कालजयी साहित्य सर्जक ‘‘लाला जगदलपुरी’’
किसी भी देश काल में साहित्य सागर की लहरों का उद्दाम स्वरूप भी समसामयिक ज्वारभाटे के साथ प्रकंपित होता है, और रचनायें भी उसी तर्ज पर सामने आती हैं परन्तु कुछ व्यक्तित्व इस प्रकंपन से परे, ‘‘समझ भरोसे बैठकर जग का मुजरा देख’’ की तर्ज पर अपने लेखन व लेखनी में निरत रहते हैं। बस्तर की माटी में रचा बसा रविन्द्र ठाकुर के ‘‘एकला चलो रे’’ गीत को संजोए- लाला जगदलपुरी के अतिरिक्त कोई हो ही नहीं सकता। अकेले चलते हुए भी यह व्यक्तित्व पूरे बस्तर के जंगल, जमीन, जन-जन को लेकर अपने साथ चला जीवन भर।
पता नहीं क्यों उनकी तरफ, हमेशा मैं एक खिंचाव महसूस करता था, ये बात बाद में समझ में आई लाला जी का मेरे परिवार और पिता से अन्तरंग संबंध था। चार दशक से मैं उन्हें देखता था, युवा एवं प्रौढ़ता की वयसंधि के बीच, काले लम्बे बाल, ओजस्वी चेहरा, भाव-प्रवण बड़ी-बड़ी आँखें, वाणी में माधुर्य परन्तु रोबीला सा यह व्यक्तित्व मुझे भयाक्रान्त ही करता रहा। अपने घर में, पिता से, दादी से सुन-सुनकर नेह सा होने लगा कि इस व्यक्तित्व और उसके कृतित्व को टूटे-फूटे शब्दों में अनगढ़ अपरिपक्व शैली में अभिव्यक्त करूँ, नहीं कर पाया तो बस्तर के पुराने प्रवासी लोगों के अपनापन और रिश्तों के साथ अन्याय ही होगा। हम बस्तरिया लोग इन रिश्तों को प्रगाढ़ रक्त संबंध की तरह अटूट बनाने के लिए विशिष्ट विशेषणों के साथ बांधते थे यथा-भोजली, महापरसाद गजामूंग, फूलमीत, मीत, आमाडार, घरबहू जो पीढ़ियों तक चलते हुए उसी प्रगाढ़ता श्रद्धा अपनत्व से निभाए भी जाते रहे। आज यह असंभव सा लगता है। ऐसे ही रिश्तों का बंधन था लालाजी के साथ जो समय के साथ गुम सा गया था। इन्हीं रिश्तों को बांधने जोड़ने का पुर्नप्रयास था, पहली बार हाईवे चैनल 2001 में एक आलेख लिखा ’’लाला जगदलपुरी एक व्यक्तित्व एक कृतित्व’’ उन्होंने पढ़ा, प्रसन्न हुए। लोगों से पूछा कि यह व्यक्ति कौन है, जब लोगों ने मेरे पिता के संदर्भ में बताया कि उनका पुत्र हूँ। 17 तारीख के समाचार पत्र में मेरा आलेख था, उसमें रेखाचित्र बस्तर के प्रख्यात चित्रकार श्री बंशीलाल विश्वकर्मा ने बनाया था, 20 सितंबर की शाम वो मेरे घर के सामने थे। मैंने, उनके चरणस्पर्श किए, अन्दर बुलाकर उन्हें बैठाया। सामने बैठकर एक पत्र देकर, उन्होंने मेरी प्रशंसा की। काफी देर तक बातें होती रही, परन्तु मैं जैसे कहीं और खो गया, लगा सामने मेरे बस्तर के दीधिचि बैठे हैं, जीवन भर घात-प्रतिघात झेलते हुए, आहत होते हुए भी अडिग, दृढ़, विनम्र, व्यक्तित्व बने रहे। उन्हें न कभी मानद् उपाधियों की, न सम्मान की, न ही अलंकरणों ने मोहा। वे तो बस अपनी धुन में चलते रहे। उनके साथ वो पहला सानिध्य मुझे अवाक कर गया था। लगा कि मैं बोलते हुए इन साईक्लोपिड़िया के सामने बैठा हूं, उन्होंने सभी पुराने अपने लोगों की बातों को अत्यंत सजीव शैली में चित्रवत कर दिया। उन पुराने लोगों के नाम गिनाने बैठूं तो, उनका वर्णन शायद अधूरा रह जाएगा है।
