अंक-17-बहस-मार्क्स एवं गांधी बनाम मार्क्सवाद एवं गांधीवाद, 1-परिचय

मार्क्स एवं गांधी
बनाम
मार्क्सवाद एवं गांधीवाद
1-परिचय
हल्की हवा का झोंका आया और पीपल के पत्ते झूम उठे। मई का महीना था, सांझ होने में देरी थी। धुरंधर अहीर अपने गमछे से माथे का पसीना बार-बार पोंछ रहे थे। तभी बीसू कुम्हार उनके निकट अपना आसन जमाए। धुरंधर अहीर ने तेवर दिखाया-’फरके बैठिए। बहुत उमस है। निकस मत आइए।’
बीसू ने अपनी ऐसी मुद्रा बनाई मानो कहना चाहते हों कि- जा रे! उमस तुम्ही को लग रहा है….लगता है बलड बहुते गरम है।
चौपाल में धीरे-धीरे सभी बड़े बुजुर्ग इकट्ठा हो रहे थे। पीपल के विशाल पेड़ की छांव! बड़ा सुकून था। चौपाल से लगा ग्राम-देवी का मंदिर! संध्या पूर्व पंडित जी आकर देवी के पट खोलेंगे।
पितामह आसीन हुए। पास ही रखे घड़े का ठंडे जल से गला तृप्त किया। बीड़ी सुलगाई और फिर हमारी तरफ मुखातिब हुए।
आज पितामह क्या सुनायेंगे हमें! -उत्सुकता सभी के भीतर थी।
पीपल की छांव से परे हमने नीले आकाश की ओर देखा, आकाश पिघलता प्रतीत हुआ। बादलों के निशान नहीं। जमीन तपती। मगर हम सुकून से थे। मंदिर और वृक्ष की कृपा थी।
’’आज हम कुछ आधुनिक कथा सुनाने वाले हैं। आधुनिक सभ्यता की।’’ पितामह बोल रहे थे। जो लोग खुसूर-फुसूर कर रहे थे, पितामह की आवाज सुनकर शांत हो गये।
’’तो हम कह रहे थे कि इस कथा को सबको सुनना और गुनना चाहिए। समझना चाहिए। कुछ बातें ऐसी होती हैं कि बिना समझे कुछ विद्धान हमें उल्लू बनाते रहेंगे। हमारी समझ में कूड़ा ठंसते रहेंगे। इसलिए अच्छा है कि चीजों को हम अपनी आंख से, अपनी दृष्टि से देखना-परखना सीखें। किसी पोथी के चश्मे से नहीं।’’ पितामह रूक गये। बीड़ी का एक जोरदार कश लगाया और फिर शुरू हो गये।
’’यूरोप अंधकार युग से बाहर निकल आया था। मशीनों का आविष्कार धीरे धीरे होने लगा। वाष्प के इंजन, ट्रामें, मोटर गाड़ियां, आधुनिक सुरक्षित जहाज, कपड़ा मिलें, लोहा और इस्पात बनाने की नई तकनीक -चारों ओर कलाकार और वैज्ञानिक मानव जीवन को सुगम और विज्ञान के चमत्कार से लाभान्वित कर देना चाहते थे। मध्ययुग के बाद देखते ही देखते यूरोपिय साहसी लोगों ने समुदी यात्राएं प्रारंभ की। नये-नये देशों की खोज हुई। वहां के संसाधनों की जानकारी हासिल हुई। पेड़-पौधों, जड़ी-बूटियों और मसालों के बारे में ज्ञान प्र्राप्त हुआ। अछूते सोना-चांदी, जंगल-जमीन और तरह-तरह के प्लांट और पौधों ने इन्हें आकर्षित किया। अंगेजों ने हममें चाय के प्रति रूचि जगायी। नील की खेती की। असम के बागानों में चाय की व्यवसायिक खेती की। यहां तक कि अपने लाभ के लिए स्थानीय लोगों को गुलाम तक बनाया। पर ये सब बहुत बाद की तस्वीर है, इस बीच यूरोप में ही कुछ ऐसे विद्वान हुए जिन्होंने मानवीय सोच और लालच के विरूद्ध आर्थिक एवं सामाजिक/राजनीतिक सिद्धांत गढ़े।’’
