अंक-17-बहस-18-गांधी और मार्क्स : एक नजर

18-गांधी और मार्क्स : एक नजर

यूं तो इस लेख के पहले लफ्ज से अब तक गांधी और मार्क्स को ही समझने की कोशिश होती रही है। फिर भी लगता है बहुत कुछ छूट रहा है और सही भी है -यहां बहुत कुछ छूटता ही रहेगा। ऐसे पाठ कभी पूर्ण नहीं होंगे। होते भी नहीं। मानव सभ्यता-संस्कृति को अपने गुरुओं से, अपनी अच्छी-अच्छी परंपराओं की मीमांसा करते हुए आगे की रोशनी बनते रहने का प्रयास ही सार्थक है। जब हम अपने महाकाव्य को लाल धागे से या कपड़े में लपेट कर उस पर अगरबत्ती-दिया जला कर ’पूजा’ करने लगते हैं तो अवश्य ही हम अंधकार के कुएं में डूबे होते हैं। वह कुआं संस्कृति का सूख जाता है और मानवता प्रेत-पिशाचों में तब्दील हो जाती है। इतिहास और गौरवपूर्ण संस्कृति नारे लगा कर ’विजयी भाव’ लहराने का नहीं, उनसे सीख कर आगे बढ़ने का नाम है आधुनिकता। प्रगति। सच्ची प्रगति।
आधुनिकता या प्रगति आंख मूंदकर किसी का हगुआ-पदुआ बनने का नाम भी नहीं कि वहां का माल उठा कर लाए और यहां रोप दिए। और आधुनिक जेंटलमैन बन गए।
इस लेख को लिखने का मकसद इतिहास बताना या घटना का जिक्र करना कतई नहीं। वे पहले से बहुत तादात में मौजूद हैं। बस, यह जरूरी समझा गया और बहुत जरूरी समझा गया तब जबकि इन दोनों को व्यर्थ समझा जाने लगा। प्रतीत होता है यही समय है जब आवाम और प्रबुद्ध पाठक इन्हें समझे। विचारे। फिर से विचारें। और विचार करते रहें। आज की ही भीड़ से, इस आम से कल कोई खास होगा। आज ही कोई युवा इनसे सीख कर इनके मूल्यों का धारण कर कल देश और विश्व की रोशनी बनेगा। लौ तो वही है, बस उसे जलाए रखना जरूरी है। लौ से लौ जले तो इससे बेहतर क्या!
एक और स्पष्टीकरण जरूरी लगता है। वैसे स्पष्टीकरण देना प्रतीत होता है मानो अपराध हुआ है। और हमारे आकाओं को शंका है और वे आपसे रूखे से प्रश्न पूछ रहे हैं।
सही है -ऐसे आका एक नहीं हजार मिलेंगे, दूर नहीं मा….जात पास मिलेंगे।
हां तो माननीय…………स्पष्टीकरण यह है कि -इन दो महामानवों की तुलना इसे न समझा जाए। वे दोनों अपनी-अपनी धुरी पर स्थित हैं। तुलना करना वैसे भी बड़ा घटियापा काम है। गुलाब और बेली की तुलना, तुलसी और नीम की तुलना। आम और अमरूद की तुलना! आम, आम है, बेली, बेली है।
दोनों की अपनी विशेषताएं हैं जिन्हें जानना दिलचस्प हो सकता है।
सबसे पहले मशीन को लेकर। आप मशीन की जगह तकनीक, उद्योग शब्द भी लिख सकते हैं।
जैसा कि पूर्व में लिखा जा चुका है कि गांधीजी मशीन को लेकर सशंकित रहते थे। जबकि मशीन के आविष्कार को मानवता का वरदान समझते थे। मगर कब ? कब ऐसे आविष्कार वरदान थे और कब शंका के दायरे में ?
ऐसी मशीन जो मानवीय श्रम के भार को कम करे वह वरदान। ऐसी मशीन जो मानव को ही (श्रम को) भार बना दे वह वरदान कैसे हो सकती है ? पुनः ऐसी मशीन किसी को (मालिक, पूंजीपति, उद्योगपति) लक्ष्मीपति बना दे और करोड़ों श्रीहीन! बेरोजगार! -यह किस काम का….!
