अंक-17+18+19 पाठकों की चौपाल

सम्पादक महोदय
आपके द्वारा प्र्रेषित बस्तर पाति पत्रिका का अंक प्राप्त हुआ। बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार। आदिवासी क्षेत्र, संस्कृति एवं साहित्य को समर्पित प्रयास सराहनीय है। निश्चय ही आपकी पत्रिका ने संबंधित रचनाकारों को अपने विचार व्यक्त करने का एक सशक्त मंच प्रदान किया है। आशा है कि रचनाकार अपनी रचनाप्रतिभा एवं सृजन क्षमता से समाज को एक नई दिशा देने में सहायक होंगे जो कि रचनाकार का धर्म भी है। आपने अपने संपादकीय लेख में ’प्रगतिशील’ विषय को लेकर बहुत विस्तार से अपने विचार रखे हैं। विषय है ही बहुत विस्तृत। मैं तो एक सामान्य लेखिका हूं बस सारांश में इतना ही कह सकती हूं कि न तो पुराना सब अच्छा होता है और नया सब बुरा! परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है परन्तु बहते पानी में अपने आप को छोड़ देने की अपेक्षा हममें से प्रत्येक को अपने भीतर झांककर देखने व अपने आप से यह प्रश्न पूछने की आवश्यकता है कि प्रगति के नाम पर हम जो कर रहे हैं क्या वह वास्तविक प्रगति है ?
व्यक्तिगत रूप से विचारों की शुचिता, मानसिक स्वच्छता ही प्रगति का सही आधार हो सकती है। एक परिवार यदि प्रगति के नाम पर, आधुनिकता के नाम पर अपने आपको समस्त संसाधनों से सुसज्जित तो कर लेता है लेकिन घर में दूसरी बेटी के जन्म लेने पर मातम मनाता है। उसे ’निराशा’ नाम देकर पल-पल जीकर मरने के लिए छोड़ देता है तो आप उस परिवार को क्या कहेंगे प्रगतिशील ? प्रभा मेहता, 102 रामदेव बाबा अपार्टमेंट, 349/4 बजाज नगर, नागपुर-440010
आदरणीय प्रभा जी, सादर नमन
धरती पर जो भी पनपता है वह स्वयं ही अपना स्वरूप बदलता जाता है, प्रतिपादित व निर्विवाद सत्य है। पर क्या इतने कम समय में बदल जाता है जितने में इंसान की सोच! प्रकृति परिवर्तन में लगभग स्थायित्व का भी बड़ा महत्व है। जब बहती नदी को कठोर पथरिला मार्ग मिल जाता है तो वह भी वहां सूक्ष्म परिवर्तन ही करती है। ठीक वैसे ही हमारे जीवन में नये को छोड़ कर पुराने को पकड़े रहना, वही स्थायित्व है जो हमारे अनुकूल जीवन के लिए जरूरी है। प्रगति के नाम पर विनाश को ओढ़ लेना पागलपन है। दुनिया में जो अच्छा है उसे पकड़ने की चाहत में विनाश की ओर अग्रसर होते जाते हैं। और अग्रसर होना लाजमी भी है क्योंकि जो अच्छा माना जाता है वो चमकीला है, भड़कीला है और स्वछंद है, तो क्यों भला वो अपनी ओर नहीं खींचेगा।
वर्तमान छद्म प्रगतिशीलता की परिभाषा योजनाबद्ध भारतीय सांस्कृतिक विरासत को विनष्ट करने वाली है। भारतीयता के विरूद्ध दौड़ना प्रगतिशीलता है। हिन्दु संस्कृति के विरूद्ध लिखना, पढ़ना और बोलना प्रगतिशीलता के मायने बना दिये गये हैं। जबकि इस देश में समान रूप से रह रहे अन्य अल्पसंख्यकों को अपनी संस्कृति के संरक्षण के लिए आदम हौव्वा युग में रहने की छूट है। ये कैसा प्रगतिशीलता का पैमाना है ? किसने बनाया है ? कौन पोषित कर रहा है ? एक ओर धर्म के सहारे सुखी जीवन के लिए धर्मविधान बनाये गये हैं लेकिन धर्म के अंतर्गत परिभाषित हैं इसलिए मत मानो चाहे उससे मर ही क्यों न जाओ। अभी एक समाचार पढ़ा कि बच्चों के जन्मदिन पर चाकलेट बांटने पर स्कूलों में प्रतिबंध लगाया जायेगा। उसमें ज्यादातर टिप्पणी करने वाले इस बात का अर्थ ये लगा रहे थे कि ये सब