अंक-17-पाठकों से रूबरू-बीते समय का पुनरावलोकन

बीते समय का पुनरावलोकन

कुछ समय पूर्व राष्ट्रसंत श्री तरूण सागर ने कहा था कि महावीर को अब मंदिर से निकाल कर चौक चौराहों पर लाने की जरूरत है। इसके बाद बहुत से तथाकथित विद्वानों ने उनका विरोध प्रदर्शन किया कि उन्होंने भगवान के बारे मे गलत कहा है। क्या उन्होंने गलत कहा था ? या हमने गलत समझा था ? क्या उन्होंने महावीर को मानने वालों के समक्ष समीचीन प्रश्न नहीं रखा था ? क्या हमें अपने वर्तमान का विश्लेषण नहीं करना चाहिए ?
आइये जरा कुछ विस्तार से समझ कर आत्मसात करने का प्रयास करते हैं। महावीर का मतलब महावीर है या फिर महावीर का दिखाया मार्ग ?, उनकी सीखायी जीवन शैली ? या फिर सिर्फ महावीर की मूरत ? आज महावीर को मानने वाले सिर्फ महावीर को मानते हैं पर महावीर की नहीं मानते। (यह राष्ट्रसंत तरूण सागर ने कहा था।) हम महावीर के ज्ञान को तभी सार्थक मानेंगे जब उनके मार्ग पर चलेंगे न कि उनकी मूरत बनाकर उनकी पूजा करने से!
इस देश की मिट्टी में ही शायद यही गुण है। रास्ता बताने वाला पूजा जाता है पर लोग रास्ते पर नहीं चलते। और शायद इसलिए ही देवताओं को समय-समय पर आकर याद दिलाने की जरूरत महसूस हुई है। इस चक्कर में देवताओं की संख्या भी बढ़ती गई। और आज भी बढ़ती ही जा रही है।
मार्क्स अपने देश के लिए एक वरदान था। उसने अपने देश में व्याप्त कामगारों की दयनीय स्थिति को बदलने के लिए अपने समाज और लोगों का अध्ययन किया। इसके बाद अपने विचारों का निष्कर्ष लिखा। उसने अपने समाज के द्वारा औद्योगिक मजदूरों के शोषण को दूर करने के लिए बिगुल फूंका। वहां उस वक्त मानव की मशीन से तुलना कर उनसे उसी तरह के आउटपुट की उम्मीद की जाती थी। न तो उनके पास रहने के लिए घर थे न ही ढंग का वेतन जिससे वे अपना पोषण कर सकें। उनकी इस दयनीय अवस्था के लिए भगवान का अवतार बनकर मार्क्स आये और उनकी क्रांति ने हद तक उनकी स्थिति को सुधार कर दिया।
मजदूरों और कामगारों के जीवन में व्यापक सुधार से सारी दुनिया मार्क्स के विचारों की ओर आकर्षित हुई। उस वक्त लगभग सारी दुनिया अंग्रेजों की गुलाम थी, इसलिए उनके अखबार थे उनका मीडिया था और उनका परोसा हुआ ही जनता के बीच पहुंचता था। उच्चशिक्षा के लिए विदेश यात्रा करनी पड़ती थी। इसलिए उस वक्त के ज्यादातर शिक्षित, उनके पोषित विचारों से प्रभावित होते थे। मार्क्स के मुख्यधारा में आते ही उनके विचारों को पूरे विश्व के हर देश में हाथों हाथ लिया गया। उनके आंदोलन के बाद हर कोई वो जादू की छड़ी अपने लोगों के लिए लाना चाहता था। जिसके घूमते ही सारे गरीब, बेगार, मजदूर एकदम से सुखी सम्पन्न हो जायें।
पर क्या ये सब इतना आसान था ? समुंदर के किनारे बसने वाला मछली और नारीयल का सेवन करता है। मैदानों में रहने वाला चावल खाना पसंद करता है और पहाड़ों पर रहने वाला जानवरों पर निर्भर होता है। क्या ये सब उस स्थान विशेष के मौसम के अनुसार अपनी जीवन शैली विकसित नहीं करते हैं ? उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप जीवनचर्या और संस्कृति विकसित नहीं होती है ? तो फिर भारत में मार्क्स के विचारों को हू-ब-हू कैसे रोपा जा सकता था/है ? हजारों वर्ष पुरानी सांस्कृतिक विरासत लेकर चलने वाले देश में एकाएक उस बरगद / पीपल को उखाड़कर एक नया पौधा कैसे रोपा जा सकता है ? और फिर ये कौन ध्यान देगा कि उस पौधे के लिए यहां की आबोहवा अनुकूल है या नहीं ?
