’हिन्दु-मुस्लिमएकता’ को अनिवार्य मानते हुए तत्काल रचना ’दायरे में’ आ जाती है और रचना क्रांतिकारी बन जाती है। क्योंकि विचारधारा के अनुसार सेक्युलरिज्म भी मार्क्स के समाजवादी समाज का आवश्यक तत्व है अतः यह भारत के संदर्भ में ’फिट’ बैठता है। उसी तरह जब दलित, शोषित, वनवासी, मजदूर, स्त्री इत्यादि पर लिखा जाता है तो वह भी स्वीकार किया जाता है। पर जैसे ही आप चंद्रगुप्त मौर्य और चाणक्य पर लिखते हैं, स्त्री की जगह पुरुष केंद्रित लिखते हैं, छोटी जाति की जगह ऊंची जाति पर लिखकर उन्हें समाज का हीरो बताते हैं, अमीर वर्ग के अच्छे कर्मों को उजागर करते हैं, बनिया को, पंडित को, शोषक नहीं दर्शाते हैं तो यह सब ’दायरे से बाहर’ हो जाते हैं। यानी कि जैसा कि मालूम है कि ऐसा साहित्य कूड़ा हो गया। चाहे जितना सच और जितना अच्छा लिखा गया हो। ठीक इसके विपरीत यदि आपका विषय दायरे में फिट हो तो आपकी रचना पर तालियां ही तालियां!
तो यह है हिंदी साहित्य का यथार्थ!
फिलहाल हिंदी साहित्य का इतिहास बताने में मेरी दिलचस्पी नहीं है। मगर प्रसंग आया है तो उल्लेख करना गलत नहीं होगा। आजादी के बाद प्रेमचंद के यथार्थवादी रचना के पश्चात और यदा-कदा कुछ उल्लेखनीय रचनाकारों को छोड़कर यदि विचार करें तो सत्तर-साठ के दशक में फ्रॉयड का मनोविश्लेषण और डार्विन का विकासवादी सिद्धांत के तरफ हमारे नकलची रचयिता भटके। बड़ा मजेदार हिंदी साहित्य में आंदोलन आया था जिसे अकहानी, अकविता, नई कहानी, नई कविता इत्यादि क्रांतिकारी नामकरण दिए गए थे। उन दिनों पढ़े एक भी कहानी इस लेखक को याद नहीं न ही वे कहानियां गले से उतरती थी। लेखक समझता था कि वह साहित्य-शिशु है अतः ऐसी गंभीर कथाएं उसके बस की नहीं। (गौर करें-यहां पाठक मर जाता है!) उन बीस-तीस सालों में लिखी गयी एक भी रचना शायद पाठकों को याद हो। उन्हीं दिनों सामान्य पाठकों के लिए आचार्य चतुरसेन, भगवती चरण वर्मा, शिवानी कुशवाहा कांत इत्यादि जैसे लेखक खूब पढ़े जा रहे थे। उनके अपने अलग पाठक वर्ग थे मगर जहां तक मैं समझता हूं और अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि उन्हें साहित्य मुख्यधारा से पृथक रखा गया। खास विचार केंद्रित किसी ’वाद’ से प्रेरित और उस ’वाद’ या ’सिद्धांत’ का पात्र द्वारा भौंडे तरीके से चित्रित कथा-कहानी ही हमारे साहित्य हुआ करते थे। और, आज भी वही आलम है।
हमारा हिंदी साहित्य और इसके मुख्य धारा के विद्वानों ने कभी जहमत नहीं उठाई कि अपनी परंपरा अपने परिवेश अपनी विरासत से कुछ सबक लें। उनके अनुसार कथा-कहानी कहना तो हमारी परंपरा में था ही नहीं, अतः पीछे मुड़कर क्या देखना! इसे तो प्रेमचंद की महती कृपा समझी जाए, जिन्होंने रूसी कथाकारों को अपना आदर्श बनाया और कथा कहानी कहने और समझने का एक नया रंग दिया। एक पृथक पटल ही खोल दिया।
एक बात दिलचस्प है, हालांकि प्रेमचंद जरूर समाज में घुटे कोढ़ को देख-समझ चुके थे, सामंतवादी समाज की सड़न अच्छी तरह चित्रित कर चुके थे -मगर क्या सचमुच उन्होंने मार्क्स के ’गाइडलाइन’ को देख-समझकर ऐसा किया ? जो बुद्धिमान और ’दायरा’ में नहीं और ’दायरे में’ का दिग्दर्शन करते हैं उन्हें प्रेमचंद की प्रारंभिक रचनाएं समझनी चाहिए कि वे सब की सब गांधीवादी आदर्श से प्रेरित थी न कि मार्क्स प्रेरित! लगभग अस्सी प्रतिशत कहानियां-उपन्यास उनके गांधी दर्शन से प्रेरित रहे हैं। हमारे हिंदी विद्वानों को यह समझना चाहिए और प्रेमचंद के लेखन को भी। बाद के प्रेमचंद के यथार्थवादी लेखन भी सीधे-सीधे किसी ’वाद’ से प्रेरित ना होकर वे मानव के यथार्थ चित्रण को चित्रित करते हैं। हां, आपको यहां अपना एजेंडा खूब दिखता है, इसलिए आप प्रेमचंद की पूंछ थाम लिये हैं। बेचारे प्रेम जी!
इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रेमचंद आधुनिक विचार स्वतंत्रता समानता के विश्वव्यापी शब्दावली और विचार से प्रेरित थे। बॉल्जाक उनके प्रिय लेखक थे, उन्हें वे पढ़ चुके थे। जहां प्रेमचंद का बचपन मशहूर क़िस्सा-गो हुआ करता था, किस्सा तोता-मैना एय्यारी की कथाएं केवल मनोरंजन के लिए होती थी, प्रेमचंद का लेखन प्रतिबद्ध हुआ, सोद्देश्य हुआ। उन्हें पाठकों को नए आयाम, नए विचार से जोड़ना भी था। और एक मायने में, सही अर्थ में तब उन्होंने क्रांतिकारी कार्य किया। हिंदी कथा-शैली को एक नया अर्थ दिया। नयी भाषा दी। वास्तविक जनवादी लेखन किया।
पर क्या प्रेमचंद ने ऐसा किसी एजेंडे को धर्म मानकर किया ? मार्क्स की किताब पढ़कर ? अगर एक शब्द में कहा जाए तो प्रेमचंद लेखक से अधिक समाज के संत थे। वे मानव सुधारक थे! समाज सुधारक! मानव हित चिंतक जिसका रास्ता लेखन का था -मंजिल मनुष्य!
ये तो तय है कि प्रेमचंद जैसे लेखक मोटा ग्रंथ पढ़कर नहीं पैदा होते हैं। किताबी मार्क्स-थ्योरी पढ़कर वे सूरदास की रचना नहीं करते थे। वे जीवन की नंगी जमीन पर नंगे पांव चल चुके थे। कोई ग्रंथ प्रेमचंद को क्या पैदा करेगा, जीवन की सच्चाई और यातनाओं से बड़ी पाठशाला और कहां ? और उन्हें समझने की संवेदना! स्थिति बदलने का विवेक। प्रेमचंद में ये सारी बातें थीं। टेबल-कुर्सी और और कॉफी के साथ पान चबाते हुए आलोचक और विदेशी आयातित माल पर निर्भर गरीब; नहीं दलिद्दर मस्तिष्क प्रेमचंद में और क्या ढूंढता! इस लेखक ने हिंदी साहित्य में प्रकाशित अनगिनत आलोचनात्मक पुस्तकों को पढ़-गुन डाला -आज से लगभग 20 साल पहले! और आज तक एक भी आलोचनात्मक पुस्तक ऐसी नहीं मिली जो इस बात का विश्लेषण करती हो कि आखिर एक कहानी या एक अच्छी कविता क्यों और कैसे कलात्मक हो सकती है। इसका विश्लेषण नदारद है।
इस प्रसंग पर विद्वान आलोचक अनंत रूप से मौनव्रती हैं। और चुप हैं।
उनका विश्लेषण का विषय होता है -विषय! रचना का विषय! रचना ’दायरे में है’ रचना ’दायरे में नहीं है’। बस!
