आत्मविश्वास
सुबह-सुबह मैं दरवाजे पर बैठा ब्रश कर रहा था। तभी एक लड़की मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी। गोरा रंग, आकर्षक चेहरा, युवा उम्र। उसकी देह के कपड़े फटे-पुराने थे। मुझे अपनी ओर ताकती देख कर वह अभिवादन के लिये अपने हाथ उठा दी। उसके अभिवादन का उत्तर देकर मैंने अपना ब्रश मुंह से बाहर निकाल लिया। लड़की मेरे निकट आकर बोली, ‘‘मैं काम की तलाश में हूं। क्या आप इसमें मेरी कोई मदद कर सकते हैं ?’’
खुद बेरोजगार था। उसकी बात सुन कर मैं हतप्रभ हो गया। मैंने स्पष्ट कह दिया, ‘‘मैं तुम्हारी सहायता करने में सक्षम नहीं हूंं।’’ किससे कहता फिरूंगा कि एक जवान और सुंदर मगर फटेहाल लड़की को काम दिला दीजिये।
‘‘आप ही वह व्यक्ति हैं, जो मेरी सहायता कर सकते हैं।’’ उसने आत्मविश्वासपूर्वक कहा। उसका आत्मविश्वास देख कर मैं उसके बारे में सोचने पर मजबूर हो गया। मगर बहुत सोचने के बाद भी मुझे उसके काम की कोई व्यवस्था नज़र नहीं आ रही थी। मैंने पूछा, ‘‘मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूं ?’’
‘‘आप आसपास के लोगों को जानते होंगे, मेरे रहने की कहीं तत्कालिक व्यवस्था करवा दें।’’ ब्रश करने के बाद मैं अंदर अपने रूम में गया तो वह भी मेरे पीछे-पीछे आकर कुर्सी पर बैठ गयी। काफी देर तक वह मुझसे बात करती रही। इस बीच मैंने नाश्ता किया तो उसे भी नाश्ता कराया। उसका आत्मविश्वास भरा मधुर स्वर मुझे उसके बारे में सोचने के लिये प्रेरित किये जा रहा था। मैं अपने पास-पड़ोस के परिवारों में उसके लिये बात करने भी गया। मगर कहीं बात नहीं बन पायी। दोपहर होने पर मैं भोजन की व्यवस्था में लग गया। मेरे काम में मदद के लिये वह भी रसोई में आ गयी। शाम को मैं दो-तीन जगह और उसे लेकर गया। मगर कोई उसे रखने के लिये तैयार नहीं हुआ। मुझे विश्वास हो गया कि यदि इसे अपने घर में तत्काल रख लूं तो शीघ्र ही यह कोई न कोई अपनी व्यवस्था कर लेगी। उसके क्षणिक संगत ने ही मुझे इतना प्रभावित कर दिया तो भविष्य में इसकी प्रेरणा मेरे लिये अवश्य प्रभावशाली साबित हो सकती थी। मैं सोचने लगा कि उसे तत्कालिक रूप से अपने यहां रहने दूं या नहीं!
अपने यहां उसे रखने की बात सोचते ही मेरे मन में तरह-तरह के प्रश्न हिचकोले मारने लगे। उसे मेरे साथ रहते देख कर लोग क्या कहेंगे ? साथियों का व्यंग्य सुनना ही पड़ेगा, पता चलने पर घर वालों से भी डांट पड़ेगी. सभी अर्थ का अनर्थ लगायेंगे और मुझे शंकित मन से देखेंगे। लेकिन मैंने सोच लिया कि तत्काल उसे अपने यहां रख कर मैं उसकी सहायता करूंगा। मैं उसके बारे में सोच ही रहा था कि उसकी खनकती हुई आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘बड़े भाई !’’ मैं अभी क्या-क्या सोचता कि उसने मुझे टोक दिया, ‘‘लगता है, मेरे कारण आप उलझन में पड़ गये हैं।’’
‘‘नहीं, नहीं! ऐसी बात नहीं है।’’ मैंने कहा, ‘‘तुम्हें यहां रखने में
मुझे कोई आपत्ति नहीं है। इसमें मुझे कोई उलझन भी नहीं है। तुम्हारे काम की जब तक कोई व्यवस्था नहीं हो जाती है, तुम मेरे यहां रह सकती हो।’’ इस तरह उसे मुझे अपने यहां ठहराना पड़ा। वह मेरे यहां रहने लगी। शाम बीत चुकी थी। मैं बाजार से उसके लिये कुछ कपड़े ला दिया। उसने स्वेच्छा से चौका-बरतन और रसोई का काम अपने जिम्मे ले लिया।
