तरूण कुमार लाहा की कवितायेँ

स्त्री होने का अहसास-1

भूलना चाहती हूं मैं
अतीत की परछाईयों में छिपे
अपने उजास भरे चेहरे को
जो न जाने
कितने-कितने सपनों को
बांध रखी थी पोटली में।
मेरे तांबई चेहरे के पीछे का सच
जिनके उजियारे से
कभी झुमा करती थी नदी
झुमा करते जंगल
कभी-कभी अनगढ़ सी परछाईयां भी
झुमा करती थी आस-पास।
भूलना चाहती हूं मैं वे दिन
जब काम देने के बहाने
गांव की लड़कियों को
बुलाया करते थे ठीकेदार
अलसुबह उनकी चाल देख
पूरी तरह सिहर उठती थी मैं
खुद के साथ हो गुजरने की आशंकाएं
मेरे उजास भरे चेहरे को
तांबई होने को मजबूर करता।
भूलना चाहती हूं मैं
महिने के वे अंतिम दिन
जब फूट पड़ती हैं स्रोतें
और कपड़े का एक टुकड़ा
लालायित हो उठता है उसे सोखने को।
हाथों में गांडीव लिए
ये भी भूलना चाहती हूं मैं
कि, मेरे अंदर भी उठते हैं ज्वार
जो हर रात कराते हैं मुझे
स्त्री होने का अहसास।
स्त्री होते हुए भी
भूलना नहीं चाहती हूं मैं
रोज उगता सूरज
क्योंकि, उजियारे के फैलते ही
शहरी लोगों की नजरें
रेंगा करती हैं हमारे आस-पास
जो न जाने कौन से पहर
बुन ले हमारे जिस्म पर
मकड़े-सा जाल।

स्त्री होने का अहसास-2

हां वह जरूर आयेंगे
तुम्हारे पास
तुम्हारे स्त्रीत्व की परीक्षा लेने
क्योंकि उन्हें नहीं पता
तुम्हारे भीतर का इतिहास
नहीं पता,
तुम्हारी नसों में भी बह रहे हैं
पृथ्वी के अंदर पाये जाने वाले
लौह तत्व।
हां वह जरूर आयेंगे
तुम्हारे पास
तुम्हे परखने,
वह परखेंगे
तुम्हारे अंदर छिपे
रहस्यमयी आकांक्षाओं को
कैरेटोमीटर से
ताकि समझ पाएं

अंदर छिपी अशुद्वियां
तुम्हे देखकर
तैर उठती होंगी
उनके अंदर वासनाएं
लेकिन,
तुम्हारे स्त्रीत्व की परीक्षा लेने से
नहीं समझ पायेंगे
स्त्री होने का अहसास।

तरूण कुमार लाहा
गांव-बारा
डाकखाना-बारापलासी
जिला-दुमका(संथाल परगना) झारखण्ड-814101
मो.-07250977088

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