हिन्दी में छुआछूत
प्रस्तुत अंक कहानी केन्द्रित है। वैसे बस्तर पाति के अंकों में कहानियों पर खुली बहस जारी है। इस अंक में बस्तर पाति कहानी प्रतियोगता में प्राप्त रचनाओं को स्थान दिया जा रहा है, परन्तु कहानी प्रतियोगिता में प्राप्त सभी कहानियां (एकाध अपवाद छोड़ दें।) चिर-परिचित अंदाज में, अपनी प्रचलित शैली में लिखी हमें मिली। यह आश्चर्य नहीं! कारण साफ है- हमारे चारों ओर मुख्यधारा की पत्रिकाएं ‘साहित्यिक’ होने के नाम पर किस तरह ‘खांचे’ में बंधी हैं-यह हम सब जानते हैं। हिन्दी का लेखक चाहते हुए भी इन एजेण्डाबद्ध सोद्देश्यता से परे नहीं जा पाता और हिन्दी का आम पाठक समझता है कि हिन्दी साहित्य बहुत ‘ऊंची’ चीज है, उसकी पहुंच या उसकी समझ वहां तक नहीं। अतः हमारा पहला फर्ज यही बनता है कि लेखक, संपादक, प्रकाशक ऐसा क्या लिखें, क्या छापें कि आम पाठक अपना जीवन, अपना चेहरा हमारी रचनाओं में देख सके। हिन्दी संपादक, लेखक, प्रकाशक के पास ऐसा कोई विचार नहीं कि वह इस महत्ता को समझे कि चार से आठ साल तक के बच्चे, दस से चौदह साल के बच्चों और पंद्रह से पच्चीस-छब्बीस वर्षीय युवा होते पाठकों के लिए क्या और कैसा लिखा-छापा जाये। हमारे साहित्यिक संत यही समझते हैं कि एक बीस वर्षीय युवा सीधे उनके बहुतायत में छापे गये सोद्देश्य, विखण्डन छाप, उत्तर आधुनिक रचना आत्मसात कर ले। विमर्श करे और आगे चलकर वैसा ही लिखे। क्या ये ज्यादती नहीं है ?
हिन्दी के तथाकथित विद्वान संपादक और रचनाकार जो एक्सपोर्ट क्वालिटी की रचना करते हैं-अपने कच्चे माल अमेरिका या लेटिन अमेरिकी देशों से आयात करते हैं इन्होंने कभी भी किसी बाल साहित्य लेखक या बाल पत्रिका के संपादक को अपने करीब बिठाया है। ये तो प्रौढ़ साहित्य की रचना करते हैं-इतने प्रौढ़ कि पढ़नेवाला ही थूकने-खंखारने लग जाता है। उसी तर्ज पर ये हिन्दी में लुगदी साहित्य लिखने वालों, जासूसी और रोमांच कथा लिखने वालों को ये लेखक ही नहीं मानते। जबकि आज भी इनके हजारों पाठक हैं। वे हिन्दी में पढ़ते हैं। चलिए लुगदी साहित्यकारों की बात किनारे कर लें, हिन्दी में ऐसे भी कुछ रचनाकार हुए हैं जिनकी किताबें आज भी खरीदी व पढ़ी जाती हैं-जैसे आचार्य चतुरसेन शास्त्री, भगवतीचरण वर्मा, कुशवाहकांत आदि। ये सभी लोकप्रिय कथाकार हैं जिनकी रचनाएं हिन्दी की मुख्यधारा साहित्य में शामिल नहीं। स्वामी विवेकानंद का युग हमें याद आता है जब हिन्दू धर्म रसोई की चीज बन गया था-हमें मत छूओ, हम मैले हो जायेंगे। आज हिन्दी मुख्यधारा का साहित्य रसोई की वस्तु बन गया है-आप उन्हें छू नहीं सकते।
अमेरिका और यूरोप से कच्चा माल आयात कर माल बनाने वालों को पता नहीं कि वहां जासूसी उपन्यासकारों, सेक्स कथाकारों को मुख्यधारा में न केवल शामिल किया जाता है बल्कि माने हुए विद्वान इनकी रचनाओं में कहानी के प्लॉट, वातावरण, गुत्थी सुलझाने हेतु तर्क शक्ति का प्रयोग तथा कथा लेखन की शक्ति इत्यादि पहलूओं पर वहां गौर भी किया जाता है। सोद्देश्य लिखने वालों और लोकप्रिय लेखन में हमारे यहां जैसा कठोर ‘खांचा’ नहीं बना है, न ही वहां छुआछूत की बीमारी है। इन आयातकों ने उक्त अच्छी बातों को अपने यहां लाने में कैसे चूक गये ? क्या सिर्फ इसलिए कि इनका मठ कहीं हिल न जाये। फिर इनके वर्चस्व का क्या होगा ?
