जनता सब समझती है बेवकूफ न समझना

जनता सब समझती है बेवकूफ न समझना

सुबह सुबह आने वाली काम वाली बाई आज काफी देर तक नहीं आई और फिर आई तो उसने बम फोड़ दिया।
’’पलंग पहुंचा कर गये हैं पार्टी वाले।’’ कहते हुए उसके चेहरे पर खुशी टपक नहीं रही थी बल्कि बरस रही थी। और उसकी बात सुनकर मेरी धमनी धमक रही थी। कानों का रंग लाल हो गया था। पार्टी के लोगों का ये कदम मन में टेंशन पैदा कर रहा था। ये क्या बात हुई कि समाज के कुछ लोगों को लालच (उपहार)देकर वोट अपनी ओर खींचा जा रहा है। और वहीं समाज के दूसरे वर्ग को ये लालच (उपहार) नहीं दिया जा रहा है। ऐसा करके ये अपेक्षा रखी जा रही है कि वो वर्ग चुपचाप अपने विवेक का प्रयोग करता रहे हमें क्या मतलब! क्या ये चुनाव में निष्पक्षता है ? गरीब बस्ती में रूपयों, कपड़ों, बर्तनों की बंटाई होती है एन चुनाव के पहले। लालच देकर वोट खरीदे जाते हैं। ये बात हर कोई देखता है और बताता है पर ये बात छिपा जाता है कि समाज के दूसरे वर्ग को क्या मिला ?
नौकरी पेशा वर्ग हड़ताल के माध्यम से अपनी तनखा बढ़वा लेता है। किसानों को बिजली बिल माफी, कर्जा माफी हो जाती है। अन्य वर्ग क्या बेवकूफ है जो बगैर लालच के वोट देगा ? अभी तक चल रहा है पर कब तक ? कब तक ये वर्ग वोट डज्ञलने के एवज में दूसरों को मुफ्त में मिलते उपहार देखेगा और अपनी जेब ढीली करेगा। नौकरीपेशा वर्ग कहता है उनकी एक माह की तनखा टैक्स में कट जाती है। किसान कहता है मैं तुम्हारा पेट भरता हूं। बाकी लोग क्या टैक्स नहीं भरते हैं ? जो ईमानदारी से टैक्स भरते हैं उनके लिये चुनाव उम्मीदवार उपहार क्यों नहीं देते हैं? कब तक ये वर्ग चुनाव को नैतिक जिम्मेदारी समझ कर वोट देता रहेगा। वो क्या खेल नहीं बिगाड़ेगा ?
वर्तमान में हम समाज के सबसे जिम्मेदार व्यक्तित्व डॉक्टर से भी ईमानदारी, नैतिकता और जवाबदेही की उम्मीद नहीं रखते हैं तो फिर इतने बड़े वर्ग से किस तरह ऐसी उम्मीद! अब इस वर्ग को भी चुनाव में कुछ न कुछ चाहिए वरना वह घर में बैठा रहेगा। वैसे भी चुनाव जीत कर कोई भी पार्टी अपने वोट बेच कर सरकार में शामिल हो जाती है वोटर को क्या मिलता है ? अब सभी वोटर को कुछ न कुछ चाहिए। चाहे वह हजार का नोट ही सही। अच्छा एक बात और, कि चुनाव के पहले अपने घोषणापत्र में किये गये वायदे पार्टी के चुनाव खर्च में क्यों शामिल नहीं किये जाते हैं ? आखिर वो वायदे पूरे करके जनता को बरगलाया ही तो जाता है। चुनाव के पहले पैसे देकर या फिर चुनाव के बाद देने का वायदा करके।
आज समाज के वर्ग को वोट बैंक बनाने की कोशिश की जा रही है। अभी तक मुसलमान को गुमराह करके वोट बैंक बना दिया गया है, उनकी जायज नाजायज मांगों को पूरा किया जाता है जबकि ठीक उसी तरह की परिस्थितियों में रहने वाले अन्य जनों को उस से मरहूम रखा जाता है। आरक्षण के माध्यम से एक वोट बैंक बना कर रखा है जो एक मुश्त उसे वोट करता है जो आरक्षण को लोकलुभावन बनाता जाता है। पहले नौकरियों में आरक्षण था जो शिक्षा, हॉस्टल, कपड़े, पुस्तकों, फीस, परीक्षा फीस में छूट, नौकरी के आवेदन में छूट, आने जाने के किराये में छूट से होकर प्रमोशन में आरक्षण तक पहुंच गया है। अब बात चल रही है प्रायवेट सेक्टर में आरक्षण की। यानी वोट बैंक के लिए कुछ भी करेगा।
नौकरीपेशावर्ग एक बड़ा वोट बैंक है। क्षेत्रीय पार्टियों के वोट बैंक हैं जो अपने जातिगत सोच के तहत वोट देते हैं। अब बचता है इनके बीच का बचा वर्ग जो व्यापारी है, मजदूर है, मेहनतकश है, छोटा-मोटा धंधा करके, ठेले लगाने वाला, प्रायवेट संस्थानों में नौकरी करने वाला आदि उनको क्या मिलता है ? उनका वोट बैंक कैसे तैयार हो जिससे कि उनको भी हक मिले धौंस दिखाने का। ये वर्ग क्या हमेशा बेवकूफों की तरह देशभक्त बनकर रहेगा ? अपना टैक्स पटाकर, महंगा सामान खरीद कर देश सेवा करेगा ? वोटबैंक को अपना खून पिलाकर मोटा करेगा ?
इस पर विचार करना अति आवश्यक है। क्योंकि जब तक सोशल मीडिया नहीं था तब तक किसी को ये जानकारी में नहीं था। पर अब तो मिनटों में खबर सब तक पहुंच जाती है। इसलिए प्रत्याशी अपनी समझदारी दिखाए और समाज के सभी वर्ग को अनुग्रहित करे, वरना वो वर्ग उसका बारह बजाने में एक पल भी न लगायेगा। भले ही वह वर्ग खुलेआम वोट बैंक नहीं है परन्तु एक वोट बैंक की ही तरह चुनाव में अपना प्रभाव डालेगा। अगर चुनाव आयोग द्वारा इस पर समयोचित सुधार नहीं किये गये तो ये वर्ग भविष्य में वोट देने ही नहीं जायेगा। क्या करेगा वो वोट देकर, न तो उसे चुनाव के पहले कुछ मिलना है न ही चुनाव के बाद। उसके लिए, उसको केन्द्रित करके कौन योजना बनायेगा, कौन सोचेगा उसके लिए? जब कोई उसके लिए सोचने वाला नहीं होगा तो वो क्यों पागलों की तरह अपना समय वोट देकर खराब करेगा। उसकी नहीं सुनेगा कोई तो वो भी अपनी ताकत दिखायेगा और घर में बैठकर चुनाव को प्रभावित कर देगा। उसके एक साथ बैठ जाने से अच्छे अच्छों का तेल निकल जायेगा।
पर क्या ये देश और समाज के लिए उचित होगा? निजी स्वार्थ देश का बेड़ा गर्क नहीं कर देगा? समाज अराजक स्थिति में नहीं पहुंच जायेगा? इसके उदाहरण मिल ही चुके हैं। वोट बैंक अपनी मांग पूरी करवाने के लिए सरकारी सम्पतियों को नुकसान पहुंचाता है और उससे सरकार डर कर सजा भी नहीं दे पाती है।
इससे बचाव का उपाय क्या हो सकता है कभी विचार किया है आपने? इसके दो तीन उपाय है जो कारगर होंगे। मुझे मालूम है कि जनता तो तैयार है इन कठोर उपायों के लिए पर सत्ता के भूखे सियार ऐसा नहीं करने देंगे। फिर भी एक जिम्मेदारी से सोचता हूं तो पाता हूं कि इन उपायों से निश्चय ही फायदा होगा वरना देश को बेचने के कुत्सित प्रयास किये जा रहे हैं। अपनी कमीशनखोरी के लिए देश जाये भाड़ में जिसको जीना है जिन्दा रहना है वो अपनी खुद सोचेगा। खुद लड़ेगा। देश के कुछ शासकों ने साबित कर दिया कि उनके आत्मविश्वास से बहुत कुछ हो सकता है और जनता उसके लिए अपना सहयोग भी देती है। जैसे बांग्लादेश की स्थापना, देश में खुली अर्थव्यवस्था लाना, नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक, जीएसटी और पेट्रोल की बढ़ी कीमत।
देश की ज्यादातर जनता देशभक्त और जागरूक है पर उसे लगातार मिलता लालच मार्ग से विचलित कर ही देता है। और ये होता इस बात से कि उसके हक को मार कर दूसरे को सहलाया जाता है। ये बात वह सहन नहीं कर सकती। अपना त्याग करने के लिए वह तैयार बैठी है पर उसके त्याग से किसी बेईमान का मोटापा न बढ़े।
चुनाव में जो भी लालच दे और सामान बांटे उसकी उम्मीदवारी तुरंत केंसिल की जाये।
