10-रूकावट के लिए खेद है
-भारत में मार्क्सवाद
जैसा कि पूर्व में लिखा जा चुका है कि मार्क्सवाद विश्व के राज्यों में आंकड़ों के हिसाब से सत्ता प्राप्त करने और मार्क्सवादी सिद्धांतों के अनुकूल राज-पाट चलाने के उदाहरण सीमित ही रहे हैं, पर फिर भी इस सिद्धांत की मूल प्रेरणा ने लगभग सारी दुनिया को किसी ना किसी रूप में प्रभावित किया ही। सत्ताएं हिल गईं, अतिवादी विचार से प्रेरित सत्ताएं भयभीत होने लगीं और प्रायः सभी देशों में चाहे कितनी भी दक्षिणपंथी सरकार हो, उनके द्वारा मजदूरों और मालिकों के मद्देनजर, राज्यों द्वारा ’कैपिटल‘ पर नियंत्रण इत्यादि पर प्रभावी कानून बनाए गए। इसका सीधा प्रभाव उन लाखों-करोड़ों पिस रहे मजदूरों और मध्यमजीवी जीवन जी रहे कामगारों के जीवन और रहन-सहन पर सीधा असर पड़ा। यही नहीं महत्वपूर्ण देशों के नेताओं ने मार्क्स की मूल भावना को पकड़ कर अपने देश में उपनिवेशी सत्ताओं से सीधा संघर्ष किया, देश को आर्थिक दोहन से मुक्त कर आजाद देश का निर्माण किया। चीन जैसा देश जोकि चार-पांच विदेशी संस्थाओं के अधीन था अपने देश को आजाद कराने के लिए माओ के नेतृत्व में बंदूक और मजदूरों, बेबसों को एकत्रित करने हेतु मार्क्स के दर्शन का सहारा लिया। अलग-अलग देशों ने अपने-अपने देशों में मार्क्स के सिद्धांत का अपनी जमीन के अनुकूल, एक तरह से सिद्धांतों का अनुवाद प्रस्तुत किया। आज मार्क्सवाद सोवियत रसिया के पतन के बाद भी चीन, क्यूबा, वियतनाम, रसिया उत्तरी कोरिया में मिश्रित अर्थव्यवस्था के रूप में मौजूद है। अर्थात यहां के पूंजीपति बेलगाम नहीं हैं -जरूरी और आधारभूत चीजें सरकार के सीधे नियंत्रण में हैं। पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों का शोषण न हो -वहां प्रभावी श्रम कानून बने हैं। अत्यंत विकसित देश जैसे नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क में भी मिश्रित अर्थव्यवस्था सुंदर रूप से संचालित है। डेनमार्क का दूध उत्पादन तो कोऑपरेटिव मेथड का सुंदर उदाहरण है। इसके अतिरिक्त अल्जीरिया, अंगोला, वियतनाम, बांग्लादेश, गियाना, भारत, मोजाम्बिक, पुर्तगाल, श्रीलंका, तंजानिया ऐसे देश हैं जहां के संविधान डेमोक्रेटिक चुनाव को प्रभावी रूप से अख्तियार कर अपनी राज सत्ता को समाजवादी स्टेट घोषित करते हैं। कानून द्वारा श्रमिक कामगारों के हित सीधे तौर पर राज्य की निगरानी में रखे गए हैं। यह मार्क्सवादी सोच का ही परिणाम है कि विकसित राष्ट्र जैसे आयरलैंड, फ्रांस, ग्रेट-ब्रिटेन, न्यूजीलैंड, बेल्जियम, नीदरलैंड जैसे देशों की सत्ता एक मजबूत समाजवादी सोच से प्रेरित व संचालित है। सरकारें उनके हितों को ध्यान में रखकर ही कानून बनाने को बाध्य है। इस बात को आमजन और प्रबुद्ध जनों को स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि भले ही किसी राज्य-राष्ट्र में मार्क्सवादी सोच के प्रतिनिधि कम संख्या में हों -गणित कमजोर हो मगर मार्क्सवादी सिद्धांत का जोर या उसकी सच्चाई इतनी प्रबल है कि