अंक-17-बहस-11-परिदृश्य

11-परिदृश्य

दिनांक 23 मार्च 1931 -भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को ब्रिटिश सरकार ने फांसी दी।
8 अप्रैल 1929 को पब्लिक सेप्टिक बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल के विरोध में शहीद भगत सिंह और साथी बटुकेश्वर दत्त द्वारा सेंट्रल विधायिका में बम फेंका गया। धमाका हुआ -यह धमाका उस बिल के विरोध में था और बहरों को सुनाने के उद्देश्य से फेंका गया था। उक्त बिलों के पास होने का अर्थ था भारत के नागरिकों के अधिकार छिन जाते, विशेषकर कामगारों के। बम धमाके का उद्देश्य किसी की क्षति पहुंचाना नहीं था -बम क्षतिरहित था। धमाकों के बाद भगत सिंह एसेंबली से फरार हो सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने स्वयं अपनी गिरफ्तारी दी और इस प्रकरण में ट्रायल कोर्ट को, देश और देश के नौजवानों को अपना उद्देश्य, आदर्श को संप्रेषित करने का एक मंच बनाया। उन्होंने निर्भीकता से अपने आदर्श-विचार को अदालत के समक्ष रखा। ट्रायल के लिए अदालत जाते हुए ’इंकलाब जिंदाबाद’ ’साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ के नारे लगाए। उत्साह और आदर्श से भरी भीड़ और विदेशी साम्राज्य से कुपित नौजवानों द्वारा ’देश भक्त अमर रहें’ ’सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है देखना है जोर कितना बाजु ए कातिल में है’ ’मेरा रंग दे बसंती चोला’ जैसे गीत गाए गये। नारे लगाए।
भगत सिंह अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल रहे थे। वे घर-घर के हीरो और नौजवानों के आदर्श बन चुके थे। अहिंसा का अनुसरण करने वाले कांग्रेसी भी उनके प्रशंसक बन चुके थे। सारे हिंदुस्तान में अखबारों के जरिए वे चर्चा का विषय बन गए थे।
और जिस दिन उन्हें उनके साथियों के साथ फांसी दी गई -लाखों लोगों ने भोजन नहीं किया -बच्चे स्कूल नहीं गए -दफ्तर सूने पड़े रहे। माताओं ने घर में चूल्हा नहीं जलाया।
उसी तरह बंगाल के जतिन दास लाहौर जेल में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर थे। 64 वें दिन उनकी मौत हो गई। पूरे देश में भूख हड़ताल के पक्ष में रैलियां निकाली गईं। लाखों लोगों ने प्रदर्शन रैली में हिस्सा लिया। मृत्यु उपरांत उनके शव को जब कोलकाता लाया जा रहा था तो लाखों नौजवानों ने लाहौर से कोलकाता कूच किया -अंतिम संस्कार में दो लाख से ऊपर लोगों ने हिस्सा लिया। कोलकाता (तब कलकत्ता) की सड़कें दो मील तक लोगों से भरी रहीं। जतिन दास देशभक्त थे -उनकी मांग ब्रिटिश सरकार से थी कि उन जैसे नौजवान जो अपने देश की खातिर कानून तोड़ रहे हैं -वह अपराधी नहीं है -ब्रिटिश सरकार को उनसे क्रिमिनल की तरह नहीं -सम्मानजनक तरीके से पेश आना चाहिए। स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। फ्रांस की क्रांति, अमेरिकन लिबरेशन, रसिया की बोल्शेविक (साम्यवादी) क्रांति -यह सभी आवाम और समाज को समानता-स्वतंत्रता की दुहाई दे रही थी। जतिन दास जैसे नौजवान की शहादत ने करोड़ों भारतीयों को झकझोर कर रख दिया।