’’मानव की हवस ने उन्हें कभी न खत्म होने वाले धन कमाने को प्रेरित किया। उनका लाभ मिलों और फैक्ट्रियों में छुपा था। कपड़ा उद्योग में क्रांति आ गयी थी। मशीन के आ जाने से उत्पादन तेजी से हो रहा था। दूसरे, उन मालों को खपाने के लिए लगभग पूरी दुनिया खुली पड़ी थी। शेष विश्व जो इन आविष्कारों से अछूते थे, जहां सीधी-सादी जीवन प्रणाली थी, वहां के भोले-भाले लोगों को बाध्य किया गया, अपना गुलाम बनाया गया। उनसे मनचाहे काम कराये गये। उनकी जमीन पर अपने लाभ के लिए अनाज की जगह व्यवसायिक खेती की गयी जिसका पूरा मुनाफा इन चंद लोगों, कंपनियों के हाथ गया। इस्ट इंडिया कंपनी हमारे देश में यही काम कर रही थी। यही नहीं, इन श्रमिकों के साथ मालिकों का व्यवहार अत्यंत अमानवीय था। यूरोपीय कॉटन मिलों में, स्टील की फैक्ट्रियों में, खनिज क्षेत्र में श्रमिकों, बच्चों, औरतों से अठारह-अठारह घंटे का लिया जाता था। वे फैक्ट्री की धड़कनें थीं, उनके बगैर कारखाना बंद हो जाता मगर इन्हें क्या हासिल होता-बड़े अस्वस्थकर, गंदी श्रमिक बस्ती, रोग-दवाइयों का इंतजाम नहीं, शिक्षा नहीं, खुली हवा नहीं। श्रमिक बीमार पड़ता तो बिना इलाज मारा जाता, बच्चों-बूढ़ों के स्वास्थ की चिंता नहीं। धन भी मासिक उतना ही देते जिससे दो वक्त की रोटी मुश्किल से नसीब होती। इनकी स्थिति गुलामों जैसी थी। बड़ी अमानवीय व्यवहार इनके साथ किये जाते।’’
’’कार्ल मार्क्स जो कि जर्मनी में जन्मा था- उसने बड़ी गहरी दुष्टि इन पर डाली। उसने सारी परिस्थितियों, घटनाओं का बड़ा सूक्ष्म अवलोकन किया। उसने हमारी तरह महज भावुक होकर दुखदायी काव्य की रचना नहीं की, वरन् उससे आगे जाकर उसका चिंतन अपनी परिकल्पना का एक वैज्ञानिक आयाम दिया। उसने बड़े तर्कपूर्ण और तथ्यात्मक तरीके से ये बताया कि कैसे उसकी परिकल्पना एक विज्ञानसम्मत सिद्धांत का रूप ले सकती है। भौतिक द्वंदवाद, बुर्जुवा, प्रॉलितेरियन उसके सिद्धांतों में बार-बार आये। उसकी गहरी व्याख्या मार्क्स द्वारा की गई। मार्क्स ने बताया कि पूंजीवाद से होकर साम्यवाद तक का सफर आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में कुछ सोपानों से होकर गुजरता है। मानवीय संग्रह करने की प्रवृत्ति अनिवार्यतः पूंजीवाद को जन्म देती है, लेकिन पूंजीवाद जो कि भौतिक द्वंदवाद पर आधारित है, बुर्जुवा वर्ग द्वारा संचालित है और प्रॉलितेरियन समाज इनकी जरूरतें पूरी करता है। सारा लाभ बुर्जुवा बनाता है। श्रमिक अपना श्रम बेचता है-उनका घोर शोषण होता है। चूंकि बुर्जुवा का लाभ शोषण आधारित है-वह