बहुत बड़ा अपराध होगा यदि आचार्य रामचंद्र शुक्ल चिंतामणि भाग 1 एवं भाग 2 तथा आलोचक देवराज लिखित आलोचनात्मक पुस्तक का जिक्र न किया जाए। वे सारगर्भित लगीं। यह निजी ख्याल है। आचार्य शुक्ल जी की चिंतामणि तो हर रचना धर्मी को अवश्य पढ़नी चाहिए।
इस प्रसंग को उठाने का यही मकसद था कि साहित्य लेखन किसी पार्टी विशेष का हिमायती हो कर रहे अन्यथा अब तक वे आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास को देखते हुए प्रतीत होता है वह पार्टी विहीन लेखन और लेखक हाशिए का लेखक -लेखन है। और यह आलम है कि किस आधुनिक हिंदी साहित्य समाज का ? उस साहित्यिक समाज का जहां किताबों के पाठक नदारद हैं या हैं तो सिर्फ प्रकाशकों को पता होता है -लेखकों को तो पाठक और रायल्टी दूर की कौड़ी है। चार-आठ पंडे-पुरोहित अपने दो चार चेले-चेलियों को लेकर साहित्यिक मठ की स्थापना किए हुए हैं। वे ही बहुचर्चित हैं। मीनार पर बैठा कौवा खुद को जैसे मुल्ला समझने लगता है। ये वे चुनिंदा मीनार और कोव्वों के घरौंदे हैं। ऐसे कौव्वे अपने नहीं, दूसरों (कोयल) के अंडे सेजने का काम करते हैं। ये बुद्धिजीवी हैं। और अगली क्रांति इन्हीं की कलम से होकर निकलेगी।
क्या कभी इन आधुनिक हिंदी के विद्वानों से पूछा गया है या इनको अक्ल आई है कि इस आधुनिक हिंदी साहित्य की परंपरा, इतिहास अपनी जमीन में खोजें ? नहीं, प्रेमचंद के पहले या बाद रूसी मार्क्सवादी साहित्य ही इनकी वह महा-मीनार है जहां से आगाज और अंत दोनों होता है। इन्हें अपने पुराण, इतिहास या महाकाव्य, जातक कथाएं या हितोपदेश या अन्य अनेक लोककथाएं हजार पावरफुल चश्मा लगाकर भी नहीं दिखती। दूरबीन दिखाओ तो स्टालिन और लेनिन नजर आते हैं। एक महाशय हिंदी के कुख्यात लेखक संपादक हुए, प्रेमचंद परंपरा के धाकड़मैन! इनका काम चूहे की तरह कुतरने में, कुतर्की, महा-कुतर्की होने में हासिल था। वे बस हमारे महाकाव्यों में स्त्री मुक्ति और गुलामी के दस्तावेज ही देख पाते थे। जन-जन के प्रिय राम उन्हें स्त्री विरोधी दिखते। यानी हमारी अथाह परम्परा यदि उन्होंने देखा भी कुतरने और कैंची चलाने के लिए, कुछ सार्थक नहीं, हजारों साल पुराने इतिहास को आज के मार्क्सवादी स्त्री एजेंडा के चश्मे से परखने के लिए। ऐसे बहादुर दुःसाहसी लेखन पर कौन न मर मिटे!
ये सारी बातें कहने का प्रयोजन क्या है ? ये सिर्फ वो रेखाचित्र है जो छोटे से आईने में अपनी सूरत दिखा रहा है कि देखो! यह हम हैं -आधुनिक हिंदी साहित्य! हम हाशिए पर नहीं (पाठक गया भाड़ में -मूर्ख पाठकों को इनकी क्रांतिकारी बुद्धिमता से क्या लेना देना!) हम मुख्यधारा के लोग हैं और हमारी पार्टी है। साहित्य संबंधित हमारी स्पष्ट सोच है। स्पष्ट दिशा-निर्देश हैं। स्पष्ट एजेंडा है। हां, इस एजेंडा में पाठक कहीं भी नहीं!
ये तो हुआ पार्टी के लिए लिखने वालों का इतिहास! क्षमा करें…. यह इतिहास नहीं बस रेखा चित्र है। बहुत ही सीमित लाइनों में चित्रित!
अब जरा इनकी पार्टी का हुलिया भी ले लें। जिनके लिए सादर समर्पित, गुरुजी आशीष, बेटा बख्शीश, चेला नफीस बने बैठे हैं।
इनकी पार्टी ?
गरीबों के लिए…..मजदूरों के लिए…..स्त्रियों के लिए….. आम जनता के लिए…..आवाम के लिए……प्रजातंत्र के लिए….गणतंत्र के लिए……संविधान की आत्मा समानता स्वतंत्रता के लिए….बंधुत्व के लिए….हाशिए पर फेंके गए तमाम सभी लोगों के लिए…..!
