लाला जगदलपुरी-संस्मरण-डॉ. सुरेश तिवारी

‘‘जरूर चलूंगा आपका घर है न वहाँ. – लालाजी

लगभग अचानक ही थम गये थे कदम। शाम का समय- रंग और तुलिका जिन सधे हाथों में संगीत वाद्य की तरह थिरकने लगती है, उनके साथ ही शब्दों के अर्थ और भाव के साथ खिलखिलाने वाली विभूति- अद्भुत संगम और संयोग, एक साथ बैठे- मुस्कराते, परस्पर अंतरंगता बांटते, बंशीलाल विश्वकर्मा जी और लाला जगदलपुरी जी। रंग और संस्कृति कक्ष ‘आकृति’ के बाह्य भाग में सुख-दुख की बातें करते, जीवनानुभव सुनाते, राह चलते लोगों का ध्यान बरबस अपनी ओर खींच लेते।
एक क्षण मन में आया कि क्यों इनकी अंतरंगता में बाधा बनूँ। पर ये बावरा मन, इनके साथ दो पल बिताने का लोभ संवरण नहीं कर पाया, अचानक ही कदम थम गये, और जा पहुँचा इनके सामने। चंद लमहे भी नहीं लगे इन्हें अपनी अंतरंगता में मुझे शामिल करने में। बातों ने करवट ली और आगे की चर्चा साहित्यिक रूप में ढलती चली गई। बीती बातें, अतीत की यादें और मैं, मूक श्रोता तरह बहुत कुछ जाना उस दिन उनके अपने बारे में, शहर जगदलपुर की साहित्यिक गतिविधियों के बारे में। लाला जी बड़ी सहजता से अपनी बातें कह रहे थे. बीच-बीच में अपनी काव्य पंक्तियाँ सुनाते जाते कब दो घंटे से भी अधिक समय बीत गया, इसका भान ही नहीं हुआ।
तभी मैने लाला जी से कहा- ‘‘लाला जी, जगदलपुर से बाहर कहीं गये आपको कितना अरसा हो गया?’’
लाला जी- ‘‘पहले हम लोग साहित्यिक गतिविधियों में भाग लेने जाते रहते थे, अब शरीर थक चुका है, शहर की इन विथिकाओं में ही अब देश- विदेश की सैर कर लेता हूँ.’’ और उन्मुक्त ठहाका गूंज उठा।
‘‘लाला जी, चलिये एक दिन तोकापाल रविवार की दोपहरी वहीं गुजारते हैं, आपकी कविता भी सुनने का अवसर मिलेगा।’’
‘‘जरूर चलूंगा आपका घर है न वहाँ चलिये विश्वकर्मा जी घुम कर आ जाएंगे।’’
बंशीलाल विश्वकर्मा जी ने भी अपनी सहमति दे दी. आने वाले रविवार को तोकापाल जाना तय हो गया.
रविवार 12 नवंबर 2006 को जब मैं आकृति पहुँचा तो लाला जी, बंशीलाल विश्वकर्मा जी, सुरेश विश्वकर्मा जी और हिमांशु शेखर झा जी सभाकक्ष में बैठे हुए थे। बड़ी ही नाजुकियत से लाला जी को कार की पिछली सीट पर बिठा कर हम लोग तोकापाल पहुँचे। लाला जी कार से उतरते ही घर के सामने शिवालय देख कर नतमस्तक हो गये और बोल पड़े-‘‘ वाह अति सुंदर’’ मंदिर में विराजमान दिव्य प्रतिमाएँ, नारियल का पेड़, रंग-बिरंगे फूलों से भरी पुष्पवाटिका, कतारबद्ध मोगरा से भरा आँगन देख लाला जी ने कहा-‘‘बहुत सकुन मिला यहाँ आकर’’ घर की बहु के पाँव छूते ही आशीर्वाद की लंबी फेहरिस्त उनके मुख से उच्चारित होती चली गई। आँगन की गुनगुनी धूप में जब वे कुर्सी पर विराजे तो मानों मंदिर के सामने एक और दिव्य प्रतिमा विराजित हो गयी।

 

