कहानी-सनत जैन -धूल

धूल

हलचलों से भरा पूरा, बहती उड़ती आवाजों से भरा, ये ग्रामीण साप्ताहिक हाट, आसपास के अनेक छोटे-बड़े गांवों की आपूर्ति का माध्यम होता है। माचिस, नमक, चायपत्ती, साबुन जो धीरे-धीरे आदिम जीवन में दूध पानी की तरह एक होते गये उनकी आपूर्ति तो यही हाट पूरी करते हैं। वन में होने वाली उपज अनंत है पर वह भी स्थान और वातावरण के अनुरूप अलग -अलग होती है परन्तु कभी भी पूर्ण नहीं होती क्योकि बहती हवाएं अपने साथ अपनी जन्मभूमि की गंध भी ले आती हैं।
पूरे साल के लिए ईश्वर ने इन वनों कें रहवासीयों के लिए काम पैदा कर रखा है। जंगली फलों, कंद मूलों से उफनते ये वन पेट की आग बुझाने के लिए काफी है। ये हाट दोहरी जरूरतों को पूरा करता है एक तो गांव को वह देता है जो इन वनो में पैदा नहीं होता है और बदले में गांव इन बाजारों को वह देता है जो शहरों में नहीं होता है।
गांव और शहर एक दूसरे के पूरक होते हुए भी अविश्वास की डोर और स्वार्थ के जोड़ से जुडे हैं। गांव की आंखें निरीह पशु की तरह भयभीत और शंकीत हैं। समस्त खनिज और उपज से लबरेज होते हुए भी याचक की भांति खडे़ हैं। ये शहर इन गांवों में शेर की भांति ताकते रहते हैं जैसे ही मौका मिला, गप से माल अंदर। जाने कब तक इस यौवन से भरपूर युवती को शादि करने के लिए प्रार्थना करनी होगी।
जगह-जगह बांस की तीन टांगों में तराजू लटके थे। जिनके पास बांस नहीं था तो वो किसी पेड़ की मोटी डाल पर तराजू बांध रखा था। दो किलो से नीचे का बांट ही न था। कुछ बडे़ बांटों की जगह गोल-गोल पत्थर रखे थे।
इमली के सीजन का अंतिम समय था इमली की खटटी-मिठ्ठी गंध वातावरण में फैली थी, दांत वाले इमली के ढेर के पास से गुजरते तो उनके दांतों में एक अजीब सी सनसनाहट पैदा हो जाती।
बाजार अपनी युवावस्था में था, हर तरफ सौदों की ही धमक थी। इधर इमली बेची और उधर थोडी दारू पी। उसके बाद ही जरूरतों का निपटारा किया। गमछा, लुंगी सबसे ज्यादा खरीदा जाता है क्योकि ये बहुउपयोगी वस्त्र होता है। पोंछने, पहनने, ओढ़ने, बिछाने और सामान बांध कर ले पाने के काम आते हैं।
यहां के ग्रामीण बाजार चार हिस्सों में बंटें होते हैं सब्जी-किराना, कपड़ा-मनिहारी, मुर्गा बाजार और मद बाजार। बाजार के केन्द्र में कपड़ा मनिहारी और फिर बाहरी इलाके में मुर्गा बाजार और मद की दुकानें होती हैं। मद बाजार में नमक लालमिर्च के साथ देशी महुआ, चावल की शराब लांदा और सीजन के अनुसार सल्फी आदि की व्यवस्था भी होती है।
बाजार की रेलमपेल के बीच अचानक भगदड़ मच गई। कपड़े वाले अपनी दुकानों में सजाये कपड़ों को खीचतान कर जैसे तैसे गठ्ठा बनाने लगे। किराना वाले सामान अपनी पेटियों में भरने लगे। स्तब्ध वन प्रांत लोगों की भागमभाग से ही जीवित महसूस हो रहा था। हर ओर जल्दी का आलम था कोई रूककर समय नहीं गंवाना चाहता था। आपा धापी मच गई क्योकि व्यापारी और खरीददार दोनों ही हर दिशाओं से आये थे। हर दिशा से हर दिशा आने जाने वालों की टकराहट हो रही थी। महिलायें बच्चे बूढे़ जवान सभी भाग रहे थे। बिकने आई मुर्गियां अपनी रस्सी में बंधी लगातार फड़फड़ा रही थीं। चलने से पैदा हुई धूल से दम घुटता महसूस हो रहा था। इस भागमभाग ने धूल का गुबार पैदा कर दिया था।
किराने की दुकान में खडे दो युवक अपनी जरूरतों का सामान तेल-साबुन, मसाला ले ही रहे थे कि दस पंद्रह लोगों का विद्युत पर सवार हुजूम प्रकट हुआ। हर कोई अपने हाथ में हथियार के रूप में कुछ न कुछ थाम रखा था चाहें वह पतली टहनी ही क्यों न हो। साथ ही देशी मद की गंध से वातावरण गंधा गया जबकि उन सभी के चेहरे सफेद लाल गमछे से ढंके थे। सबसे आगे आगे सैनिक वर्दी वाला अपनी बंदूक से एक हवाई फायर किया जिससे उत्पन्न हुई आवाज के साथ धुंए की एक लकीर और वन प्रांत की निस्तब्धता रह गई।
तेल-साबुन लेते युवको को किराने की दुकान सहित घेर लिया। भयभीत निगाहें स्थिर नहीं हो पा रही थी। शरीर सूखे पत्ते की तरह कांप रहा था। शरीर पर पड़ी सफेद बनियान से साफ नजर आ रहा था कि उनका शरीर पसीने के सागर में डूब गया है। बाजार में मची भगदड़ के बाद कुछ लोग इधर उधर झाड़ पेड़ की आड़ से झांक कर देखने की जुर्रत भी कर रहे थे। उनकी हिम्मत की वास्तव में दाद देनी होगी जो इन सुदूर इलाकों में लाल हवाओं की आंधी में भी जीने के अभ्यस्त हो गये हैं। ऐसी घटनायें उन्हें शहरों में होने वाली छोटी-मोटी मजमाधारी झंझटों की तरह लगने लगी हैं जिससे डर कम मजा ज्यादा आने लगता है।
”क्यों बे माद…..खाकी वर्दी! सफेद बनियान पहन लेने से पहचान नहीं होगी ? साले तुम्हारे मुंह पुलिस का सील ठप्पा लगा है। तुम्हारे शरीर की गंध से ही जान जाते हैं कि तुम साले पुलिस वाले हो।” यह कहने वाला शायद उनका लीडर था उसके हाथ में पुलिस से लूटी गई फोर्टी सेवन थी। अब तक चार लोगों ने मिलकर उन दोनों को पकड़ लिया था और उनके हाथें को मरोड़ रहे थे।
बाजार में बहने वाली हवाओं की उत्सुकता अब शांत हो गई थी, माजरा अब समझ आ गया था। ये खाकी को लाल सलाम था। जंगल में दो निहत्थे जवानों को पंद्रह लोग घेर कर अपनी बहादुरी का प्रदर्शन कर रहे थे। उन जवानों की आंखों में गहराया काला भय साफ-साफ दिख रहा था परन्तु न जाने क्यों उन आंखों का काला भय जंगल के खतरनाक दोपायों को देशभक्ति का ही सबूत दिख रहा था।