अब आप और जोर लगाइए दिमाग में और ढूंढिए कि कौन और कहां हैं ऐसी पार्टी और पार्टी के नेता!
क्षमा करें यहां मार्क्सवाद की भावना या आत्मा को ठेस पहुंचाने की नहीं-पिछले बस्तर पाति के अंक में मार्क्सवाद पर विस्तृत रूप से लिखा जा चुका है। यहां देशी मार्क्सवादियों- मार्क्स के विचार लेकर अपनी जमीन में मैग्नीफाइंग ग्लास से रचनारत रहने वाले लेखकों, संपादकों की बात हो रही है, जिन्होंने हिंदी साहित्य की मुख्यधारा स्वयं को कहते आए हैं। यह एक छोटा आईना है उनका चेहरा देखने दिखलाने वास्ते!
’’पता नहीं हिंदी साहित्य का क्या हाल होता अगर रूसी लेखकों से भारतीय लेखन नहीं जुड़ता तो! भारत में तो कहानी लिखी ही नहीं गयी। ये तो मुंशी प्रेमचंद थे जो मार्क्सवाद से सीख लेकर अपने देश में कहानी की नींव रखी।’’
इस विचार से आप जरूर चौंके होंगे। जी! ये विचार है एक माने हुए शहर के देशी मार्क्सवादी विद्वान का, जिनका हिंदी कथा-कहानी के विषय में ये राय है।
अब इसका उत्तर क्या हो!
उसी तरह आदरणीय गोविंद निहलानी की कृति ’पार्टी’ फिल्म ने सवाल उठाए कि रचनाधर्मियों का स्पष्ट सम्मान पार्टी विशेष के लिए हो। जाहिर है उनका एजेण्डा भी हो।
मार्क्सवाद एक व्यापक सिद्धांत है और समाज-राज्य के बहुतेरे उनके दर्शाये एजेण्डे में फिट हो जाते हैं। पर, क्या लेखन फैक्ट्री का माल है या कला रचना ? कि रिक्शेवाले पर नहीं लिखा, चायवाले को दलित-शोषित नहीं बताया और सेठ जी को जूते से पीटते नहीं चित्रित किया तो वह साहित्य ही नहीं! सत्य की जरा भी परख रखने वाले विचार कर सकते हैं। सत्य की खोज करने वाले वहां ठहर सकते हैं-यह कैसा यथार्थ! सच यही है! आतंकवाद भी एक सच है -क्या किसी आतंकवादी द्वारा किसी मासूम की हत्या करने दर्शाने वाली तस्वीर हम अपने कमरे में सजाना चाहेंगे ? यह भी सच है। यथार्थ है।
सिर्फ विषय छांट कर उन पर लिखना और लिखवाना -निश्चित रूप से यह न सही लेखन है और न ही आदर्श साहित्य का रूप! आप कैसे उन तमाम महान ग्रंथों को दरकिनार कर सकते हैं जो आपके चश्मे से न दिखे! दिखता तो जरूर है मगर उन्हें अनदेखी करने की प्रतिज्ञा आपने ले रखी है। ये है आपका सद््-साहित्य! तो आप के महा-गुरु और महा-चेले कहां हैं ? वे क्या कर रहे हैं ? आपके द्वारा परोसा गया हिंदी साहित्य कितना आवाम द्वारा स्वागत किया जा रहा है, आपको ज्ञात होगा…..सच ये है कि आप रचनाधर्मी हैं ही नहीं, आप रोटी-सेंक पार्टी के मेंबर हैं -बस!
