अंक-17-बहस-6-आज का सच ?

6-आज का सच ?

आज पांचवा दिन है, पितामह को हम लोग सुन रहे थे -’’किसी सिद्धांत या वाद के गुण दोषों की व्याख्या या विश्लेषण करना हमारा उद्देश्य नहीं। ये तो सिर्फ मील के पत्थर की तरह होते हैं जिसके सहारे हमारी सभ्यता -संस्कृति की यात्रा संपन्न होती है। यह रोड-मैप हैं। हम कब और कहां किस दिशा में मुडें़। किसी ’वाद’ या सिद्धांत ने हमारी संस्कृति को किस दिशा में मोड़ा, कैसी दशा दी ? सवाल यह भी है कि क्या वही यात्रा हमें फिर से दोहरानी है, क्या कल का सच हमारा आज का भी सच होने वाला है ? और वही ’वाद’ वही सिद्धांत हमारा संबल बनने वाला है ?’’
’’जीवन, प्रकृति कभी कार्बन-कापी या फोटो कॉपी नहीं होते। इनके ’रिसायकल’ होने का तरीका भी इनका अपना होता है। इसलिए हमने आज के सच को समझने का प्रयास किया है कि क्या जिस वाद पर बातें हो रही हैं वो हमारे किस काम की है ? इसका प्रयोजन आज के संदर्भ में ?’’
’’बड़ी फैक्टरियां लगभग बंद हैं। दुनिया से लेबर यूनियन भी एक दृष्टि में समाप्त प्राय है -तो क्या साम्यवाद का प्रयोजन समाप्त ?’’
’’दुनिया से चरखा आज म्यूजियमों में भी देखने को शायद मिले तो क्या गांधीवाद का कोई अर्थ नहीं ?’’
’’क्या दुनिया की राजनीति और अर्थनीति से पूंजीवाद का प्रकोप समाप्त हो गया कि समाजवाद की अवधारणा की जरूरत ही नहीं ?’’
’’क्या दुनिया और जीवन में नवीन समस्याएं आनी बंद हो गई कि सिद्धांतों/वादों और जीवन से जूझने के नये विचार पर विचार किया जाना हम बंद कर दें ? हम पीछे मुड़कर उन सीढ़ियों, उन पगडंडियों के मूल्य का आंकलन नहीं करें जिसके सहारे हमारी सभ्यता-संस्कृति आज इस मुकाम तक पहुंची है ?’’
’’इन अनेक सवालों को सिर्फ एक सवाल में समेटा जाए तो वह यही है कि चुनौती है। चुनौतियों का चेहरा बदला है। वह एक ही है मगर बहुरुपिए की तरह है। वह एक ही है- चंद लोगों का लालच! मानव हवस! वह हमसे दूर नहीं। कि हम चंद कारपोरेटों को गाली देकर अपनी भड़ास उतार फेंके। जी नहीं, वही हवस हममें में भी कहीं ना कहीं है -मौका लगते ही हम ही हैं जो चरखा छोड़ देते हैं, जंगल काट देते हैं, लाभ के लिए मिट्टी -पानी को प्रदूषित करते हैं। और सारी शिकायतें किसी ’वाद’ या सिद्धांतकार पर डालते हैं। झूठ की अद्भुत सच्चाई है। सच की सच्चाई का तो पता नहीं, पर असत् अजीबोगरीब तरीके से अपने आप को सिद्ध कर रहा है। सच की सीढ़ी कमजोर और एकाकी-सा है। असत्य की रेलिंग-पेलिंग देखिए….! देखते बनता है!’’