सरकारें चाहे जिसका प्रतिनिधित्व करती हों, मार्क्सवाद के मूल भाव से अधिक विचलन नहीं कर सकतीं। आज कोई भी कर्मचारी या पुलिस का सिपाही 8 घंटे से अधिक ड्यूटी के लिए जाने पर आपत्ति उठा सकता है। बात बहुत छोटी सी लगती है -मगर इसी बात ने कभी क्रांति का रूप ले लिया था -यही मार्क्सवाद की पूरे विश्व को देन है। यह सिर्फ एक उदाहरण है। सीधे सत्तासीन होने के आंकड़े निश्चित रूप से सीमित हैं मगर -प्रभाव का पैमाना ? शायद हम ठीक से माप ही नहीं सकते।
अब हम थोड़ा अपने देश के बारे में चर्चा करें।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद जब मार्क्सवाद पूरी दुनिया में चर्चा का विषय था और विश्व के प्रायः सभी प्रबुद्ध लोग, नेता, कलाकार और लेखक किसी न किसी रूप से इस वाद से प्रेरित हो रहे थे। सोवियत रसिया लेनिन के नेतृत्व में बड़ी तेजी से प्रगति कर रहा था। सबसे अहम बात थी -राजनीतिक लक्ष्य की प्राप्ति -साम्यवाद जिसकी चर्चा की जा चुकी है -अर्थात ऐसा राज्य जहां सभी की भागीदारी हो या ऐसी सत्ता जो अपने पीपुल/ पब्लिक पर नाम मात्र या शून्य शासन करती है। आर्थिक समानता द्वारा सामाजिक समानता प्राप्त कर ऐसा समाज अपने लिए एक आदर्श स्टेट की ओर अग्रसर होता है- स्पष्ट था कि उस दौर के यूरोपीय देश इटली, जर्मनी, ग्रेट-ब्रिटेन, पुर्तगाल इत्यादि जो विश्व के अर्द्धविकसित देश एशिया, अफ्रीका के देशों पर बेजा कब्जा जमाए हुए थे -उन्हें तत्काल आजाद करना मार्क्सवादी सिद्धांत के अनुरूप था। प्रथम विश्व युद्ध की विजय के पश्चात मित्र राष्ट्रों के बीच हुई डील को सोवियत रसिया ने न केवल उजागर कर दिया, बल्कि उनके व्यापारिक हित (लूट की नीति) को दुनिया के सामने लाकर पूंजीवादी लूटनीति को उजागर किया। इस लूटनीति और इसी स्वार्थ के कारण विश्व युद्ध झेल रही सरकार और औपनिवेशिक आवाम, मार्क्सवाद में अपनी मुक्ति देखने लगी। शोषण में पिस रही जनता को अपना मसीहा मिल गया था। मार्क्सवाद अफीम की तरह प्रभावी हो रहा था। भारत से एम. एन. रॉय जैसे प्रबुद्ध सन 1920 में भारत की दशा को लेकर लेनिन से वार्तालाप किया। मार्क्सवादी विचार को किस तरह अपने समाज में लाया जाए -उसका व्यवहारिक अनुवाद किया जाए -यह बड़ी समस्या थी। यह समस्या सिर्फ अपने ही देश में नहीं थी -विश्व के अधिकांश देशों के साथ कमो-बेश यह समस्या आयी कि मार्क्स के मूल दर्शन को किस तरह अपनी जमीन में प्रतिस्थापित (ट्रांसप्लांट) किया जाए। चूंकि मार्क्स का मूल विचार और औद्योगिक नगरों और वहां कामगारों पर हो रहे अन्याय के मद्देनजर एक वैज्ञानिक सोच के तहत तैयार किया गया था -अतः हू-ब-हू या करीबी आर्थिक-सामाजिक स्थिति एक समान विश्व के देशों में नहीं थी जहां मार्क्स के विचार उसी दिए पैमाने पर अधिरोपित किए जाएं।