भेदभाव शायद हमारे जीन में ही है-हमारे यहां के पर्दे के कलाकार कितने ऊंचे हैं, हम सभी जानते हैं, जबकि वहां टी.वी. कलाकारों और पर्दे के कलाकारों, उत्पादकों, डायरेक्टरों में आवाजाही लगी रहती है। पश्चिम के बहुत सारे लेखक जो गंभीर साहित्य लिखते हैं-लोकप्रिय साहित्य भी लिखते हैं जिनमें युवा पीढ़ी की समस्याओं यथा प्रेम व सेक्स को अपना विषय बनाया है।
जरा गौर करें-क्या आठ साल तक के बच्चे, सोलह साल तक के नौजवान, छब्बीस-तीस वर्षीय युवा और साठ-साला प्रौढ़ के लिए एक ही किस्म का साहित्य होगा ? बिल्कुल नहीं। तो फिर ये हमारे प्रौढ़ साहित्यकार (एजेण्डा लिखनेवाले, झण्डा ढोंकनेवाले) इस बात को क्यों नहीं समझते-अगर आप युवा या बाल लेखन नहीं कर सकते तो कम से कम इन युवा व बाल लेखकों, संपादकों को अपने करीब तो बैठा ही सकते हैं। मगर नहीं-आप इतने शुद्ध है कि मजाल जा कोई आपको ‘छू’ ले! भाईजान! वह जो आठ-बारह साल का बच्चा है, उसे पढ़ने की आदत लगेगी तो वही अठारह वर्ष का होते-होते रोमांच, रहस्य की कहानियां पढ़ेगा (आपकी सोद्देश्यता का ढोल नहीं बजाएगा) वही छब्बीस-तीस का होते-होते थोडे़ गंभीर सवालों से जूझने की कोशिश करेगा। और अंततः वह हमारा शुद्ध साहित्यिक रसिक होगा। यह तो विकास है। क्या साहित्य की मंझा हुआ पाठक आसमान से टपकता है ? फिर छुआछूत क्यों…..?
हमारे देश में भाषा का लेकर (हिन्दी बनाम अंग्रेजी) बहुत दूरियां हैं-हिन्दी बोलनेवाली पट्टी ही अंग्रेजी की ओर जा चुकी है, और हिन्दी बैकफुट पर -फिर भी हिन्दी रचना पूरी तरह अपने युवा पीढ़ी से कटी है, इसमें संदेह नहीं। हायर स्कल और कालेज और जॉब सीकिंग युवा अंग्रेजी फिक्शन लाखों में पढ़ रहा है। हमने अपनी हार मान ली क्योंकि हम ‘रसोईघर’ से बाहर निकलना ही नहीं चाहते। हम कहते हं हमारे पास ही ‘साहित्य बचा है। बधाई!
क्या हिन्दी प्रकाशन जगत, लेखक युवा पीढ़ी से सीधे नहीं जुड़ें, उनकी समस्या उनकी जुबान में रचनाएं लाएं ? पहली कोशिश तो हमें ही करनी होगी।
और आग्रह मुख्यधारा के सार्हित्यकारों से-आप एक बार गौर करें-क्या भगवती चरण वर्मा कृत ‘चित्रलेखा’ में आपको प्रगतिशील तत्व नहीं दिखाई देते, आचार्य चतुरसेन शास्त्री के बहुतेरे उपन्यासों में हमारा इतिहास सजीव नहीं हो उठा है ? के. कांत के उपन्यासों में उनकी शब्द-शक्ति, शक्तिशाली फेंटेसी और वातावरण क्या पाठकों (विशेषकर युवा-पीढ़ी) को डूबा नहीं लेता ? क्या ये गुण असाहित्यिक हैं ? इनमें कोई लाल या पीला झण्डा नहीं फहराया गया है…?