’’पर्यावरण के असंतुलन के बारे में न ही मार्क्स ने न ही गांधी ने सोचा था -पर उनकी सोच में इस धरती का कल्याण छिपा है। विकेंद्रीकरण साधनों का -दोनों ही चाहते हैं। जब धन का, स्रोतों का विकेंद्रीकरण हो जाएगा तो ज्यादा संभव है एक समकलन बिंदु स्वयमेव समाज/परिवेश में स्थापित हो जाएगा। पर, यह संतुष्टि स्तर, आदर्श स्थिति या समकलन बिंदु किसी पूंजीवादी सोच में नहीं आ सकती। यह ऐसा सच है जो सौ दफा झूठा होने पर भी सभी सच पर भारी है। यह है विडंबना…..! चंद इकाइयां चंद कंपनियां दुनिया लूट रही हैं। प्रकृति का निरंकुश दोहन कर रही हैं। और हम उनके अनुगामी बने हुए हैं। उनका पीछा कर रहे हैं। यही है विकास का रास्ता! वे सत्ताएं बदलते हैं -वे सत्ता से मनचाहे काम करवाते हैं और सबसे बढ़कर वे मानव सभ्यता को विकसित कर रहे हैं। मनुष्य को नई-नई ऊंचाइयों दी जा रही हैं।’’
’’सच और सच के विरूप में अंतर नहीं ?’’
’’चरखा भी सच है, पुराने कॉटन मिल भी सच हैं और अत्याधुनिक मिलें भी, जहां सिंथेटिक्स तैयार किए जाते हैं।’’
’’पर, क्या यह तीनां सच एक जैसे हैं ?’’
’’गन्ने की खेती कर गन्ने से खजुर-गुड़ बनाना, शक्कर निर्माण करना या आधुनिक मिलों से कार्बन युक्त शर्करा पैदा करना -क्या यह तीनों समान हैं ?’’
‘‘प्रश्न से प्रश्न निकलते हैं और जवाब ढूंढो तो सिर्फ एक ही मिलता है -मानव लालच! हवस!’’
’’और जो सबसे दूषित समूह है -मानव, वह एक मूक दृष्टा है। एक ऐसा गवाह जो चुपचाप उपभोक्ता बने स्वयं को देख रहा है। जीवन भोग रहा है। सच तो ये है कि उसे झूठ-सच की परख ही नहीं। लाचार है।’’
’’आम लोगों की लाचारी -जो किसी मसीहा के इंतजार में बैठे होते हैं -पूर्णतः दोषमुक्त नहीं कर सकते। इन्हीं आम लोगों में से कुछ खास लोग निकलते हैं और फिर अपनी सीढ़ी या उन पगडंडियों को भूल जाते हैं जिन पर वे कभी चले थे। पर, यह समस्या किसी एक समूह व्यक्ति या व्यष्टि कि नहीं है, यह कहानी संपूर्ण मानव समाज की है। संस्कृति का यही इतिहास रहा है। अंधकार से घिरा या अंधकार से जूझता!’’
’’कोई वाद क्यों बना ? कोई मसीहा क्यों पैदा हुआ ? मानव जीवन को दिशा देने के लिए और इतिहास गवाह है इतिहास में कई ऐसे दौर आए मगर वे सब समय सापेक्ष सिद्ध हुए। हमने ही फिर उनके मूल भाव, मूल स्वरूप को भुला दिया उनकी जरूरत ही नहीं पड़ी, वे आउटडेटेड हो गए!’’
’’पर, मानव जीवन की चुनौतियां कभी खत्म नहीं हुई। मेरा सच अंतिम सत्य जैसा प्रतीत होता है। वह आज भी है, कल भी था!’’
पितामह ठहरे!
माहौल में सन्नाटा था। यह अलग किस्म का सन्नाटा था -शायद बौद्धिक सन्नाटा!
कुछ पल ऐसे होते हैं जब हमें ठीक-ठीक नहीं सूझता। हम किस रास्ते जाएं!
चरखा ?
मजदूर यूनियन ?
कोल्ड स्टोरेज ? धन और हाड-मांस सभी…..!
सॉफ्टवेयर क्रांति ?
माओवादी/ नक्सलवादी क्रांति ?