शोषण से पीछे नहीं हट सकता, श्रमिक मजबूर है, गुलाम है, दयनीय है, इस तरह इस व्यवस्था में एक स्थायी तौर पर भौतिक द्वंदवाद दिखाई देता है। समाज स्पष्ट रूप से इन दो वर्गों में बंटा है। द्वंद अनिवार्य है क्योंकि दोनों के निजी हित सर्वथा भिन्न हैं। एक का हित दूसरे के हित से विरूद्ध है। बुर्जुवा अगर श्रमिक वर्ग का हित करेगा तो अपने लाभ से वंचित होगा। उसे विश्व बाजार में अपने जैसे पूंजीवादियों से पंगा लेना है। इस प्रक्रिया में वह जितना श्रमिकों का हक मारेगा, शोषण करेगा- बाजार में टिक पायेगा। अन्यथा बाजार की क्रूर व्यवस्था स्वयं पूंजीपति का नाश कर देगी, क्योंकि अधिकतम लाभ ही यहां का मूल है। और अधिकतम लाभ माल उत्पादन के घटकों पर निर्भर है। जैसे फैक्ट्री चलाने के लिए कोयला या ईंधन। इस पर पूंजीपति का सीमित अधिकार है, उसी तरह कच्ची सामग्री। कपास हो या गन्ना, या कच्चा लोहा या बाक्साइट। इस पर भी उसका सीमित अधिकार है-मगर वह अनपढ़ श्रमिकों को अपना दास बना सकता है। अठारह घंटे काम ले सकता है, न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी देगा। रहने, खाने जीवन की गुणवत्ता से कोसों दूर!’’
’’मार्क्स ने इसमें निहित सच को अपना वैज्ञानिक सच बनाया और सिद्धांत प्रतिपादित किये। वर्गों के बीच ’टकराव’ (बसें इमजूममद बसें) को अनिवार्य बताया और इस टकराव ये होकर मार्क्सवाद के कई चरणों की व्याख्या की- जिससे होकर एक समाज या विश्व समाज गुजरता है। इसकी व्याख्या आगे की जायेगी, हम यहां कुछ परिभाषित शब्दों की व्याख्या करना चाहेंगे, जैसे बुर्जुवा! ये वो वर्ग है जो सीधा-सीधा समझें तो पूंजीपति हैं या पूंजीपतियों के साथ हैं। इनका हित एक है। जैसे कुछ लोग पूंजी उत्पादन से न भी जुड़ें मगर उनका स्वार्थ पूंजीपतियों के साथ ही एक है-जैसे -सामंतशाही, राजाशाही। ये सभी बुर्जुवा हैं। समाज में प्रॉलेतेरियन’ समूह हैं जो कि श्रमिकों को उपलब्ध कराता है। स्पष्ट है कि बुर्जुवा इन्हीं का शोषण करता है और इन्हीं के शोषण पर इनकी (पूंजीपतियों-बुर्जुवा समाज) की सफलता निर्भर है। अतः भौतिक रूप से द्वंद (बसें) अनिवार्य है।’’
पछिआ हवा का झोंका आया। बयार मंद-मंद बहने लगी। पीपल के पत्ते खड़खड़ाने लगे। माथे से पसीना टपकना बंद हो चुका था। सांझ ढलने को थी। क्षितिज लाल हो चला था। पंछियों का झुण्ड पत्तों के भीतर से अपनी उपस्थिति दर्ज कर चुका था। पुजारी जी मंदिर का पट खोल चुके थे। कुछ महिलाएं आरती की थाल ले देवी के संध्या – जागरण की प्रतीक्षा में खड़ी थीं। हम सब पितामह की बात मगन हो सुन रहे थे। कोई चूं-चां नहीं। पितामह स्वयं ही हमारे मन में उठ रहे सवालों को समझ रहे थे और लगे हाथों समाधान भी किये जा रहे थे। धुरंधर ने पितामह के लिए घड़े का पानी गिलास में भरकर लाया। गला तृप्त कर खैनी घिसे और मुंह में रखे। मौका देख हमारे बीच से कई लोग खैनी ठोंकने लगे, मिरती ने बीड़ी सुलगाई, कोई-कोई तो हुक्का गुड़गुड़ा रहा था।
