क्षणिका-डॉ जयसिंह अलवरी

निर्दोष

वह न चोर था
न कातिल
न गुनाहगार
फिर भी उसे
दोषी ठहराया गया
क्योंकि वह दीन
अनपढ़ और भोला था
ओढ़े सत्य-संयम
व सादगी का चोला था।

उपद्रवी

ये जो उपद्रवी
यहां-वहां
उपद्रव मचा रहे हैं।
भटकाने ध्यान
साजिश कोई गहरी
यह रचा रहे हैं।।

भीड़

बदल भेष
खड़े थे जो भीड़ में
लिए तीर-तलवार।
वे भूल रिश्ते-नातों को
तुले थे करने
मानवता को शर्मसार।

घर

ये रिश्ते तो
बन जाते हैं
मगर-
दिलों में घर
यूं ही नहीं बनते।

डॉ जयसिंह अलवरी
सम्पादक साहित्य सरोवर
दिल्ली हाउस, सिरूगुप्पा-583121
जिला-बेल्लारी कर्नाटक
मो.-9886536450