लगातार कोशिश जारी है, खाद पानी भी दिया जा रहा है पर वो पौधा, पौधा ही बना हुआ है या यूं कहें कि अविकसित युवा! ऐसा क्यों है क्या इस पर विचार आवश्यक नहीं है ?
विश्व बंधुत्व की बातें जो आजकल जुमले के रूप में की जा रही हैं ये बातें न जाने कब से सच्चाई के रूप में इस देश की मिट्टी, संस्कार और प्रायः सभी धर्मा में हैं। यहां का हर निवासी विश्व मंगल की प्रार्थना किये बिना अपनी नित्य पूजा को पूर्ण नहीं समझता है। इंसानों के मंगल के अलावा जल, वायु, अग्नि, मृदा और न जानने वाली चीजों का मंगल चाहता है। इस नित्य भावना के अलावा उसके दरवाजे से बहुत कम लोग ही खाली हाथ जाते हैं। वह यथासंभव कुछ न कुछ देता ही है। (यहां कुछ कुंठित इस बात को भिखारी समस्या से जोड़ सकते हैं। जबकि भीख मांगना भी एक बहुत ही साहस का काम है क्योंकि भीख मांगते वक्त अपना जमीर एक हाथ में रखकर दिखाना होता है।) हमारा देश संतृप्त मनोवृत्ति के लोगों से भरा हुआ है। यहां एक व्यक्ति जिसे ट्रेन में यात्रा करना होता है तो वह रिजर्वेशन की खिड़की से वेटिंग का टिकट लाकर भी खुश रहता है कि चलो रिजर्वेशन वाली बोगी में घुसने तो मिल ही जायेगा। यदि उसे टीटी सीट नहीं देता है और उसे जनरल में भेज देता है तो वह ये सोच कर संतोष कर लेता है कि चलो समय से अपने गंतव्य पहुंच तो जाऊंगा। कहने का मतलब ये है कि इस धरती की मिट्टी और उस देश की मिट्टी जहां मार्क्स ने अपनी देशभक्ति निभाई दोनों में अंतर है।
मार्क्स की तरह सोचने वाले सिर्फ उद्योग और नौकरी को ही अपना एजेण्डा बनाये और बड़ी चालाकी से मजदूरों और किसानों को ढाल बना कर खुद को सर्वसम्पन्न बनाकर शासक बना लिया। खुद को उनका भगवान घोषित कर लिया। किसानी को एक ओर उन्होंने इतना ज्यादा दयनीय बना दिया या कि लोग मजदूरी करना पसंद करने लगे। इस कारण इस कृषि प्रधान देश में जमीन, पानी और मौसम की अनुकूलता के बावजूद अचानक बेरोजगारों की भीड़ आ गई। कृषिपुत्रों को खेत की जमीन काटने लगी। उन्हें मजदूरी करना ज्यादा अच्छा लगने लगा।
शिक्षा को इस तरह प्रचारित किया कि वो रोजगार का पर्याय हो गई वो भी सिर्फ सरकारी नौकरी। जिस तरह पर्यावरण चक्र में हर जीव से लेकर अजीव तक का महत्व होता है और किसी एक का उस चक्र से हट जाना पूरे पर्यावरण को प्रभावित कर देता है ठीक उसी तरह शिक्षा ने समस्त रोजगारों को बेकार साबित कर सरकारी नौकरी को ही रोजगार माना और साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
बढ़ई, लोहार, राजमिस्त्री, कुम्हार जैसे अनेकों काम को छोटा साबित किया गया और समाज का चक्र ध्वस्त होने की स्थिति में आ गया है। पंद्रह-अठारह साल पढ़ाई करके भी एक युवा पांच रूपये कमाने के लायक नहीं रह जाता है। सरकारी नौकरी मिली तो ठीक वरना वही पुराने ढर्रे से और अनमना होकर किसी भी काम को करता है। समझ लीजिए घिसटता हुआ।