खैनी थूककर पितामह बोले, ’’अक्सर मार्क्सवाद, समाजवाद, साम्यवाद को एक ही मान लिया जाता है। इस सिद्धांत से जुड़े और भी वाद हैं जो ऐतिहासिक कारणों से इस सिद्धांत के साथ जुड़ते चले गये, जैसे-लेनिनवाद, स्तालिनवाद, माओवाद, नक्सलवाद इत्यादि। जबकि मार्क्स के सिद्धांत को इन ’वादों’ से कोई लेना-देना नहीं था। मार्क्स ने कभी बंदूक उठाने की बात की नहीं थी, ना ही इस तरफ ऐसा कुछ इशारा ही किया। इस पर मैं बाद में स्पष्ट करूंगा फिलहाल तो आप लोग समझ लो कि मार्क्सवाद एक सिद्धांत है जिसके मूल में ऊपर हमने स्पष्ट करने का प्रयास किया है। इस मार्क्सवाद की आदर्श स्थिति है साम्यवाद! जैसा कि मार्क्स ने परिकल्पना की कि मार्क्सवाद के रास्ते होकर समाज ऐसी स्थिति में पहुंचेगा जो आदर्श होगी-वहां कोई राजनीतिक सिस्टम नहीं होगा, बुर्जुवा और श्रमिक वर्ग जैसा वर्ग नहीं होगा, अर्थात समाज वर्गहीन होगा, अर्थव्यवस्था के उत्पादों पर सभी का बराबर हक होगा। ना मेरा ना तेरा। व्यक्तिगत सम्पति की अवधारणा नहीं होगी। सम्पति पर सभी का समान अधिकार होगा-यही ’साम्यवाद’ है जिसकी प्राप्ति मार्क्स के सिद्धांतों के तहत प्राप्त होनी है। पूंजीपति संघर्ष के आगे समाजवाद एक ऐसा पड़ाव है जिससे होकर राज्य व समाज गुजरेगा। साम्यवाद का लक्ष्य अचानक हासिल नहीं होना है-उसके पूर्व समाजवाद का प्लेटफार्म आयेगा जहां जनता, जनता के समूह इकट्ठा होकर उत्पादन-वितरण इत्यादि घटकों को स्वयं नियंत्रित करेंगे। अर्थात वे बुर्जुवा को अपदस्थ करेंगे-सरकारें भी समाजवादी होगी-वह कोआपरेटिव मूवमेंट के साथ होगी, उन्हें संरक्षित करेंगी।’’
’’इस तरह इनमें मूलभूत भेद है जिन्हें समझना आवश्यक है। आज दुनिया में कनाडा, फिनलैण्ड, डेनमार्क, चीन, क्यूबा इत्यादि देशों की राजनीति और समाज इसी साम्यवादी स्टेट (दौर) से गुजर रही है।’’
इतना कह पितामह थोड़ी देर रूके। फिर बोले-’’कहते हैं ऐसी अवधारणा मार्क्स ने अपने मित्र फ्रेडरिक एंगेल के साथ कॉफी टेबल पर विचार-विमर्श के दरम्यान देखें। अपनी कल्पना को दोनों ने मिलकर एक वैज्ञानिक आयाम दिया। 