दुनिया का कोई महान ग्रंथ उपयोगी साबित नहीं हो सकता अगर उस महान ग्रंथ के अध्येता आप जैसे होंगे। क्षमा करें -यह अध्येता पर निर्भर करता है कि वह ग्रंथ से क्या और कितना ले। अगर इस विवेक की कमी है तो बंटाधार तो निश्चित! उसी तरह विवेकवान और बुद्धिमान अनुयायी भी चाहे तो अपनी परम्परा और ग्रंथों की माकूल व्याख्या कर समय व स्थान सापेक्ष दिशा-निर्देश प्राप्तकर अच्छी बातें फैला सकते हैं। इतिहास बताता है कि आप्त पुरुष के वचन, हमेशा पथभ्रष्ट लोगों ने भ्रष्ट ही किये हैं।
यहां गोविंद निहलानी के उठाए सवाल को जायज या नाजायज ठहराने का उद्देश्य नहीं है। अगर हम उनकी माने तो सीधा सा एक सवाल आपसे है -वो कौन सी पार्टी है जिसका हम समर्थन करें।
फिलहाल इसी बहाने महान गोविंद निहलानी जी को आभार -इस बहाने चर्चा के लिए। आपकी रचनाधर्मिता और प्रतिबद्धता के लिए! अगर आप किताबी ज्ञान से कैंसरग्रस्त नहीं है तो मनुष्य मूलतः अपने परिवेश व परंपरा से सीखता आया है। मनुष्य स्वयं ही जिज्ञासु व विवेक सम्मत प्राणी होता है -खासकर रचनाधर्मी लोग!
इनकी प्रतिबद्धता क्या है -मनुष्य और सिर्फ मनुष्य! मनुष्य का परिवेश!
इसी को दूसरे अर्थ में हम कहते हैं संवेदनशीलता! पर आप की संवेदनशीलता ? आपके द्वारा बताएं मापदंड से ’कुछ लोग’ निर्धारित ’खल’ होते हैं और ’बहुत लोग’ सहानुभूति के पात्र! उस पर भी आपके लेखन में कलात्मक पक्ष पर जोर दिया जाता है तो आप का एजेंडादोष छिप जाता! मगर आपने मनुष्य नामक जीवंत प्राणी और गतिशील प्राणी को खांचे में बांट दिया। आपने अपनी पार्टी बना ली। वस्तुतः आपकी पार्टी नदारद है मगर आपने अपना हितैषी ढूंढ लिया है। यहां भी कोई दोष नहीं -क्योंकि आपकी दुनिया ही उल्टी है -उद्गम से मुहाने तक नहीं, मुहाने से उद्गम तक की यात्रा यहां होती है। सबसे मजा, आप उन करोड़ों के हितों की वकालत करते हैं उनका साथ आपको कितना मिल पाता है ? क्यों…..?
कभी सोचकर देखिएगा। आपके विचार कॉफी टेबल से कभी निकले भी हैं…। बाहर खुली हवा में….!
और अंत में आप विद्वानों से सिर्फ एक सवाल -आपके अनुसार कला-रचना यदि व्यक्ति और व्यष्टि को मुक्त करने का साधन है तो आपकी संवेदना में यह ’खांचा’ क्यों ? क्या मुक्ति का पाठ सिर्फ चंद लोगों के लिए है ? वे सारे ऐसे साहित्य जो आपके ’खांचे’ से बाहर हैं उन्हें मुख्यधारा का साहित्य कब मानेंगे, लंबी लिस्ट है……थोड़ा चश्मा उतारिए। कॉफी टेबल से बाहर आइए…..। क्योंकि आप स्वयं दलित-दमित कहते-कहते आज हाशिए पर ही हैं। तोहफा कुबूल कीजिए जहांपनाह!
एक रचनाकार किसी ग्रंथ से प्रेरित नहीं है, शायद वह स्वांतः सुखाय के लिए कुछ लिख रहा है। उसने बहुत अच्छी और मानवीय कथा लिखी है। प्रश्न है-
एक व्यक्ति या व्यष्टि क्या है ?
एक अस्तित्व…..(कोई खास ’वादी’ है तो स्वीकार नहीं तो अस्वीकार)
एक मनुष्य……
उसका एक परिवेश…….उसकी भाषा……बोलचाल….
एक निश्चित स्थान और समय
उसकी परम्परा और आज का सच-
सबसे बढ़कर उसके मनुष्य होने की गरिमा….!
क्या हमें उन्हें अस्वीकार कर देना चाहिए क्योंकि वह किसी ’वाद’ से प्रेरित नहीं हैं ?
कला-रचनाधर्म अगर मुक्ति का जरिया है तो संपूर्ण मुक्ति का रास्ता है, अधूरा या एजेंडाबद्ध नहीं! जरूरत सच को सीधा देखने और समझने की है -चश्मा उतारकर…! ‘वाद’ के माध्यम से नहीं!
वैसे भी सच नंगा होता है, सीधी आंखों से देखना सबके वश में नहीं!