इन तमाम उदाहरणों की यहां क्या आवश्यकता है आप सोच रहे होंगे। है आवश्यकता, तब तो कलम घसीटी जा रही है। जिस वर्ग भेद के विरूद्ध इस देश में मार्क्सवाद को थोपा गया उसने ही कई तरह का वर्ग भेद पैदा कर दिया। अमीर गरीब की खाई को सिर्फ, नौकरी देने वाले उद्योगपतियों को गाली देने और फिर वहीं जाकर नौकरी करने तक रह गया है। जिन मजदूरों और किसानों के लिए बेनर, पोस्टर और किताबें रंगी गईं वे सब उस वक्त बेमकसद रह गईं जब उन पढ़े लिखे शोषकों ने अपनी आय में वृद्धि की तुलना में उन किसानों-मजदूरों की आय को अतुलनीय बना कर रख दिया है। कहां से तुलना हो एक ओर लाखों में आय है तो दूसरी ओर बमुश्किल हजारों में।
कुल मिला कर कहना यह है कि एक सच्चे व्यक्ति मार्क्स के जीवन दर्शन को इस देश में कुछ ऐसा घोलघाल कर पिलाने की कोशिश की गई कि एक नये तरह के ब्राहमणवाद (उन्हीं का दिया हुआ शब्द जिसका शब्दार्थ और तात्पर्य होता है ब्राहमण ही दलितों का शोषक होता है और ब्राहमणवाद परिभाषा का निहितार्थ एक ज्ञानवान तबके का अज्ञानियों के शोषण का काम।) ने सीधे युवा रूप में जन्म ले लिया। अब देशी मार्क्स वाहक ही शोषण के पर्याय बन गये। सिर्फ और सिर्फ घृणा और अलगाववाद को पोषा, नाम था वर्गभेद मिटाना!
मार्क्स अपनी जमीन का अपनी मातृभूमि का नायक था, है, और रहेगा। पर क्या हमारे यहां के उनके अनुयायियों ने उनके साथ न्याय किया या अन्याय ? मार्क्स की सोच को हमारे यहां थोपने की जल्दी मचाने से पहले उसके लिए खाका खींचा जाता तब बात बनती। पर उस जल्दी के पीछे सिर्फ सत्ता का आचमन ही महसूस होता है। मार्क्स की सफल क्रांति की फोटो को सपनों की तरह बेचने का काम!
महात्मा गांधी ने अपने जीवन के अनुभवों से एक शानदार घृत मथा था -गांधीवाद! वह घृत था अपनी धरती और संस्कृति को सहेजते हुए विकास और सामाजिक समरसता। चूंकि मार्क्स की धरती में सामाजिक संस्कार अलग थे और भारत की धरती की तरह तो कदापि नहीं। इसलिए गांधी दर्शन पूर्णतः इस धरती के विकास के अनुकूल था। जिसमें वो सब कुछ था जिसके लिए ये धरती तैयार थी। संस्कृति संस्कार और नैतिकता के साथ मानवीयता! पर्यावरण और जीवन चक्र को सहेजने का वादा! समाज के विकास के लिए प्रत्येक तत्व को महत्व देते हुए आगे बढ़ना। नैतिक बल सत्य और अहिंसा को लेकर एक वर्ग रहित समाज बनाना। क्या ये सब काल्पनिक था ? बल्कि आसान और विश्वसनीय था। क्यों ? क्योंकि इस देश का इतिहास गवाह है कि इन्हीं के बल पर समय-समय पर समाज का दीपक टिमटिमाकर फिर से प्रकाशवान हुआ है।
खैर! ये बातें शायद इस युग में बेवकूफी मानी जाती हैं।
पर क्या आज हमारे गांव स्वालंबी हैं ? उनकी जरूरतें वहीं गांव में पूरी हो पा रही हैं ? गांव के लोग अब एक दूसरे पर निर्भर होकर क्या एक दूसरे के लिए सौहाद्र रखते हैं ? एक दूसरे पर निर्भरता, एक दूसरे के लिए निकटता नहीं लाती है ? स्वप्र्रेरणा जागृत करने से बढ़कर कोई तरीका हो सकता है दुनिया में जिससे लोग एक दूसरे के अलावा वृहत समाज के लिए चिन्तित हों ? आज गांव के असंगठित कर्मियों के लिए कौन आवाज उठा रहा है ? कौन है जो उन पर ध्यान दे रहा है ?