इसलिए गांधीजी मशीनों को लेकर बहुत गंभीर और सतर्क दृष्टि रखते थे। आविष्कार तो होते रहेंगे -उन्हें हमारी जरूरत कितनी और कब होनी चाहिए -इस पर आलोचनात्मक दृष्टि आवश्यक है।
मार्क्स के सिद्धांत मशीनों के अपव्यवहार और मनुष्य को रोबोट की तरह मशीनों के लिए जोते जाने के उपरांत -उनकी विवशता, दरिद्रता, अमानवीयता इत्यादि दृश्य देखने के बाद उनकी खूब सामाजिक-आर्थिक समीक्षा कर सिद्धांत के रूप में प्रतिपादित की गई। जिसका उद्देश्य था पूंजी का केंद्रीकरण न हो। ठीक यही चिंता गांधी जी की भी थी। मार्क्स ने सिद्धांत बनाए। उन्होंने समाज-अर्थ में ’द्वंदवाद’ की स्थिति मान्य किया और बराबरी का लक्ष्य प्राप्त करने के मार्ग बताए।
यह अलग बात है कि जो मार्ग उन्होंने बताए उन रास्तों पर चलने के लिए एक नैतिक मनुष्य की आवश्यकता थी। और नैतिक मनुष्य था -गांधी!
नैतिक मानव के अभाव में सिद्धांत ज्यादा दिन चल नहीं पाया और राजनीतिक-आर्थिक जमीन पर फेल हो गया। या फेल कर दिया गया। क्योंकि जिस रोबोटों (कामगारों-गरीबों) को मनुष्य का दर्जा यह सिद्धांत देता था, वह मनुष्य होने की सुविधाएं तो प्राप्त किए, मगर मूल्य हासिल नहीं कर पाए। इसके लिए मार्क्सवादी निंदक मार्क्स को ही दोषी ठहराते हैं कि मार्क्स ने मनुष्य को ’साइको ह्यूमेन’ नहीं समझा, अर्थात वह लालची-कपटी, स्वार्थी हो सकता है -कामगार से पूंजीपति बनने की चाह रख सकता है -ऐसा नहीं सोचा। अर्थात मार्क्स की थ्योरी में मनुष्य के ’लालच’ को भी मान्य करना चाहिए था ?
ऐसे आलोचक कौन सी कड़क चाय पीकर विचार पेलते हैं ?
गांधी और मार्क्स दोनों अपनी-अपनी जरूरत और जमीन से उत्पन्न हुए थे। मानव की आजादी, समानता इनका प्रश्न था। पर, दोनों ही देश-काल की सीमाओं के परे थे। मार्क्स के सिद्धांत में जो वर्ग-संघर्ष का चरित्र दिखता है वह तो उनके आदर्शवादी राज्य की स्थापना का मात्र एक फेज है। यह प्रक्रिया है। इससे गुजर जाना है, ठहरना नहीं। मार्क्स का अंतिम लक्ष्य तो राज्य विहीन सत्ता है जहां समानता इस स्थिति में मौजूद है जैसे कबीलाई साम्यवाद! यह आदर्श राज्य है। शायद गांधी जी का रामराज्य! आलोचकों का यह भी कहना है कि गांधी जी को मार्क्स की तरह ’वर्ग-चरित्र’ या ’वर्ग-संघर्ष’ नहीं दिखता था।
दिखता था। खूब दिखता था। हमने इसी लेख में अहमदाबाद के मिल मालिक के साथ समझौता और संघर्ष देखा है। और, यह उस वक्त की बात है (1917-18) जब गांधी जी कांग्रेस के नेतृत्व में कूदे भी नहीं थे। चंपारण का किसान आंदोलन याद कीजिए।
बहुत वास्तविक कारण हैं और करीब है कि गांधी जी जो जमींदारों, व्यापारियों, पूंजीपतियों के प्राप्त सहयोग और स्वतंत्रता आंदोलन में उनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए तथा कांग्रेस कमजोर न हो -गांधी जी को अपना फोकस ’ब्रिटिश-राज’ पर रखना पड़ा हो। पर, जैसा कि हम देखते हैं कि जैसे-जैसे स्वतंत्रता आंदोलन आगे बढ़ता चला जाता है -वामपंथी विचार कांग्रेस के अंदर फैलता है -गांधी जी निहित स्वार्थ को समझने लगते हैं। और इसलिए स्वयं गांधी जी इस बात से सहमत होते हैं कि बुनियादी ढांचागत मशीनरी, प्लांट सीधे-सीधे सरकारी हस्तक्षेप में रहे। अर्थात पब्लिक सेक्टर के अंतर्गत!