1848 में दोनों के प्रयास से ’’कम्यूनिस्ट मेनिफेस्टो’’ प्रकाशित हुई। ये मार्क्स के सिद्धांत का एक तरह से रोड मैप साबित हुआ। रसियन क्रांति 1917 में घटित हो चुकी थी। वहां मार्क्स के सिद्धांतों को मानने वालों ने जारशाही को उखाड़ फेंका। इसी बीच प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति (1914-1918) हुई। जारशाही द्वारा शोषण में भागीदार मित्र राष्ट्रों की तमाम ’डील’ समाप्त कर दिये, यही नहीं मार्क्सवाद के प्रभाव में रसिया ने मित्र राष्ट्रों द्वारा किये गये गोपनीय करार जिसमें ’लूटपाट’ संबंधित करार था, उजागर कर दिया। मार्क्सवादी रसिया ने पराजित राज्यों से कोई क्षतिपूर्ति नहीं ली। बाद में यू0एस0एस0आर0 के बैनर के तले और विश्व के प्रथम मार्क्सवादी नेता लेनिन के नेतृत्व में सोवियत यूनियन ने खूब तरक्की की। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जिस जारशाही (राजतंत्र) का अंत हुआ और मार्क्सवादी विचारधारा के तहत सोवियत यूनियन अपने आंतरिक और विश्व-व्यवस्था में महत्वपूर्ण दखल रखने लगा। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् (1939-1942) तो पूरे विश्व में सोवियत यूनियन का दबदबा पूरी दुनिया में लहराने लगा। सोवियत यूनियन के वर्चस्व का मतलब चहुंओर मार्क्सवाद की पताका! पचास के दशक में मार्क्सवाद की अफीम इतनी व्यापक और गहरी हो चली थी कि अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश ने अपनी तमाम कोशिशों के बाद भी चीन में मार्क्सवादी सरकार की जीत को रोक न पाया। चीन ने माओ के नेतृत्व में विदेशी गिद्धों से देश को मुक्त कर लिया। यह अलग बात है कि माओ ऐसा करते हुए सत्ता बंदूक की नली से प्राप्त की। संपूर्ण मार्क्सवाद में सत्ता प्राप्ति के लिए इस तरह की मान्यता कहीं नहीं दी है। माओ का लक्ष्य कम्यूनिस्ट सरकार की स्थापना थी, मगर अपनी जमीन की जरूरत के लिए (एक साथ चीन चार-पांच विदेशी कंपनियों /सरकारों के गिरफ्त में था।) माओ ने बंदूक उठाया। प्रसंगवश बता दूं कि उसी से प्रेरित होकर बंगाल के नक्सलबाड़ी क्षेत्र से नक्सल आंदोलन प्रारंभ हुआ। इसे कहते हैं कैसे चावल और दाल पककर खिचड़ी-अचार में तब्दील हो जाता है। मार्क्स ने सिर्फ हमें चावल-दाल के बारे में बताया-मगर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नेताओं के नेतृत्व में वह चावल-दाल कभी पुलाव तो कभी खिचड़ी में तब्दील होता रहा। हमारे देश की भी स्थिति ऐसी ही थी-बल्कि कुछ ज्यादा ही विचित्र!’’
इतना कह ढल चुकी शाम और मंदिर से आरती की गूंज सुन पितामह ठहर गये। अभी भी हल्की रोशनी थी जिसमें हम एक दूसरे का चेहरा देख पा रहे थे। पीपल के पत्तों से पंछियों की चहचहाटें कब का शांत हो चुकी थीं। पछिआ अब भी मंद-मंद बह रहा था। पितामह ने कहा, ’’अच्छा, सज्जनों! कल फिर मिलेंगे।’’ ऐसा कहकर वे उठ गये। हम सब भी अपना आसन छोड़ दिये।
कल पितामह कौन सी कहानी सुनायेंगे, इसी कहानी को आगे ले जायेंगे या और कुछ….! हम सबके मन में जिज्ञासा थी।
अब तो कल की प्रतीक्षा करनी है।