जन्मदिन मनाये जाने वाली संस्कृति पर हमला है। कुछ लोग ईसाई धर्म के विरूद्ध षडयंत्र और हिन्दुधर्म की पक्षधरिता का आरोप लगा रहे थे। क्या ये सही है ? क्या इसी प्रगतिशीलता की आड़ में अपने दांत, शरीर और पेट खराब करना सही है ? ये कैसी प्रगतिशीलता है। स्वप्रेरित नैतिकता का प्रवाह होना सही है या घर के बुजुर्ग को लतियाकर, वृद्धाश्रम में सेवा करना! भारत में प्रगतिशील आंदोलन पश्चिम की नकल था। प्र्रगतिशीलता इस धरती की हमेशा से ही विशेषता रही है। समाज में जैसे ही रूकाव महसूस हुआ, तुरंत ही एक महापुरूष ने सामने आकर सबकुछ संभाल लिया। समाजसुधार स्वचालित प्र्रक्रिया के तहत चलती रही है। आयातित संस्कृति और स्थापित संस्कृति के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा की जा रही है। सिर्फ और सिर्फ ये किया जा रहा है प्रगतिशीलता के स्वयंभू नायकों की स्थापना के लिए।
आखिर इन सब से बचायेगा समाज का प्रबुद्ध पाठक ही। वही है जो अपनी मेघा से इन स्वयंभूओं को मिट्टी चखायेगा।सम्पादक बस्तर पाति
भाई सनत जी,
बस्तर पाति साहित्यिक मूल्यों की एक अच्छी पत्रिका है। व्यवसायिकता की दौड़ में वैचारिक व साहित्यिक मूल्यों की पत्रिका निकालना एक कठिन कार्य है। इन सबके बावजूद आप लोग जिस कर्मठता, समर्पण व मनोयोग से इसे बराबर प्रकाशित कर रहे हैं, इसके लिए जितना भी साधुवाद दिया जाये वह कम है।
मैं पिछले लम्बे अरसे से देश विदेश घूम रहा था, थोड़ी फुरसत होने पर रचनाएं भेजना आरंभ करूंगा। मेरी बहुत इच्छा है कि कुछ दिनों के लिए पूरा बस्तर घूमा जाये। बहुत समय पूर्व मैं जगदलपुर आया था।
राजेन्द्र पटोरिया, पूर्व संपादक-खनन भारती।
आदरणीय पटेरिया जी, नमस्कार,
पत्रिका प्रकाशन वास्तव में बहुत कठिन कार्य है अगर उसे मन से किया जाये। वर्तमान में बहुत सी पत्रिकाएं सिर्फ एजेण्डा लेखन कर ही हैं जबकि वो जानती हैं कि ये गलत है परन्तु सरकारी धन का फायदा उठाने के लिए लगातार किया जा रहा है। जुगाड़ के सम्मान के लिए ये सब किया जा रहा है। पत्रिका हर महिने निकालना है भले ही कुछ भी कचरा परोसते जाओ। समाज की विचारधारा को प्रभावित करने के लिए, समाज कहीं भी जाये, इस बात से उनको क्या करना है।
वर्तमान में हम किसी काव्यगोष्टी में भाग लेते हैं तब जानकारी मिलती है कि बड़े-बड़े नामधारी लोग क्या लिखते हैं और उनके भीतर क्या है। उनका लेखन कितना जमीन से जुड़ा और मौलिक है इस पर कभी ध्यान दिया है। उन नामधारी लेखकों, संपादकों ने किसी भी सामाजिक समस्या में अपना कितना मौलिक चिंतन प्रस्तुत किया है, सिर्फ पुराने लेखकों की लिखी बातों की जुगाली, जरा सा हेर फेर करके अपने नाम से प्रकाशित करने के अलावा क्या किया गया है। जो समस्याएं पुराने समय में थीं और उनका हल पुराने ढंग से था, क्या उनको नये संदर्भों में हल करने का चिंतन है ? जुगालीछाप लेखन और भाषण आजकल सफल लेखक की पहचान घोषित कर दिया गया है। इसे ही साहित्य के संविधान में अपरिवर्तित नियम बना दिया गया है बिल्कुल कश्मीर जैसी समस्या की तरह। चूंकि आम लेखक संसाधनविहिन है, प्रगतिशीलता झंडाबरदारों ने अपने एजेण्डासाहित्य को प्रोत्साहन देने के लिए सिर्फ हिन्दी लेखक के मरने की राह देखना पसंद करता है। फिर उसकी रचनाओं में अपना ’वाद’ ढूंढ कर अपने खेमे में शामिल करना है या नहीं विचार करता है। सम्पादक बस्तर पाति