अंक-17-बहस-9-उम्मीद एक नये उजाले की

9-उम्मीद एक नये उजाले की

हम जिस प्रकाश के फैलने से आनंदित हैं -वह प्रकाश चाहे लैंप से आ रहा है या बल्ब की रोशनी से -तकनीक दोनों जगह है। वही तकनीक मानव वरदान है, जो आज अभिशाप कैसे बन सकता है ? जाहिर है चीजों के दोनों पहलू होते हैं और वह अंततः हम पर निर्भर करता है।
हम आम लोगों से बल्ब के आविष्कार की उम्मीद नहीं कर सकते, उनसे सॉफ्टवेयर क्रांति की आस नहीं लगा सकते, मगर हां, उनमें अभिशाप या वरदान में भेद का कौशल हो, सूझ-बूझ हो -इसकी उम्मीद ही नहीं -आवश्यकता भी महसूस करते हैं।
किसी भी अतिवादी दृष्टिकोण का हमारे जीवन, समाज या इस विश्व परिदृश्य में कोई स्थान नहीं! पूंजी लाभ अतिक्रमण करता है। इसके अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा बेलगाम है। सभी राह देख रहे हैं कि कोई तो रोके ?
कौन रोके ? नया गांधी ? नया स्टालिन, या नया समाजवाद ? बुद्ध या महावीर, जैन या शंकर……? हमें कितने विचार और सिद्धांत चाहिए ? जीवन के सीधे से फलसफे को समझने के लिए ?
क्या गांधी हममें नहीं…..?
क्या मार्क्स के सिद्धांत और समभाव हममें नहीं है….?
क्या शंकर, महावीर और बुद्व हममें नहीं……?
वर्षा ऋतु जोरों पर है, आकाश के बादल हटना ही नहीं चाहते। धरती चहुंओर गीली हो चली है। छज्जे से टपकती जल की बूंदें अब किसी रोदन का एहसास दिलाने लगी हैं। सूरज के दर्शन बीते जमाने की बात हो गई है -सितारे तो दूर चांद की झलक भी नहीं मिलती।
पर हमें पूरी आशा है -हम प्रकृति को समझ चुके हैं और यह जानते हैं कि बादल छंट जाएंगे।
हमें उम्मीद है।
अब मुझे छज्जे से टपकती बूंदों में गांधी, मार्क्स, शंकर, बुद्ध, महावीर सभी दिखने लगे। आशा ने हमारी उम्मीदें जगा दी।
कोई बात या विचार मृत नहीं हुआ, ना ही अप्रसांगिक, वे जीवित हैं।
वह सब हम में जीवित हैं…….।
सवाल है -क्या हम अपने जीवन से न्याय कर पाएंगे ? हम एक ऐसा जीवन मूल्य स्थापित कर पाएंगे जिससे सबका हित सधे ?
हमारी लड़ाई कोई मसीहा क्यों लड़ें ? वह हमारे हिस्से की लड़ाई है।
लगातार जलसंचय से हमारे खेत लबालब हो चले हैं -पानी का सही निस्तारण जरूरी है। एक हाथ में छाता दूसरे हाथ में फावड़ा…….
हम चले खेत की ओर………!
कुछ पुराने बीजों को फिर से रोपना था…….
मार्क्स, गांधी……नेहरू और उन तमाम स्वप्नदर्शियों के ब्रीड……..!