गांधीवाद या गांधी दर्शन वो दर्शन है जो इस मिट्टी पर जन्मने वाले व्यक्ति ने इस मिट्टी के लिए विचार करने के बाद हल के रूप में निकाला है। वो जानते थे कि एक गरीब के लिए कोई नहीं लड़ेगा इसलिए वो गांव को ही इतना समृद्ध बनाना चाहते थे कि किसी को गांव से बाहर जाना ही न पड़े। पर हुआ क्या ? गांव के लोग शहरों में मजदूर बन कर जीने को मजबूर है और मजेदार बात यह है कि वे खुद इसके लिए लालायित हैं। ऐसा ब्रेनवाश कर दिया है दो पीढ़ियों का कि अब वापसी ही मुश्किल लगती है। खुद ही लोग खुद को कुंअें में ढकेलने को उतावले हो गये हैं। कुछ समझदार हैं तो वे सोच में पड़कर मजबूर है क्योंकि पूरा चक्र ही ध्वस्त हो गया है। गांव में खेत की खड़ी फसल काटने के लिए मजदूर नहीं हैं और शहर के हर चौक में खाली रिक्शों की फौज खिचड़ी दाढ़ी में, पिचके पेट के साथ खड़ी है।
औद्योगिकीकरण और उसमें छाया देशी मार्क्सवाद देश के युवाओं को आकर्षित करता है क्योंकि सूटबूट के सपनों में नोटों की थैली बगैर मेहनत के नजर आती है। जबकि स्थिति उलट है। सरकारी नौकरी में बड़ा संगठन है और वह अपनी मनमर्जी का मालिक है। वहां लगातार हड़ताल के बाद भी पूरी तनखा और फिर बढ़ी हुई तनखा पिछले वर्ष से मिलती है।
क्या ये संभव है कि सभी शिक्षितों को नौकरी दे दी जाये ?
जरा विचार करें।
दुनिया में मार्क्सवाद की उत्पति और उसके औचित्य आवश्यकता को जानना जरूरी है। और उसके विभिन्न पहलुओं को जानना इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि हमारे देश की राजनीति इसी मार्क्स के नाम के इर्द गिर्द घूमती है। हर नेता उसका नाम जपता है। हर नेता समाजवाद की बात करता है। हर नेता गरीब की बात करता है। हमारे देशी मार्क्सवाद में गरीब की चर्चा एक आवश्यक विषय है। यहां इस बात की तसदीक जरूरी है कि वास्तविक धरातल पर क्या कभी गरीब के लिए कुछ ठोस कार्य किया गया है ? जिससे उनकी गरीबी वास्तव में दूर हुई है ? बल्कि गरीबी के आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं। क्यों ऐसा है कहां चूक हुई है ? वैसे भी समय-समय पर वर्तमान और भूतकाल की समीक्षा जरूरी है तब ही तो भविष्य की योजनाएं बनती हैं।
इस देश में धर्म के अधीन जीने वाले समाज के लिए उस तरह की योजनाओं की आश्यकता है। भले ही हमें समाज दकियानूसी घोषित करता रहे। समाज का बड़ा वर्ग बल्कि लगभग पूरा ही अपने धर्म के प्रति, संस्कार के प्रति डूबा हुआ है इसलिए वह उसे चोट पहुंचा नहीं सकता है। यहां खेती, वृक्ष, नदी, तालाब की पूजा से जीवन को ही पूजा बनाकर रखा गया है। इसलिए इन सबको सहेजते हुए उनके विकास की योजनाएं जल्दी और ठोस रूप से सफल होंगी।
भारत देश गांवों में बसता है कहने वाले ये नहीं बताते कि भारत गांवों का समूह है बल्कि उनका मतलब है ग्रामीण जीवन शैली का आदी है वो। गांवों में खेत और अन्न के इर्द-गिर्द जीवन का हर एक पल गुजारने वाले लोगों की जीवनचर्या को जो कि धर्म भी है उनका, कैसे उसे जड़ां से कोई काट पायेगा! भारत को भारत के तरीके से आध्ुनिक विकास की ओर ले जाना होगा। एक ऐसा संतुलित विकास जिसमें विश्व की आधुनिक जीवन शैली हो और खेत भी हों। ये सपना ठीक महात्मा गांधी जी का है क्योंकि उनके बारीक अध्ययन ने जाना था कि भारतीय संस्कारों से बढ़कर शायद ही कोई संस्कार हो, इसे सहेजने की आवश्यकता है, बनाये रखने और पल्लवित करने की आवश्यकता है। इसलिए उन्होंने ग्राम स्वराज्य और कुटीर उद्योग को बढ़ावा देना चाहा। उन्होंने खादी को प्रतीक के रूप में मेहनत और संस्कार को सहेजने की बात की।
वैसे भी जिस जमीन में हम रह रहे हैं उसकी उर्वरा शक्ति को हम ही समझ सकते हैं। हम ही जान सकते हैं कि क्या उगाया जाय।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि व्यक्ति को अपने जीवन में थोड़े-थोड़े वक्त में रूक कर और पीछे मुड़ कर देखना चाहिए कि हम कहां से शुरू हुए और कहां जाना चाहते थे। जिस मार्ग को चुना है वो क्या अनुकूल था! इसलिए किसी भी सिद्धांत को लगातार थोपे रहने की जगह उसका समयोचित अध्ययन और समीक्षा आवश्यक है। भारतीय संस्कार तो इतने पुराने होने के बाद भी समय समय पर संशोधित होते रहे और आज भी लचीले हैं।
गांधी जी की 150वीं जयंति पर उनके विचारों का पुर्नपाठ और उसी वक्त के मार्क्स के विचारों से उनकी तुलना समीचीन है। आज भी हम दोनों को एकसाथ रखकर देश को खींच रहे हैं। दोनों को लेकर चलने की कोशिश की जा रही है। पर हो क्या रहा है हम सब उससे अनछुये नहीं हैं। वर्तमान मांगता है कि दोनों का पुर्नपाठ हो और आवश्यकतानुसार पुर्नस्थापना भी। दोनों के विचारों पर केन्द्रित श्रेष्ठ विश्लेषण इस अंक का प्राण है। वर्तमान अंक का ’बहस’ कॉलम मौलिकता से लबरेज ’’मार्क्स एवं गांधी बनाम मार्क्सवाद एवं गांधीवाद’’ इतिहास का अध्ययन हम सबको दोनों के करीब लेकर जायेगा और चिंतन करने पर मजबूर कर देगा। हम सोचने पर मजबूर हो जायेंगे कि भारत में ’क्यों हुआ, क्या हुआ और क्यों हो रहा है।’ हम मोटी मोटी पुस्तकों को पढ़ नहीं पाते हैं पर उसकी समीक्षा हमें सबकुछ साररूप में निचोड़ कर सामने रख देती है बिल्कुल विटामिन की गोली की तरह।
तो आइये हम अपने महात्मागांधी युग को आत्मसात कर समझने का प्रयास करें। उस वक्त की परिस्थितियों को जानें कि किन कारणों से आज का समय है। क्योंकि भूतकाल की नींव पर वर्तमान का भवन टिका होता है चाहे वह कंडम स्थिति में हो या फिर शानदार बना हो। वह नींव ही निर्णय लेती है कि भवन अब बना रहे या फिर गिरा दिया जाये। हम भले ही कोशिश में होते हैं कि रंगरोगन और रफूगिरी से सुंदरता बनाये रखें।
वैसे भी इस देश में न जाने कितनी ही सदियों पूर्व बनाये गये भवन आज भी तरोताजा हैं। सनत जैन, संपादक