गांधीजी का निजी अनुभव, अपमान, तिरस्कार, असमानता -जो भी उन्हें मिला हो -टॉल्सटॉय के आदर्श या वैष्णव संस्कार -उनका निजत्व सार्वजनिक होता है। अर्थात गांधी व्यक्ति होकर भी व्यष्टि नहीं, समष्टि बन जाते हैं। यह एक सच्चे मानव का महामानव बनने तक की प्रक्रिया है। उनकी प्रयोगशाला उनके भीतर से, निजत्व से प्रारंभ होती है और पूरी दुनिया (आवाम) तक फैलती है। एक व्यक्ति की परिभाषा क्या हो सकती है ?
वैष्णव….., बैरिस्टर….., बापू……., राष्ट्रपिता……, टॉल्सटॉय के प्रशंसक……, कबीर के चितेरे….., सत्य…. न्याय के वाहक…..? दृढ़ प्रतिज्ञ ? जिद्दी ?
उसी तरह मार्क्स की क्या परिभाषा हो सकती है ?
भौतिक द्वन्यवाद ? साम्यवाद ? समाजवाद ? को-ऑपरेटिव सोसायटी ? ट्रेड यूनियन ? प्रोलेटेरियन ?
गांधी जी ने जहां अपने दुख-दमन को अपना हथियार बनाया वही मार्क्स ने लाखों कामगारों के शोषण को अपना सिद्धांत बनाया। हम इन्हें कैसे किसी परिभाषा में बांध सकते हैं ?
पूंजी या पूंजी के केंद्रीकरण को लेकर दोनों बेहद चिंतित थे। सारा खेल या सिद्धांत ही धन (पूंजी) को लेकर है। गांधी जी को खतरा था कि ये मशीन कहीं धन को ज्यादा एकत्रित न कर दे और शेष को श्रीहीन! और मार्क्स को यही खतरा था इसलिए तो मजदूरों एकजुट हो -नारा दिया गया। यूनीयनें बनीं। ट्रेड यूनियन नेता। उत्पादन के ईकाई पर सभी का बराबर मालिकाना हक हो।
पर, ऐसी क्या चूक हो जाती है हमारे मानव समाज से कि लेनिन जैसे मार्क्सवादी पंथ के रचयिता को पूंजी -हां, इसके कई रूप हैं……, विदेशी पूंजी को अपने कार्यकाल में ही सोवियत रसिया के बुनियादी ढांचे की मरम्मत के लिए मंगानी पड़ गई थी। इसे ’दो कदम पीछे हटकर एक कदम आगे छलांग लगाना’ बताया गया था ?
अर्थात एक तरह से निवेश के लिए विदेशी पूंजी आमंत्रित करना -पूंजीवादी रास्ते अख्तियार करना ?
ये आज भी गहरी मीमांसा का विषय है।
बस कुछ-एक सवाल उठाकर इस अध्याय का समापन करना चाहूंगा, ये कहते हुए कि गांधी या मार्क्स की विवेचना कभी खत्म नहीं होती। इसे हर पीढ़ी को देखना-समझना होगा। आगे चलना है -तो किस तरह ? पीछे लौटना है -तो कितना ?
सवाल है -क्या गांधी के आर्थिक चिंतन या मार्क्स के सिद्धांत में इस बात का ब्यौरा है कि एक स्वतंत्र राज्य अपनी सेना पर तोपों-बारूद और पंडुब्बियों के मद में और जवानों की तैनाती में कितना प्रतिशत खर्च करेगा ?
महामानव अक्सर मनुष्य की इस घृणा-युद्ध की राजनीति नहीं समझ पाते और भूल हो जाती है।
क्या आज का प्रगतिशील मानव इस चूक से सबक लेना चाहेगा ?
एक विचार तो बनता है।