अंक-17-बहस-5-कुछ सवाल स्वयं से

5-कुछ सवाल स्वयं से

मई का आखरी महीना चल रहा था। मौसम विभाग की भविष्यवाणी थी कि इस वर्ष बरसात अच्छी होगी। मानसून अपने निर्धारित समय से दो दिन पूर्व प्रस्थान कर चुका है। इधर एक-दो दिन पर बादल-अंधड़ छा जा रहे हैं गर्मी से राहत मिल रही है कहीं ना कहीं बूंदा-बांदी भी हो जा रही है।
मनुष्य के तन-मन पर प्रकृति का इतना सीधा और गहरा प्रभाव है -मजा यह कि हम उस ओर देखते -विचारते ही नहीं। जरा गौर कीजिए जब मिट्टी में पानी की चंद बूंदे गिरती हैं तो उसकी खुशबू! क्या उसकी तुलना किसी और से की जा सकती है। हमारे हक का सुगंध हमारे परिवेश से ही संभव है। अफसोस -जो सर्वसुलभ चीजें हैं उन पर हमारा ध्यान कहां जाता है।
मई का महीना हो और कोयल की कूक की बात ना हो। आम के बगीचे में पक रहे आमों की बात ना हो। लीची और जामुन, पेड़ पर लटकते कटहल की बात ना हो। तरबूजे, खरबूजे और खीरा-ककड़ी क्यों पीछे रह जाएं। प्रकृति ने प्रचुर हमारे लिए सौंप रखा है -बेल का फल और फलों का राजा आम! पर हम सबने शायद कहीं ना कहीं से प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ की है। हाइब्रिड आम। छै महीने की चीजें तीन महीने में उगाई जाने लगी -फास्ट ब्रीड के लिए अतिरिक्त यूरिया का प्रयोग हुआ -मिट्टी की उर्वरता नष्ट हुई। पानी-जमीन एक समान दूषित हुए और दूषित हुआ हमारा शरीर! हम एक तरफ सभ्य सुसंस्कृत होते गए मगर और अधिक बीमार! हमने वही पाया जो हमने रोपा! आज फल और सब्जी खाना भी खतरे से खाली नहीं, कहीं का पानी पीना भी खतरनाक! आखिर ऐसा क्यों ? यह कैसा विकास ? जिसे देखो वही डॉक्टर की दवाओं पर टिका है। अभी तक तो हमारा मन ही बीमार था, अब मन के साथ शरीर भी बीमार हो चला है। हां, डाक्टरों की चल पड़ी है। दवा कंपनियों की निकल पड़ी है। कंपनियां विटामिन्स और प्रोटीन युक्त फूड तैयार करते हैं -आप कमजोर हैं डाक्टर आपको शक्तिवर्धक दवाइयां लिखेगा। सच का कैसा विद्रूप! जो वास्तविकता खाने-पीने की चीजों से सीधे प्राप्त होती है उसे मेडिसिन फार्म में घुटकना! हमारा शरीर इसलिए नहीं बना है -यह इस चूतियापा के लिए सदियों से तैयार नहीं है। लाखों वर्षों से मानव शरीर ने प्राकृतिक तरीके से ’सेल्फ हीलिंग’ करते हुए, स्वयं को आज इस तरह तैयार किया है। मगर विडंबना क्या है -इधर कुछ पचीस-पचास वर्षों का इतिहास ने ना सिर्फ प्राकृतिक दुनिया को तोड़-मरोड़ के रख दिया है अपितु हमने अपना प्राकृतिक संतुलन भी खो दिया है। नई-नई बीमारियां इजाद हो रही हैं। जिस की जड़ों तक हम पहुंचना नहीं चाहते। सिर्फ सतही रास्ते अख्तियार कर रहे हैं। आज खाद्य सामग्री अत्यंत दूषित है -यह लीजिए ये कहते हैं कि उनका मूंगफली और सोयाबीन का तेल असली है -खाक! सारे उत्पाद केमिकल्स द्वारा उत्पादित है। कोई बाबा कहता है मेरा घी असली है -दूध असली, गाय असली!
सच ? कोसों दूर!
हम बीमार हैं हमारे कुएं का पानी ही दूषित है। चारों ओर बस एक ही बात की होड़ -बढ़े चलो। सोचने -ठहरने की फुर्सत नहीं। मैं समझता हूं -यहीं ठहरने की जरूरत है। आखिर इतनी प्रगति किस काम की ? यही -बीमार संस्कृति का प्रसारण करने वास्ते!
आज संगोष्ठी का पांचवा दिन है और पितामह कुछ अलग हटकर बात करते प्रतीत होते हैं।
’’इन सब चीजों पर प्रकाश डालने की गरज क्यों पड़ रही है -क्योंकि हम चाहे जिस ’वाद’ से अपनी समस्याओं को देखें उनमें अपनी समस्या का हल ढूंढना होगा। हमें अपने वास्तविक समय में जीना होता है और महज यूनियन की बातें कहकर या स्त्री एजेंडा में भटकाकर किसी ग्रंथ या ’वाद’ को जस्टिफाई नहीं कर सकते। और, आज की हमारी समस्या है हमारा पर्यावरण! हमारा परिवेश! और यह परिवेश किसी को भी बक्शने वाला नहीं।’’
’’हम यही बताना चाह रहे थे। मार्क्सवाद हो या गांधीवाद उसे आज से रू-ब-रू होना होगा। आज का सच ?’’