हम ऐतिहासिक भूल को जितनी जल्दी सुधार सकें तो अपनी भाषा व साहित्य, दोनों का भला हो।
दलित और शोषण-शोषण का नारा लगाते मुख्यधारा साहित्य स्वयं दलित व शोषित व हाशिए पर चला गया है। आज का युवा वैसे भी इंटरनेट में डूबा है-क्या आप उन्हें खींचकर लाना चाहेंगे ? और कैसे ?
लेखकों से
कथा टेकनीक के लिए हमने लोक-कथाओं, अपनी परम्परा से चीजें उठाने अथवा प्रेरित होने की बात हम लगातार करते आयें हैं; हमारे बहुत से पाठक व लेखक भ्रमवश सीधे-सीधे प्रकाशन हेतु लोककथा ही भेज देते हैं। जबकि हमारा आशय होता है कथा टेकनीक के लिए अपनी पतम्परा पर बारीक नजर रखी जाए और वहां से प्रेरणा लेकर आधुनिक कथाएं लिखी जाएं। हमारी लोककथाओं, मिथक और पौराणिक कथाओं में बहुत अच्छे-अच्छे बिम्ब, जादुई यथार्थ, रहस्य व रोमांच हेतु शानदार तकनीक का प्रयोग, नाटकीयता इत्यादि गुण भरे पड़े हैं। ऊपर हमने आचार्य चतुरसेन या कुशवाहाकांत का नाम इसलिए लिया है कि पाठक व नये (पुराने भी ?) रचनाकार सीखें कि गल्प है क्या ? पाठकों को इन लेखकों के उपन्यास में दस-पांच पृष्ठ में ही गहरे उतरने का अहसास होने लगता है। यह किसी भी गल्प की ताकत है। कहानी की -जो ताकत है-अर्थात कथा जानने के लिए पाठक पृष्ठ पलटता जाता है, पुस्तक छोड़ नहीं पाता, उस मूल ताकत का हमने अपने साहित्य से ‘विखण्डित’ कर दिया है हिन्दी में लिखनेवाले युवा रचनाकारों को परेशान होने की बात नहीं, मुख्यधारा के प्रकाशकों, संपादकों की परवाह किए बिना वे नया लिख सकते हैं, सामर्थ्यनुसार अपनी पुस्तक छपवा सकते हैं और नेटवर्किंग के माध्यम से लोगों, स्कूल, कॉलेज तक पहुंचा सकते हैं। आपने अच्छा लिखा है, आपको खुद पर विश्वास है तो आज डिजीटल युग में यह असंभव नहीं। टेकनालॉजी ने हमें चारो ओर से बांध रखा है पर कई ऐसे रास्ते हैं जहां स्वतंत्र बयार का आनंद आप ले सकते हैं। मगर हां आपको व हमें अभी खूब होमवर्क करने हैं। लगातार कोशिश करनी है। हमें पता है यह कठिन है, वैसे भी रास्ता आसान होता तो हम वहीं चल रहे होते, यहां आपके साथ ‘रास्ते की तालाश नहीं कर रहे होते।
एक और बात! आज की कोई भी कथा किसी भी पत्र-पत्रिका की उठाकर देख लें-स्पष्ट हो जाएगा कि लेखक ने सामाजिक मुद्दा अपनी डायरी में नोट किया है और कुछ पात्रों के मार्फत रचना बुनने बैठ गया है। एक बार और….और हो सके तो बार-बार यह कहना समीचिन होगा कि सामाजिक मुद्दे से किसी को क्या परेशानी..? मुद्दा है तरीके पर! एक ढर्रेनुमा लीक पर चलने की परेशानी! अतः मुद्दा नहीं, जीवन उठाईए, जीवन से पात्र खुद-ब-खुद बाहर आ जाएंगे, पात्र घात-प्रतिघात से स्वयं ही अपने जीवंत होने का प्रमाण देंगे। और अंत में, आप थोड़ा टेकनीक, कथा तत्व, रोमांच-आगे क्या हुआ ? का बोध अपने पाठकों का कराते रहें-एक सफल, पठनीय रचना आप लिख सकेंगे।
बस्तर पाति के संपादक मण्डल ने महसूस किया है कि बहुतेरे रचनाकार बड़ी अच्छी रचनाएं लिख सकते हैं-बस थोड़ा सावधान, कठोर संपादन, सतर्कता जरूरी है। और सब से बढ़कर, आप हमारी सोच से इत्तेफाक रखते हों। चिंतन व विचार करने को तैयार हैं। तथ्यों को पकड़ना चाहते हैं और झूठी ‘चर्चा’ स दूर आम पाठकों के करीब जाना चाहते हैं। एक सवाल आप स्वयं से पूछे-क्या आप अपनी रचनाओं के लिए किसी ‘चर्चित’ (?) आलोचक या संपादक की घिसी-पिटी, शब्दों के आडम्बर से भरी टिप्पणी पसंद करना चाहेंगे या पच्चीस-पचास आम कहे जाने वाले पाठक, जो आपकी रचना पर विशेष टिप्पणी तो नहीं कर सकते, मगर बड़े चाव से पढ़ते हैं।
आप क्या पसंद करेंगे ?