सुबह नाश्ता करके मैं काम खोजने चला जाता था। कोई नौकरी नहीं मिलने तक मैं प्रूफ देखने का काम कर रहा था। घर में देखा हुआ प्रूफ सुबह प्रेस में देकर फिर अपने काम के चक्कर में इस-उस कार्यालय घूमता रहता था। उसके आ जाने के कारण खाना बनाने की मेरी चिंता खत्म हो गयी थी। प्रूफ रीडिंग के लिये मुझे अधिक समय मिलने लगा। इससे मेरी आमदनी बढ़ गयी।
दिन में जब मैं घर से बाहर रहता तो वह टेबुल पर रखी मेरी किताबें पढ़ा करती थी। वह एक मिनट का भी अपना समय बेकार नहीं करती थी। मैंने उसे भी प्रूफ रीडिंग सिखला दिया। वह बहुत लगन से अपना काम करने लगी। प्रूफ रीडिंग के काम में जल्द ही वह दक्ष हो गयी। कुछ दिनों के बाद वह मेरे साथ प्रेस भी जाने लगी। बाद में वह अकेले ही प्रेस जाने और प्रूफ रीडिंग का काम लाने लगी।
कम समय में वह बहुत प्रगति कर ली थी। मैं प्रूफ रीडिंग का काम केवल रात में करता था, मगर वह दिन-रात उसी में लगी रहती थी। इसलिये उसकी मासिक आय मुझसे भी अधिक हाने लगी। कुछ ही दिनों में उसे एक प्रेस में मैनेजर का काम मिल गया। सुबह 9 बजे से शाम 6 बजे तक उसकी ड्यूटि प्रेस में रहती थी। बाकी समय में वह अतिरिक्त काम भी कर लिया करती थी। इससे उसे अच्छी आमदनी हो जाती थी। वह अब आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो गयी थी।
रविवार का दिन था। खाने के बाद वह एक पत्रिका पढ़ रही थी। मैं भी पास में ही बैठा हुआ था। कितने दिनों से कौंधते सवालों को उस दिन मैंने मस्तिष्क से निकाल देना चाहा। उससे पूछा, ‘‘यहां आने से पहले तुम कहां रहती थी ?’’ पहले भी मैं उसके बारे में जानने का प्रयास कर चुका था। मगर वह हमेशा मेरी बात को टाल गयी थी।
‘‘अपने घर।’’ कह कर वह मुस्कुरा दी.
‘‘यह तो मैं समझ गया कि तुम अपने घर में रहती थी. सभी अपने घर में रहते हैं। मैं पूछ रहा हूं कि तुम्हारे साथ घर में और कौन-कौन रहते थे ?’’
‘‘मैं कौन थी, कहां से आयी थी, क्या करती थी, आदि बातों में मुझे अब कोई रुचि नहीं है। मैं कौन हूं, कहां रहती हूं और क्या करती हूं – इसमें मुझे ज्यादा विश्वास है।’’ उसने इत्मीनान से कहा, ‘‘लेकिन आप बार-बार मेरे बारे में जानने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिये आपको बता ही देती हूं, ताकि यह नहीं लगे कि आपने किसी अजनबी को घर में शरण दे दी है।’’ उसने आगे बताया,
‘‘यहां से कुछ दूर एक गांव में मैं अपने अध्यापक पिता के साथ रहती थी। बचपन में ही मैं अपनी मां से हाथ धो बैठी थी। पिता ने ही मां का भी प्यार दिया। वे मुझे अपने साथ स्कूल ले जाते थे। घर पर भी घंटों पढ़ाते रहते थे। समय के हर टुकड़े का सदुपयोग करने की पिताजी ने जो सीख मुझे दी, वह आज भी मेरी आदत है। गरीबों को क्या चाहिये ? दो जून की रोटी। वह हमें मिल रही थी। इसलिये हम अपनी गरीबी में भी खुश थे।
‘‘जब मैं सयानी हो गयी तो पिताजी को मेरी शादी की चिंता हुई। वेतन के रुपये से घर-खर्ची में ही कठिनाई होती थी। पिताजी ने ट्यूशन करके मेरी शादी के लिये रुपये जमा करना शुरू किया। मगर गांव में ट्यूशन की दर बहुत कम थी।