भारत के प्रबुद्धजनों के समक्ष यह चुनौती थी कि हमारा समाज जो जाति-प्रथा से बुरी तरह ग्रसित था -समाज टुकड़ों में बंटा था -उन्हें एक किया जाए या मार्क्स के विचार को शक्ति केंद्रित कर देश को आजाद किया जाए। क्योंकि मार्क्स के मूलभूत सिद्धांत को देखे तो इसकी जो भौतिक द्वंदवाद की स्थिति है -अर्थात आमजन और पूंजीपति -जिसका इंटरेस्ट हर हाल में अलग-अलग रहता है, देखा जाए तो तब गुलाम भारत न ही एक विकसित पूंजीवादी राष्ट्र था न ही इसके आमजन अर्थात समाज के दलित, शोषण की शिकार पब्लिक एक थी। एक इसलिए नहीं थे क्योंकि समाज जाति में बंटी थी। अर्थ की बुनियाद उद्योग तो लगभग था ही नहीं, कृषि पर जीवन यापन हो रहा था। देश व समाज पिछड़ी अवस्था में था ऐसे में क्या बुर्जुआ, क्या प्रॉलेटेरियन और क्या पूंजीपति। हमारे समाज की सच्चाई सद्गति, ठाकुर का कुआं, कफन और गोदान में व्यक्त हो रही थी।
निश्चित रूप से हमारे यहां की स्थिति जिसे कहते हैं ’कोढ़ में खाज’ वाली थी -अर्थात एक तो जाति में छुआछूत से ग्रसित समाज, गुलाम भारत और दूसरे गरीबी, अशिक्षा! समाज को मार्क्सवाद के विचार किस तरह सौंपे जाए कि अपनी बुराई भूलकर समानता के सिद्धांत अख्तियार कर एक नई आर्थिक-राजनीतिक पहल करें।
फिलहाल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में जैसा कि हम देखते हैं कि असहयोग आंदोलन के बाद गांधीजी के विचार डगमगाने लगे -कांग्रेस के भीतर ही ’लेफ्ट विंग’ अपने विचारों के कारण लोगों के बीच लोकप्रिय होने लगा। सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह इत्यादि के उदाहरण हमारे सामने हैं। स्वयं जवाहरलाल नेहरू जो गांधी जी को अत्यंत प्रिय थे -मार्क्सवादी विचार से बहुत प्रेरित रहे हैं -और जैसा कि आगे हम देखेंगे -अपनी मिश्रित अर्थव्यवस्था में नेहरू ने मार्क्सवादी मॉडल का किस तरह आधुनिक भारत के निर्माण में योगदान दिया। दूसरी ओर इसी सिद्धांत से प्रेरित हो भगत सिंह, राजगुरु, और सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों की मिसाल हम देखते हैं। वे सब साम्यवाद से ही अभिप्रेरित रहे थे। हम सब ने देखा है कि इस ’लेफ्ट विंग’ की बढ़ती लोकप्रियता और गांधी जी द्वारा खुलकर विरोध के कारण स्वयं गांधी जी की छवि कांग्रेस के भीतर हिल गई थी -तब सुभाष ने कांग्रेस छोड़ ‘फारवर्ड ब्लॉक’ की स्थापना की। यह बात द्वितीय विश्व युद्ध के समय की है।
प्रसंग आया है इसलिए लगे हाथों गांधी दर्शन और मार्क्सवादी चिंतन में जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और कांग्रेस के इतिहास में जो संघर्ष देखते हैं -उस पर थोड़ी टीका कर ली जाए। आखिर गांधी द्वारा लेफ्ट विंग अर्थात खासकर क्रांतिकारी कहे जाने वाले कदम का विरोध क्यों किया जाता था। गांधी द्वारा सफल आंदोलन जैसे सविनय अवज्ञा आंदोलन 1919 से प्रारंभ हुआ था -चौरा-चौरी कांड के बाद गांधी द्वारा वापस लिया गया। उसी तरह भारत छोड़ो आंदोलन जब प्रतीत होता था आंदोलन अपना लक्ष्य हासिल कर लेगा -ऐन वक्त पर गांधी द्वारा ठगा-सा राजनीतिक समझौता कर आंदोलन रोक देना तथाकथित कई नेताओं को, विद्वानों को नागवार क्यों गुजरा ? और गांधी की सोच क्या थी ? आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया ?