12-चंद्रशेखर आजाद, सूर्य सेन एवं अन्य क्रांतिकारी
सन 1920 में सविनय अवज्ञा आंदोलन का शिखर पर पहुंचकर आंदोलन वापस लिया जाना और गांधी जी की प्रतिज्ञा कि वे एक वर्ष के भीतर स्वराज्य की स्थापना कर देंगे। स्वराज्य तो दूर, इस आंदोलन ने सैद्धांतिक राजनीतिक दायरे में एक तिनके का योगदान नहीं किया। पूर्णतः फेल! यह अलग बात है कि असफल कहानियों के पीछे भी सफलता के सूत्र छिपे होते हैं -जिसकी समझ बाद की पीढ़ी को होती है, गलतियों से सबक लिया जाता है -इत्यादि बातें कुछ बाद में और अक्सर कई दफा तो बहुत बाद में दृश्य में आती है। खैर!
पूरे राष्ट्र स्तर पर उद्वेलित आंदोलन एक तूफान की तरह था और अचानक राजनीतिक परिदृश्य में शून्यता का बोध होने लगा था। 1923-24 के पश्चातवर्ती जितने भी युवा क्रांतिकारी आंदोलनकारी थे वे सब के सब कांग्रेस के आंदोलनों में बड़े उत्साह से भागीदारी कर चुके थे। बाल गंगाधर तिलक, लोकप्रिय नाम लोकमान्य तिलक उनके आदर्श थे।
उत्तर भारत में राम प्रसाद बिस्मिल, जोगेश चटर्जी और सचिंद्र नाथ सान्याल ने युवाओं को क्षुब्ध मनोदशा से बाहर किया -’बंदी जीवन’ का प्रकाशन जो कि आंदोलनकारियों के लिए प्राण वायु की तरह था। अक्टूबर 1920 में कानपुर में ‘हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ की स्थापना हुई। इसका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार से देश को मुक्त कराना था और उनका लक्ष्य फेडरल रिपब्लिक ऑफ यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ इंडिया की स्थापना थी। गौर करने की बात है कि हमारे युवा आंदोलनकारी तब विश्व की गतिविधियों से किस तरह वाकिफ थे -वह जमाना और था जब खबरें पहुंचने में महीनों लगते थे। भाषा का माध्यम अंग्रेजी था और देश में शिक्षा की स्थिति दयनीय थी। खैर!
अपने संगठन को अंजाम देने के लिए धन की आवश्यकता थी -सशस्त्र दल की नियुक्ति, हथियार इत्यादि की व्यवस्था कैसे हो -एसोसिएशन के सदस्यों ने 9 अगस्त 1925 को काकोरी ट्रेन लूटा। काकोरी लखनऊ का आंतरिक गांव था। ब्रिटिश सरकार ने कड़ी कार्रवाई की, तत्काल एक्शन लिए गए। कई युवा संदेह के आधार पर गिरफ्तार किए गए, आसफउल्ला खान, राम प्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह और राजेंद्र लाहिरी को सूली पर चढ़ा दिया गया। चार अन्य संदिग्धों को अंडमान निकोबार काला पानी की सजा से नवाजा गया, 17 अन्य को लंबी सजा काल कोठरी में दी गई। चंद्रशेखर आजाद बच निकले।
इस घटना और सरकार के दमन से गहरा झटका क्रांतिकारियों को लगा। फिर भी युवा शक्ति पुनः केंद्रित हुई और उत्तर प्रदेश में विजय कपूर, विजय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा तथा भगत सिंह, भगवती चरण वोहरा और सुखदेव पंजाब से चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में हिंदुस्तान रिपब्लिक को पुनर्गठित किया। अंततः उत्तर भारत के लगभग सभी क्रांतिकारी फिरोजशाह कोटला में मैदान में 10 सितंबर 1928 को एकत्रित हुए और अपना सामूहिक लीडरशिप का एजेंडा तैयार किया। समाजवाद को आदर्श बनाया। पार्टी का नाम अब ’हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन’ रखा गया।
सोशलिस्ट रिपब्लिक के युवा क्रांतिकारी समझ चुके थे कि सशस्त्र हथियार से व्यक्तिगत लड़ाई और एक तरह से नहले पे दहला वाली नीति से ब्रिटिश सरकार को बहुत क्षति होने वाली नहीं। न ही आवाम पर दूरगामी असर दिखने वाला था। हां, कुछ सकारात्मक प्रभाव युवा-पीढ़ी पर था -निश्चित रूप से, मगर क्रांतिकारियों ने इस व्यक्तिगत हीरोइज्म से निकलकर समाजवादी आदर्श के तहत आवाम को जागृत करना बेहतर समझा। सोशलिस्ट रिपब्लिकन के समक्ष एक आजाद भारत का सपना था जो निश्चित रूप से आधुनिक विचार शैली से ओत-प्रोत एक जागृत समाज की तरह चित्रित था।
ऐसे ही समय साइमन कमीशन का पंजाब में विरोध कर रहे लाला लाजपत राय शेर-ए-पंजाब की हत्या पुलिस के लाठीचार्ज के कारण हो गई। सांडरर्स -पुलिस अफसर को जिम्मेदार मानते हुए उसे क्रांतिकारियों ने उड़ा दिया और सांडरर्स की हत्या को न्यायोचित करार दिया गया। हिंदुस्तान रिपब्लिक ने स्पष्ट लिखा कि जो नेता लाखों लोगों के दिलों पर राज करते हैं उनकी हत्या एक साधारण पुलिस अफसर के हाथों हो -यह राष्ट्र का अपमान है। हमें एक व्यक्ति को मारने का अफसोस है पर वह एक उस तंत्र का हिस्सा था जो इस तरह के अमानवीय और अन्याय पूर्ण कृत्य करता है। ऐसे तंत्र का खात्मा युवा पीढ़ी का उद्देश्य है।
इसी सिलसिले में कि कैसे युवाओं को जागृत किया जाए -जिसमें ब्रिटिश सरकार का विरोध तो हो ही -लोगों को अपने एजेंडे से जागृत भी किया जाए। भगत सिंह द्वारा असेंबली बम कांड उसी नीति का प्रतिफल था।
बंगाल में युवा दल ने छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में जागृति और समाज हित के मिशन फैलाने का कार्य जारी रखा। स्वराज्यवादी चितरंजन दास की मृत्यु के बाद का कांग्रेस की कमान बंगाल में दो फाड़ हो गयी। सुभाष एक दल के तथा जी. एम. सेनगुप्ता दूसरे दल के प्रतिनिधि नेता हुए। युगांतर और अनुशीलन पार्टी के नाम से क्रमशः सुभाष और सेनगुप्ता ने जनता को लीड किया। एक बदनाम पुलिस कमिश्नर चार्ल्स टेगार्ट की हत्या की जगह गलती से 1924 में डे नामक अन्य अंग्रेज मारा गया। मारने वाले क्रांतिकारी गोपीनाथ साहा थे। सरकार ने ऐसे मौकों पर कुख्यात दमन का सहारा लिया। सैकड़ों संदिग्धों, युवाओं जिनका किसी भी तरह का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष क्रांतिकारियों से संबंध था काला-पानी या काल कोठरी भेज दिया। सुभाष चंद्र बोस कैदी बना दिए गए। आवाम के पुरजोर विरोध के बाद भी गोपीनाथ साहा को फांसी दी गई।
उक्त घटना से बंगाल में क्रांति की प्रगति को गहरा धक्का लगा। तमाम अग्रिम पंक्ति के लीडर जेल भेज दिए गए। ऐसी गतिविधियों पर कड़ी नजर सरकार के खुफिया विभाग द्वारा की जाने लगी। कानून में संशोधन कर उसे और सख्त बना दिया गया था। किसी को जेल भेजने के लिए मात्र संदेश ही काफी था।
पर, बावजूद ऐसी स्थिति में भी बंगाल के चिट्गांव दल के क्रांतिकारियों द्वारा उल्लेखनीय कार्य किया जाता रहा। सरकार की दमनकारी नीति और साधनों की कमी और तमाम विपरीत परिस्थितियों के भी चिट्गांव दल के नेता सूर्यसेन के नेतृत्व में अद्भुत कार्य संपादित किए गए।
सूर्यसेन, ज्ञात है कि गांधीजी के असहयोग आंदोलन के सक्रिय भागीदार थे। चिट्गांव के स्कूल के शिक्षक थे -उन्हें सभी मास्टर दा पुकारते। अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए सन 1926 से 1928 तक बंदी रहे। वे बड़े प्रबुद्ध, मितभाषी और संगठन की शक्ति से ओतप्रोत शक्तिशाली व्यक्तित्व के मालिक थे। मानवता पर उनका बहुत जोर था -वे कहते थे क्रांतिकारियों को मानवतावादी होना चाहिए। यह विशेष गुण है। सेन, काव्य और रविंद्र साहित्य के बड़े प्रशंसक थे। काजी नज़रुल भी उनके प्रिय थे।
सूर्यसेन ने शीघ्र क्रांतिकारियों को संगठित किया जिसमें अनंत सिंह, गणेश घोष और लोकनाथ बाउल प्रमुख थे। योजना बनी कि छोटे पैमाने पर ही सही, मगर आवाम को यह सिद्ध किया जाए कि शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार को सीधी चुनौती दी जा सकती है। चिट्गांव में स्थित दो शस्त्रागारों पर कब्जा करना, चिट्गांव को कनेक्ट करने वाली सेवा सर्विस यथा रेलवे, टेलीफोन, तार सेवाएं काट दी जाए। योजना बारीकी से बनाई गई।
लगभग सैकड़ों क्रांतिकारियों ने अलग-अलग दल बना कर योजना में हिस्सा लिया कुछ अपवाद छोड़ दें तो उन्हें अभूतपूर्व सफलता मिली। इंडियन रिपब्लिक पार्टी चिट्गांव शाखा बंगाल। अप्रैल 1930 को घटना अंजाम देने के बाद सभी क्रांतिकारी चिट्गांव शस्त्रागार में इकट्ठे हुए। यहां सूर्यसेन ने खादी और गांधी टोपी धारण किए विजय का परचम लहराया, मिलिट्री सलाम लिए गए, राष्ट्र-ध्वज फहराया गया, वंदे मातरम और इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगे। प्रोविजनल रिवॉल्यूशनरी सरकार की स्थापना की गई।
क्रांतिकारियों द्वारा यह संभव नहीं था कि इस तरह का कब्जा शहरों में भी सफलतापूर्वक कर सकें। नतीजा स्पष्ट था -सारे क्रांतिकारी आस-पास के गांव में भूमिगत हो गए और वहीं से अपनी गतिविधियां गुप्त रूप से संचालित करने लगे। पर, जलालाबाद पहाड़ियों के पास हजारों ब्रिटिश सेना द्वारा उन्हें घेर लिया गया था -दोनों ओर से जबरदस्त मुठभेड़ हुई -जिसमें 80 ब्रिटिश सैनिक मारे गए। इधर बारह क्रांतिकारी शहीद हुए। ज्ञात हो कि चिट्गांव के एक शस्त्रागार में क्रांतिकारी शस्त्र नहीं ढूंढ पाए थे -इसका अभाव बाद में भीषण सिद्ध हुआ।
छोटे-छोटे समूह में बैठकर योजनाबद्ध सरकारी अफसरों को निशाना बनाना और सरकारी खजाना लूटना जारी रहा। सरकार के लिए सर-दर्द, कठोरतम कार्रवाई के बाद भी क्रांतिकारियों की इस गुप्त कार्यवाही पर सरकार पूरी तरह काबू नहीं पा सकी। ग्रामीण जिन्होंने क्रांतिकारियों को शरण दी थी, भोजन और पानी दिया था वे अधिकांश मुस्लिम थे। 3 साल तक अंडरग्राउंड रहकर क्रांतिकारी अपना काम करते रहे, अंततः सूर्यसेन को गिरफ्तार कर लिया गया, 16 फरवरी 1933, ट्रायल हुआ और उन्हें फांसी की सजा हुई। फांसी 12 जनवरी 1934। कई सहयोगी पकड़े गए और लंबे समय के लिए जेल भेजे गए।
प्रसंगवश यह कहना अनुचित नहीं होगा कि कसाब जैसे आतंकवादी जो बेनुगाहों को निर्ममतापूर्वक भून डालता है -उसे फांसी पर चढ़ाते-चढ़ाते 6 वर्ष बीत जाते हैं, इंदिरा गांधी के कातिल को भी लंबे ट्रायल के बाद फांसी दी गई। ये तथ्य अंग्रेजों की हुकूमत और आज की हमारी प्रजातांत्रिक हुकूमत के अंतर को स्पष्ट करता है। ब्रिटिश एक अत्याचारी शासक थे -निर्मम थे, कहने की आवश्यकता नहीं।
चिट्गांव शस्त्रागार की घटना ने बंगाल में क्रांति समर्थक युवाओं को खूब उद्वेलित किया। 1930-31 तक क्रांतिकारी अपने दुस्साहसी प्रयासों से सरकार की नींद हराम कर दी थी। मिदनापुर जिले में तीन ब्रिटिश मजिस्ट्रेट मार डाले गए। दो गर्वनरों पर कातिलाना हमला हुआ। दो इंस्पेक्टर-जेनरल मारे गए। 22 अफसर और बीस गैर-अफसर मारे गए। क्रांतिकारियों के दमन हेतु सरकार ने पुलिस को असीमित अधिकार दिए। पुलिस ने आतंक का राज स्थापित किया। क्रांतिकारियों के जहां गांव में छिपे होने की आशंका होती, गांव जला दिए जाते। समस्त ग्रामवासियों पर जुर्माना किया जाता। जब तक क्रांति का शमन न हुआ दमन अत्याचार जारी रहा। उसी समय कोलकाता में एक भाषण के वक्त जवाहरलाल नेहरू ने साम्राज्यवाद की भर्त्सना की और क्रांतिकारियों की प्रशंसा। इसी बात पर षड्यंत्र का आरोप लगाकर उन्हें 2 साल की सजा सुनाई गई। हालांकि उन्होंने भाषण में क्रांतिकारियों की सोच को व्यर्थ बताया -पर, क्रांतिकारियों के साहस और देश के प्रति सेवा की प्रशंसा कौन नहीं करता और पुलिस के अत्याचार की भर्त्सना कैसे न की जाती।
खैर, इन तीन वर्षां में क्रांति दल के सहयोगियों के रूप में कई महिला कामरेड पुरुष साथियों के साथ मिलकर कार्य अंजाम दिए। प्रीतिलता, कल्पना दत्ता, कॉमिला, शांति घोष, सुनीति चौधरी, वीणा दास इत्यादि नाम उल्लेखनीय है। संवादों का आदान-प्रदान, शस्त्र-अस्त्र यहां से वहां तक पहुंचाना, क्रांतिकारियों को शरण देना और यहां तक कि इन वीरांगनाओं ने स्वयं कई टुकड़ियों का नेतृत्व किया।
अपने पूर्व के क्रांतिकारी आंदोलन से भिन्न तात्कालिक बंगाल क्रांतिकारी कई बात से भिन्न थी। पहले जहां आंदोलन व्यक्तिगत हीरोइज्म पर केंद्रित था वही अब क्रांतिकारी विचार, एजेंडा और उद्देश्य युवा पीढ़ी को संबोधित था। महिलाओं को इसमें शामिल किया गया ही था, इनका स्वरूप भी धर्म-निरपेक्ष था। बहुत से मुस्लिम नेता क्रांतिकारियों से जुड़े -सत्तार, अमीर अहमद, मियां फकीर अहमद, मियां टूनू प्रमुख नाम है। चिट्गांव के आस-पास के जिन गांवों में क्रांतिकारी शरण लिए हुए थे अधिकांश मुस्लिम बहुल गांव थे। क्रांति दल पहले के सदस्य जहां धार्मिक शपथ लिया करते थे -बंगाल के इस क्रांति दल ने इसे समाप्त कर दिया।
चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सूर्यसेन जैसे क्रांतिकारियों की शहादत ने पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल के परिदृश्य से युवा क्रांति लगभग समाप्त हो चली। सैकड़ों को काला पानी भेजा गया, लंबे समय के लिए जेल या आजीवन कारावास से युवा शक्ति क्षीण हो चली। बचे हुए उत्साही युवाओं ने अधिकांशतः कम्युनिस्ट पार्टी, रिवॉल्योशनरी सोशलिस्ट पार्टी व अन्य वामपंथी पार्टियों में शरीक हो गये। बहुतों ने कांग्रेस अंगीकार किया।
प्रसंग आया है इसलिए मीमांसा जरूरी लगती है। प्रश्न उठाये जाते हैं कि जिन क्रांतिकारियों, खासकर बंगाल के क्रांतिकारी जिन्होंने तीन साल तक ग्रामीणों के साथ घुल मिलकर अपने कार्य संपादित करते रहे -आखिर वे गरीब किसानों, कामगारों को स्थानीय जमींदार से क्यों मुक्त नहीं करवा पाए। मार्क्सवाद या समाजवादी अवधारणा की ओर आकर्षण बहुत कम दिखता है। जात-पात बरकरार रहा, कृषकों के लिए सहानुभूति होते हुए भी जमींदारों से मुक्त नहीं कर पाए।
स्थिति पर गौर करें तो चिट्गांव प्रकरण एक ऐसी मिसाल है जो भारत में मार्क्सवादी एजेंडे को हू-ब-हू लागू करने के अव्यवहारिक तथ्यों की ओर इशारा करता है।
क्रांतिकारी गुप्त रूप से उस वक्त की शक्तिशाली सरकार से लोहा ले रहे थे। ब्रिटिश उनके पहले शत्रु थे। मार्क्स के पूंजीपति अथवा यहां अनुदित जमीदार सेकेंडरी अथवा हाशिए पर थे।
बहुत से जमींदार, स्थानीय राजा और देशी पूंजीपति सीधे या गुप्त रूप से देश की विभिन्न पार्टी, कांग्रेस अथवा स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय थे -आर्थिक सहयोग दे रहे थे। यह दुविधा थी। सिद्धांत और व्यवहार में फर्क होता है और मार्क्सवाद की मूल जमीन नगरीय औद्योगिक इलाका था -हर देश-काल की परिस्थितियां भिन्न थी। दूसरे, परंपराएं यूं चुटकियों में नहीं बदलती। वर्षों समझने में लगते हैं। बंगाल क्रांति में स्त्रियों का आगे आना, मुस्लिमों का सहयोग और कार्यकर्ताओं द्वारा धार्मिक शपथ खत्म करना -ऐसे प्रसंग अपने समय से बहुत आगे थे। कमोबेश मार्क्स का अध्ययन पश्चिम और रसिया की क्रांति ने स्वतंत्रता, समानता, आर्थिक-सामाजिक आजादी जैसे विषय पर गौर करना सिखाया। भगत सिंह जेल से ही अपने विचार ’फिलोसॉफी ऑफ बम’ तथा ’मैं नास्तिक क्यों हूं’ -जैसे लेख लिखकर अपने प्रगतिशील विचार से युवाओं को प्रेरित करते रहे थे। अपने समय के सबसे अधिक पढ़ाकू विद्वान और प्रबुद्ध क्रांतिकारी भगत सिंह मार्क्सवादी परिकल्पना से समाजवादी समाज को अपना आदर्श मानते थे।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए की तब मार्क्स से प्रेरित क्रांतिकारी सरकार से सीधे पंगा ले रहे थे और मार्क्सवादी आर्थिक, सामाजिक समानता, आवाम की एकता इत्यादि को समझने और समझाने के लिए खुला मंच चाहिए था। गुप्त संगठन जिसका एकमात्र मिशन साम्राज्यवाद का सफाया था -पूंजीवाद या देश में जाति प्रथा जैसी समस्या निश्चित रूप से गौण रहे होंगे, संभवत इसका अवसर नहीं था।
(आलेख में प्रयुक्त घटनाएं और तथ्यों के लिए ’इंडिया स्ट्रगल फॉर इंडिपेंडेंस’ -बिपन चंद्रा लिखित पुस्तक से साभार)