लाला जगदलपुरी
अभी दो माह पहले ही मैं लाला जगदलपुरी से उनके निवास पर मिला था। उनका जीवन पूरी तरह एक बिस्तर पर सिमट गया था। बहुत कोशिश के बाद उन्होंने मुझे पहचाना और मैंने उनका कंपकंपाता हुआ हाथ पकड़ लिया। यह उनसे मेरी आखिरी मुलाकात थी। लाला जी का आखिरी साक्षात्कार भी मैंने ही लगभग एक वर्ष पूर्व लिया था और तब दुःखद आश्चर्य यह था कि उन्होंने लिख कर सभी प्रश्नों का उत्तर दिये। विश्वास ही नहीं होता कि लाला जगदलपुरी अब हमारे बीच नहीं रहे। रियासत कालीन बस्तर में राजा भैरमदेव के समय में दुर्ग क्षेत्र से चार परिवार विस्थापित हो कर बस्तर आये थे। इन परिवारों के मुखिया थे – लोकनाथ, बाला प्रसाद, मूरत सिंह और दुर्गा प्रसाद। इन्हीं में से एक परिवार जिसके मुखिया श्री लोकनाथ बैदार थे, वे शासन की कृषि आय-व्यय का हिसाब रखने का कार्य करने लगे। उनके ही पोते के रूप में श्री लाला जगदलपुरी का जन्म जगदलपुर में हुआ था। लाला जी के पिता का साया उनके सिर से उठ गया तथा माँ के ऊपर ही दो छोटे भाईयों व एक बहन के पालन-पोषण का दायित्व आ गया। लाला जी के बचपन की तलाश करने पर जानकारी मिली कि जगदलपुर में बालाजी के मंदिर के निकट बालातरई जलाशय में एक बार लाला जी डूबने लगे थे, यह हमारा सौभाग्य कि बहुत पानी पी चुकने के बाद भी वे बचा लिये गये।
लाला जी का लेखन कर्म 1936 में लगभग सोलह वर्ष की आयु से प्रारम्भ हो गया था। लाला जी मूल रूप से कवि थे। यह उल्लेखनीय है कि लाला जगदलपुरी का बहुत सा कार्य अभी अप्रकाशित है तथा दुर्भाग्यवश कई महत्वपूर्ण कार्य चोरी कर लिये गये। यह 1971 की बात है जब लोक-कथाओं की एक हस्तलिखिल पाण्डुलिपि को अपने अध्ययन कक्ष में ही एक स्टूल पर रख कर लाला जी किसी कार्य से बाहर गये थे कि एक गाय ने सारा अद्भुत लेखन चर लिया था। जो खो गया अफसोस उससे अधिक यह है कि उनका जो उपलब्ध है वह भी हमारी लापरवाही से कहीं खो न जाये, आज भी लाला जगदलपुरी की अनेक पाण्डुलिपियाँ अ-प्रकाशित हैं किंतु हिन्दी जगत इतना ही सहिष्णु व अच्छे साहित्य का प्रकाशनिच्छुक होता तो वास्तविक प्रतिभायें और उनके कार्य ही मुख्यधारा कहलाते।
केवल इतनी ही व्याख्या से लाला जी का व्यक्तित्व विश्लेषित नहीं हो जाता। वे नाटककार एवं रंगकर्मी भी थे। 1939 में जगदलपुर में गठित बाल समाज नाम की नाट्य संस्था का नाम बदल कर 1940 में सत्यविजय थियेट्रिकल सोसाईटी रख दिया गया। इस संस्था द्वारा मंचित लाला जी के प्रमुख नाटक थे-‘पागल’ तथा ’अपनी लाज’। लाला जी नें इस संस्था द्वारा मंचित विभिन्न नाटकों में अभिनय भी किया था। 1949 में सीरासार चौक में सार्वजनिक गणेशोत्सव के तहत लाला जगदलपुरी द्वारा रचित तथा अभिनित नाटक ‘अपनी लाज’ विशेष चर्चित रहा था।
लाला जगदलपुरी से जुड़े हर व्यक्ति के अपने अपने संस्मरण है तथा सभी अविस्मरणीय व प्रेरणास्पद। लाला जगदलपुरी के लिये तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने शासकीय सहायता का प्रावधान किया था जिसे बाद में आजीवन दिये जाने की घोषणा भी की गयी थी। आश्चर्य है कि मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह शासन ने 1998 में यह सहायता बिना किसी पूर्व सूचना के तब बंद करवा दी, जिस दौरान उन्हें इसकी सर्वाधिक आवश्यकता थी। लाला जी ने न तो इस सहायता की याचना की थी न ही इसे बंद किये जाने के बाद किसी तरह का पत्र व्यवहार किया। यह घटना केवल इतना बताती है कि राजनीति अपने साहित्यकारों के प्रति किस तरह असहिष्णु हो सकती है।
लाला जी की सादगी को याद करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार हृषिकेष सुलभ एक घटना का बहुधा जिक्र करते हैं। उन दिनों मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह जगदलपुर आये थे तथा अपने तय कार्यक्रम को अचानक बदलते हुए उन्होंने लाला जगदलपुरी से मिलना निश्चित किया। मुख्यमंत्री की गाड़ियों का काफ़िला डोकरीघाट पारा के लिये मुड़ गया। लाला जी घर में टीन के डिब्बे से लाई निकाल कर खा रहे थे और उन्होंने उसी सादगी से मुख्यमंत्री को भी लाई खिलाई। लाला जी इसी तरह की सादगी की प्रतिमूर्ति थे।
कार्य करने की धुन में वे अविवाहित ही रहे थे। जगदलपुर की पहचान डोकरीनिवास पारा का कवि निवास अब लाला जगदलपुरी के भाई व उनके बच्चों की तरक्की के साथ एक बड़े पक्के मकान में बदल गया है तथापि लाला जी घर के साथ ही लगे एक कक्ष में अत्यधिक सादगी से रह रहे थे। इसी कक्ष में उन्होंने अंतिम स्वांस ली। लाला जगदलपुरी का न होना एक अपूर्णीय क्षति है, उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।
राजीव रंजन प्रसाद
प्रबंधक (पर्यावरण)
कॉलोनी विभाग
इंदिरासागर पावर स्टेशन
नर्मदानगर,
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