एक आश्चर्यजनक बात जो मेरे जेहन में अब भी है कि मेरे पिता एक कलाकार थे उन्होंने अंग्रेजी एवं हिन्दी नाटकों में काम भी किया था। उनके साथ ‘‘कायम सेठ, हाजी सरदार खान, कुंजबिहारी श्रीवास्तव, कलीमुल्ला खान वगैरह भी थे। जब से होश सम्हाला कम से कम तीन लोगों को मैंने जितना जाना कि कला, नाटक से उनका रिश्ता ही नहीं दिखा। बस्तर के क्रान्तिकारी पी.सी.नायडू कप्रान नागोराव नायडू, दुबे परिवार के एक-एक सदस्य गंगाधर दुबे उनकी धर्मपत्नी श्रीमती दुबे जो छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध विद्वान पंडित सुन्दरलाल शर्मा की पुत्री के बारे में सुनता मैं मंत्रमुग्ध सा बैठा रहा। इस घनीभूत संध्या के बाद वो यदाकदा मेरे पास आते थे। घर के सामने से निकलते थे परन्तु मेरे न रहने पर या न दिखने पर इधर देखते ही नहीं थे, इसे उनका सम्मानीय स्वाभिमान ही कहूँगा। उनके निवास पर भी कभी-कभार गया। कमजोर भी हो गए थे, वार्धक्य भार से नमित, खीजे से चिन्तित से लगते थे परन्तु पहचान कर आत्मीयता से स्नेह से ही मिले। उनकी रचनाओं उनकी पुस्तकों के प्रति जिज्ञासा न प्रगट कर घरेलू तर्ज की ही बातें करता, बस फिर क्या जैसे मंदिर के घंटे की घन गंभीर नाद की प्रतिध्वनि की गूंज की तरह संस्मरण ध्वनि गूंज कानों को आप्लावित कर जाते। विदा लेते समय बड़े प्यार से कहते- फिर आईए। कंधे पकड़ कर कहते- फिर आना बेटा। आज ये उद्गार उस मनीषी की थाथी की तरह सेंत रहा हूँ। किसी भी साहित्यिक गोष्ठी में वो बिना किसी तामझाम के उपस्थित हो जाते। यही उनका बडप्पन सादगी का बाना था। जीवन भर के उनके अनुभव, लोगों से आत्मीय संबंधों के बीच सामंजस्य, सन्तुलन, समन्वयन बनाती उनकी गूढ़ अर्न्तदृष्टि ने सबसे जोड़कर भी अलग ही रखा उन्हें। यही विलक्षणता उनकी रचनाओं में प्रतिबिंबित होती रही। बस्तर को उन्होंने खूब जीया, पूरी शिद्दत से जिया।
यह व्यक्ति अपने मूल नाम, परिवार से अलग अस्तित्व बना कर लाला जगदलपुरी बन गया। आज मात्र व्यक्तित्व हमारे बीच नहीं हैं परन्तु कृतित्व का अक्षत विशाल संसार विरासत में छोड़ गया। बस्तर के कण-कण को, उन्होंने अपनी कृतियो में उकेर दिया। उनके लिए एक ही विशेषण है और वो है ‘‘कालजयी साहित्य सर्जक।’’
बी.एन.आर.नायडू
नायडू मेन्शन
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जगदलपुर
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