गांधी जी द्वारा आहूत 1920 का असहयोग आंदोलन चरम पर पहुंच चुका था। आंदोलन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बैनर तले महात्मा गांधी के नेतृत्व में और उनके आह्वान पर देशव्यापी समर्थन प्राप्त था। मगर चौरा-चौरी हिंसा के कारण गांधी जी द्वारा आंदोलन वापस ले लिया गया। प्रायः सभी लीडर सकते में थे -कांग्रेस ने जन व्यापी आंदोलन खड़ा किया था, हिंदू मुस्लिम कंधे से कंधा मिलाकर हिस्सा ले रहे थे। क्रांतिकारी दल के नेता भी जो गुप्त रूप से सशस्त्र हथियार के माध्यम से देश को आजाद कराना चाह रहे थे -उन्होंने भी अपनी गतिविधियां रोक दी थी और कांग्रेस के समर्थन में आ गए थे।
अचानक उस वक्त जब आंदोलनकर्ता अति उत्साहित थे -ब्रिटिश सरकार की जमीन हिल गई थी वैसी स्थिति में आंदोलन वापस लिया जाना हैरानी की बात थी। माने हुए सभी नेता चाहे जवाहरलाल हो या सुभाष या मुस्लिम लीडर -सभी गांधी जी के इस कदम से कुपित थे। असहमत थे। कईयों का तो यह विचार था कि गांधीजी ने अवाम के साथ धोखा किया। उनकी कटु आलोचना की गई।
युवा शिक्षित राष्ट्रवादियों की आशा मर गई। उन्हें गांधीजी और अहिंसा और गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस का भविष्य कुहरे में समाया हुआ प्रतीत होने लगा। विकल्प की तलाश होने लगी। कांग्रेस लीडरशिप -चाहे उदारवादी हो या उनके नेतृत्व में लड़ा जाने वाला संवैधानिक सुधार, स्वराज्य दल की कोशिशों हां, वे सब अनुनय-विनय, प्रार्थना और आवेदनों-चर्चाओं तक सीमित थे। आवाम देख समझ रही थी कि शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य इस तरीके से हिलने वाला नहीं। अहिंसा एक मिथ सा था।
शिक्षित नौजवान देश दुनिया की खबरों से वाकिफ थे। प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो चुका था और गांधी जी के आह्वान पर आवाम ने ब्रिटिश शासन को भरपूर सहयोग दिया। सहयोग ही नहीं दिया अपितु युद्धरत ब्रिटिश सरकार को युद्ध के दरम्यान आंदोलन छेड़ना नैतिक रूप से गलत माना। हालांकि इसके विरुद्ध कई नेता यह मानते थे कि साम्राज्यवादी ब्रिटिश को यही उचित समय होगा -उन्हें कमजोर करने का।’ पर गांधीजी के निर्णय को समझने के लिए गांधी के आदर्श को समझना पड़ेगा। खैर!
यह अकारण नहीं था कि चंद्रशेखर आजाद, सूर्यसेन, जतिन दास, जोगेंद्र चंद्र चटर्जी, सुखदेव, भगत सिंह, भगवती चरण वोहरा इत्यादि जो बाद में क्रांतिकारी आंदोलन का रास्ता अख्तियार किया -वे सब के सब 1920 के गांधी जी के असहयोग आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले चुके थे।
शनैः शनैः क्रांतिकारी राष्ट्रवादी एक तरफ पंजाब, उत्तर प्रदेश और बिहार तो दूसरी तरफ बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश शामिल) अलग-अलग क्रांतिकारियों के नेतृत्व में सक्रिय हो गए। विश्व युद्ध के बाद कामगारों द्वारा ट्रेड यूनियन स्थापित हो गए थे -यह कामगार विश्व में हो रहे सोशल क्रांति के आदर्शों से प्रेरित थे, उनकी सफलता देख रहे थे और यूनियन की महत्ता वे अब समझने लगे थे। क्रांतिकारियों ने उन्हें अपना बनाया -राष्ट्रीय क्रांतिकारी आंदोलन में उनकी सक्रियता का लाभ हासिल किया। यह सारी बातें, यह आदर्श और उत्साह विश्व में रसिया क्रांति की सफलता से उत्प्रेरित थे। बोल्शेविक के नेतृत्व में (लेनिन) रसिया की जार सत्ता को उखाड़ फेंका गया था जो कि असमानता-शोषण और पूंजीवाद का भयावह प्रतीक था।