‘‘मेरी शादी की बात करने पिताजी कई जगह जा चुके थे। लेकिन अध्यापक की लड़की समझ कर रिश्ता के लिये कोई तैयार नहीं होता था। यदि कोई लड़का वाला शादी के लिये तैयार भी होता था तो लड़के के गुणों की चर्चा करने के बाद उसकी कीमत से अवगत करा दिया जाता था। लड़के की कीमत इतनी अधिक होती थी कि पिताजी उसके यहां दुबारे जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे। वर्षों तक यह सिलसिला चलता रहा।
‘‘संयोग से पिताजी के ही एक पुराने छात्र, जो मेरे सहपाठी भी रह चुके थे, मुझसे शादी करने के लिये तैयार हो गये। वे मेरे गुणों प्रभावित थे और इसीलिये वे मेरा कद्र करते थे। इसी कारण पिताजी के कहने पर वे शादी के लिये तैयार हो गये थे। विद्यालय में लेख, वाद-विवाद, संगीत, चित्रकला आदि होने वाली अनेक प्रतियोगिताओं में हम दोनों में प्रतिस्पर्धा रहती थी। उनके पिताजी नहीं थे। इसलिये अपनी शादी की बात वे स्वयं कर रहे थे। शायद इसी कारण शादी की बात पट गयी थी और हमारी शादी हो गयी……..।’’
‘‘क्या ? तुम्हारी शादी हो चुकी है ?’’ उसकी सूनी मांग की ओर निहारते हुए मैंने यह प्रश्न किया था।
‘‘हां, मेरी मांग सूनी है।’’ उसने निःसंकोच होकर कहा, ‘‘इस सूनी मांग के बारे में ही तो मैं बता रही हूं।’’
‘‘शादी के बाद बारात विदा हुई और मैं उनके साथ अपनी ससुराल पहुंच गयी। वहां मैं एक कोठरी में दिन भर अकेली बैठी रही। उनकी प्रतीक्षा में मेरी आंखें पथरा गयी थीं। घर में कहीं कोई नहीं था। कुछ रात बीतने पर मुझे किसी ने बतलाया कि आज क्या, जिंदगी में अब उनसे कभी मुलाकात नहीं होगी। उनकी……..।’’
‘‘उन्हें क्या हो गया था ?’’ उसकी जिंदगी की दर्दनाक कहानी सुन कर मैं आश्चर्यचकित रह गया।
‘‘मुझे बाद में पता चला कि उन्हें किसी ने ज़हर दे दिया था। फिर यह भी पता चला कि ज़हर देने वाला कोई बाहरी आदमी नहीं था। बल्कि उनके चाचा ही थे। पैतृक संपत्ति हड़पने के लिये उन्होंने ऐसा किया था।’’
‘‘छीः-छीः!’’ मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘‘ऐसा शर्मनाक काम ?’’
‘‘हां, धन-दौलत की भूख जब जोर पकड़ती है तो वह हत्या पर उतारू हो जाती है।’’ दर्द भरी आवाज में उसने आगे बताया, ‘‘मैं अपनी ससुराल में रहना उचित नहीं समझी। दूसरे दिन ही वहां से चल पड़ी। पिताजी आर्थिक तंगी के शिकार थे ही, मेरी शादी में वे कर्जदार भी हो गये थे। इसलिये ससुराल से निकलने के बाद मैं अपने पिताजी के पास नहीं गयी। बस, सीधे शहर आ गयी, इसी शहर में। यहां आने पर कुछ दिनों तक भटकने के बाद आपसे भेंट हो गयी और आपने सहारा देकर अपने पैरों पर खड़ा होने का मुझे अवसर प्रदान किया। आप सचमुच महान हैं।’’
उसकी बात सुन कर मेरी आंखें डबडबा गयीं. मगर बात खत्म करने के बाद नारी हृदय की कोमलता उसके चेहरे से दूर हो गयी और उसकी जगह पूर्ववत् दृढ़ता व्याप्त हो गयी। उसने कहा, ‘‘काफी समय बीत चुका है। अब हम लोगों को नाश्ता करके अपने-अपने काम में लग जाना चाहिये।’’ वह जल्दी-जल्दी नाश्ता परोसने लगी।
अंकुश्री
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