मुद्दा बनाम जीवन
ऊपर सामाजिक मुद्दा और जीवन का रेखांकित किया गया है। हमारे समझदार पाठक हमारा आशय समझ गये होंगे। थोड़े विस्तार में-
इसमें कोई दो राय नहीं कि लेखक लिखने के पहले ही अपनी सोद्देश्यता, कथ्य इत्यादि तय कर लेता है। और यहीं सत्यानाश हो जाता है। उसका मस्तिष्क एक फिक्सड प्रोग्राम जैसा संचालित होने लगता है और कथा का निर्वाह एक पैटर्न में समाप्त हो जाता है। मुद्दा तय करना गलत नहीं है, गलत है उस मुद्दे को जीवन से न जोड़ पाने की असफलता! इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि हमने अपने आस-पास से सीधे ‘जीवन’ या ‘घटना’ या ‘कहानी’ उठा ली! लिख दिया! लिखने के बाद लगे कि अरे इसमें वैसा कुछ ‘सोशल मैसेज’ गया ही नहीं, अव्वल तो यह आपकी भूल होगी, जरूरी नहीं कि कथा या जीवन में सबकुछ बहुत ‘लाउड’ हो, ऊंची आवाज में चीखता हुआ। वैसे भारतीयों को चीखना-चिल्लाना बहुत पसंद है। कम की जगह खूब बातें करना जहां संकेतों से काम चल जाए वहां प्रवचन देना। खैर, इसे उदाहरण से समझे-
एक कुंवारी लड़की। एक शादीशुदा दो बच्चों के बाप जो उसका प्राध्यापक है- के प्रेम में फंसी। एक दिन भाग गयी प्रोफेसर के साथ। समाज में तूफान आ गया।
बस, कथा इतनी है। आपने लिखना चाहा है। आपके पास स्त्री विमर्श है। वैधानिक सवाल है। समाज का नजरिया है। व्यक्ति बनाम समाज का मुद्दा है। प्रगति बनाम एंटी-प्रगति का कांसेप्ट हैं कच्ची सामग्री सम्पन्न है-आप कैसे और कितना चाहेंगे ? किस पक्ष में ? किस नजरिये से…? सम्मान के नजरिये से, स्त्री विमर्श के चश्में से, प्रगतिशील तत्वों के दर्पण में झांकने का प्रयास करेंगे, या निजी बनाम सार्वजनिक जीवन के मुद्दे से…?
आप लेखक हैं। रचयिता। अब आपने इनके जीवन को जीवंत तरीके से उठाकर लिख दिया। कथा टेकनीक ऐसी इस्तेमाल की मानों इनका जीवन हमारे समक्ष सजीव हो गया। इसमें सबका दृष्टिकोण है-समाज, परिवार, उस कुंवारी लड़की, प्रोफेसर, प्रोफेसर का परिवार……सभी का। आपने कुशलतापूर्वक आधा अफसाना, आधी हकीकत के तर्ज पर सबकुछ दिखा दिया। अपना आग्रह (अपना झुकाव) किसी एजेण्डा, किसी सोद्देश्यता के चश्में में नहीं घुसाया। आप तटस्थ रहे। पाठक स्वयं विचार कर लेगा। ऐसा आपने सोचा व लिखा। अर्थात कहानी में आपने सीधे ‘जीवन’ उटाया ‘मुद्दा’ नहीं। फिर भी….तमाम मुद्दे तो आ ही गये न…? फर्क सिर्फ इतना कि आपने किसी भी विचार या परम्परा की वकालत नहीं की। चीखा-चिल्लाया नहीं।
हर अच्छी कला में रचयिता स्वयं को पूर्णतः छुपाता है।
क्या आप अपनी अब-तक की लिखी व प्रकाशित रचनाओं का इस एंगल से देखना चाहेंगे ?