चुनाव प्रचार के लिए स्थान फिक्स हों जिससे अनावश्यक खर्च न हो। यथा पंडाल, कुर्सी, माइक आदि। बाहर से आदमी ला कर भीड़ बढ़ाने वाला रिवाज बंद किया जाय। जिसे आना है वो खुद आयेगा।
झंडा, बेनर, फ्लेक्स, पाम्पलेट सभी बंद हो। और सिर्फ टीवी पर प्रचार हो। वैसे भी जो भीड़ बन कर आते हैं वो इतने बुद्धिमान नहीं होते कि वहां भाषणों से कुछ समझ सकें। भीड़ का फण्डा है सिर्फ लोगों को भीड़ दिखा कर अपना प्रभाव दिखाना।
जो भी पार्टी का घोषणापत्र है उसमें किये वायदों में सबसीडी आधारित वायदा करने की छूट नहीं होनी चाहिए। क्योंकि सबसीडी यानी एक का पेट काट कर दूसरे का भरना होता है और रिश्वतखोरी और दो नंबर के धंधे लिए चोर रास्ता तैयार करना होता है।
घोषणापत्र में किये गये वायदों को किस तरह पूरा किया जायेगा उसकी पूरी योजना होनी चाहिए। जिससे कि पार्टी कोई भी ऐसा वायदा न करे जो भविष्य में जनता पर बोझ बने। क्योंकि सिर्फ सत्ता पाने और रूतबा दिखाने के लिए चुनाव में चुने नहीं जाते हैं बल्कि देश की व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने के लिए चुनाव में चुनाव होता है।
लोक लुभावन वायदो की जमीनी हकीकत बताई जानी चाहिए, कि किस तरह उस योजना को जमीन पर उतारा जायेगा। हवा हवाई योजना से जनता को बेवकूफ बनाकर जीतने का मौका किसी को नहीं मिलना चाहिए।
नेताओं के ऊपर लगे आरोपों की जांच त्वरित गति से होनी चाहिए जिससे कि उनको धीमी जांच के कारण सत्ता सुख मिलता रहे और जीवन के अंत में जेल जाकर बीमारी को आधार बना कर जमानत लेकर आराम से जीयें। और झूठे आरोपों में उनका कैरियर खराब भी न हो।
चुनाव के लिए वोट केन्द्र परमानेंट बना दिये जायें। और वहां नियुक्ति भी परमानेंट हो। क्योंकि रोज किसी न किसी प्रकार के चुनाव होते ही रहते हैं। ऐसी व्यवस्था बनाई जाये जिससे खर्च कम हो।
ये सब करने के लिए जीवट व्यक्तित्व चाहिए जो कि अपने और अपनी पार्टी के फायदे-नुकसान से ज्यादा देश की जनता के लिए योजनाएं बनाये और उसे देश पर दृढ़ता से लागू करे।
किसी भी पार्टी का चुनाव चिन्ह ऐसा न हो जिसे लोग अपने पास रखते ही हों। जैसे घड़ी, झाडू, पेन, साइकिल, हाथ पैर, नमस्ते का चिन्ह आदि। क्योंकि हाथी और कमल को चुनाव आयोग द्वारा ढंक कर छिपाया गया था।
देश में किसी भी भवन, पुल, अस्पताल, आदि का नाम किसी भी महापुरूष पर न रखकर उस नगर, शहर के नाम पर रखा जाये। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाम का दुरूपयोग न हो क्योंकि आजादी के लिए लड़ने वाले लोग पार्टी देखकर नहीं लड़े थे। उन्होंने अपने प्राण देश और जनता के लिए त्यागे थे।
याद रखें कि जनता बेवकूफ नहीं सब समझती है। वो खुद को वोट बैंक बनाना अच्छी तरह से जानती है।