चाय पीकर लाला जी उठे, वे अपने को रोक नहीं पाए और आँगन के उपवन में घूमने लगे। कभी पत्तियों को छूते, कभी चंदन के युगल वृक्षों को निहारते तो कभी फूलों की महक में खो जाते। आँगन में लगे नारियल, चीकू, करौंदा, काजू, अमरूद, आँवला, आम, चंदन के पेड़, रातरानी, नरगिस, चमेली, गुलाब, मोगरा, सेवंती, डहलिया, पत्तीदार क्रोटंस के पौधों को देख कर मानो उनका मौन संवाद मुखर हो उठा। बीच-बीच में काव्य पंक्तियाँ सुनाते जाते। आग्रह पर तस्वीरें भी खिंचवाते। कब दोपहर हो गयी, समय बीतने का पता ही नहीं चला। हम सब भोजन करने बैठे। सामने परोसी हुई थाली देख कर कहने लगे-‘‘ इतना सारा व्यंजन पर सबको थोड़ा- थोड़ा चखूंगा, तुमने मन से बनाया है ये सब बहु ’’ लाला जी भोजन करते समय तारीफ भी करते और आशीष भी देते जाते। भोजन के बाद फिर आँगन में मोगरा की कतार के पास सब बैठ गये, लाला जी ने कविताओं के साथ अपने अनुभव भी सुनाए। और हम सब मानो इस एक दिन को जीवंत करने में लगे थे। वापसी में आकृति के सामने जब लाला जी कार से उतरे तो उनमें जीवन का नव संचार हो गया था। लाला जी कह उठे ‘‘मजा आ गया, मेरी उम्र के कुछ बरस और बढ़ गये।’’
लाला जी का रचना संसार अद्भुत है, वे लोकमानस के कवि थे, उनकी कविताओं में क्लिष्टता का अभाव है, जो सामान्य पाठकों के लिए भी पठनीय तथा बोधगम्य है। उनकी रचनाओं की इसी सहजता और सरलता ने जटिल विषयों की गूढ़ता को भी आसान कर दिया है। वे आसपास घटित घटनाओं तथा दैनिक उपयोग की वस्तुओं को बिम्ब के रुप में जिस कुशलता के साथ प्रयोग करते हैं, उसका एक बेहतरीन नमूना उनकी कविता ‘‘ कुल्हाड़ी ‘‘ है। एक कवि ने लाला जी की कविताओं को माटी के गीत और चिड़ियों की छंद कहकर एक ही पंक्ति में उनके सारे गुणधर्मो को उजागर कर दिया।
व्यंजना उनकी भाषा की सबसे बड़ी शक्ति रही है, व्यंग्य को हास्य के साथ जोड़ देने पर उसकी धार कुंद हो जाती है किंतु लालाजी उन रचनाकारों में से हैं, जिन्होंने व्यंग और विडम्बना को एक युग्म के रुप में गढ़ा है। वे प्रकृति के प्रति जितने संवेदनशील हैं, विपर्ययग्रस्त समाज और राजनीति के साथ-साथ सामाजिक व्यवस्थाओं पर भी गहरी चोट करने में सफल होते है। आधुनिक जीवन की मूल्यहीनता को सहजता तथा निर्ममता के साथ अनावृत्त करने का दुःशासनी प्रयास भी उनकी रचनाओं को सशक्त स्वरुप प्रदान करती है।
वे मूलतः हिन्दी में अपनी रचना संसार का सृजन करते हैं, लेकिन जनभाषा हल्बी, छत्तीसगढ़ी तथा भतरी की काव्य रचनाएॅ उनके बौद्धिक कुशलता की परिचायक है। पत्रकारिता का सफल प्रयोग भी उन्होंने किया। उनकी रचनाएॅ देश की लब्धप्रतिष्ठ पत्र-पत्रिकाएॅ पांचजन्य, मानवता, कल्याण, कादंबिनी, नोकझोंक, चांद, विश्वमित्र, सन्मार्ग, रंग, ठिठोली, राजस्थान पत्रिका, श्री वेंकेटश्वर समाचार, नई दुनिया, देशबंधु, युगधर्म, स्वदेश, अमृत संदेश, महाकौशल, शिशु, बालसखा, दण्डकारण्य समाचार पत्र में स्थान पाती रही हैं, वहीं उनकी प्रकाशित पुस्तकों में : हल्बी बोली में-हल्बी पंचतंत्र, प्रेमचंद चो बारा कहनी, बुआ चो चिठी मन, रामकथा, बस्तर की लोकोक्तियॉं, हल्बी, भतरी और छत्तीसगढ़ी कविताओं का संग्रह- आंचलिक कविताएॅं, कविता संग्रह
में-मिमियाती जिंदगी, दहाड़ते परिवेश, हम सफर, पड़ाव पॉंच, लोककथा संग्रह में हल्बी लोक कथा, बस्तर की लोक कथाएॅं,वनकुमार और अन्य लोक कथाएॅं, बस्तर की मौखिक कथाएॅं, बाल गीतों में- गीत हमारे, कंठ तुम्हारे, गज़ल संग्रह, बस्तर :इतिहास और संस्कृति, बस्तर :लोक एवं संस्कृति आदि रचनाएॅं प्रकाशित हो चुकी हैं, वहीं अभी भी अनेक पांडुलिपियॉं प्रकाशन की राह देख रही है।
लाला जी के अद्भुत रचना संसार ने कई संस्थाओं को उनका सम्मान करने के लिए प्रेरित किया। लाला जी के प्रमुख सम्मान में धमतरी मंच में ‘ चंदैनी गोंदा ‘ द्वारा सम्मान, म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ जगदलपुर द्वारा सम्मान, अखिल भारतीय बाल साहित्यकारों के साथ कानपुर में सम्मान, छत्तीसगढ़ी भाषा प्रचार समिति रायपुर द्वारा सम्मान, पड़ाव प्रकाशन भोपाल तथा म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ भोपाल द्वारा अक्षर आदित्य सम्मान, बख्शी सृजनपीठ भिलाई द्वारा सम्मान तथा वर्ष 2005 में छत्तीसगढ़ राज्य द्वारा साहित्य का सर्वोच्च सम्मान से लाला जी को सम्मानित किया गया।
सरल, सौम्य व्यक्तित्व के धनी लाला जी बयानबे साल की उम्र तक भी सृजन सक्रियता के आधार पर साहित्य के क्षेत्र में अपना प्रतिमान स्वयं गढ़ते रहे हैं, नई पीढ़ी के लिए लाला जी का जीवन प्रेरणास्रोत है, उनके साधनामय जीवन को देख व्यक्ति स्वयमेव नतमस्तक हो जाता. आखिर लाला जी ने बड़े ही एकाकीपन के साथ 14 अगस्त 2013 को हम सबकी आँखों में आँसू देकर विदाई ले ली। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।


डॉ.सुरेश तिवारी
मेन रोड, तोकापाल
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मो.-09425596784