अंक-17-बहस-4-सिद्धांत और व्यवहार

4-सिद्धांत और व्यवहार

चौथा दिन-
’’आप सबके जेहन में सवाल आया होगा कि जब हमारे बीच इतने पंडित, संत और ज्ञानी मौजूद रहे हैं और हमारा रास्ता भी बताते रहे हैं तो बावजूद इन सबके मानव जीवन का अधिकांश हिस्सा असंतोष, भेदभाव और जीवन से जूझते हुए बीतता है। क्यों ? क्यों गांधी या बुद्ध या जैन या वेद की तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता या मार्क्स जैसा मानव हित चिंतन करने वाले की अनदेखी होने लगती है। मतलब कि मानव संस्कृति-सभ्यता पर लालच, भ्रम और भ्रामक ख्वाब हावी हो जाते हैं। जिस स्वप्न को मार्क्स ने हकीकत में बदलने का रास्ता दिखाया, वहीं उसी स्वप्न को दिवास्वप्न बनाकर पूंजीपतियों ने मानव हवस को घी की आहुति दी।’’
’’यदि आप मुझसे एक शब्द में पूछे तो इस दुनियावी विडंबना, भेदभाव और शोषण का वास्तविक कारण क्या ? मैं कहूंगा-मानव तृष्णा! लालच-लोभ! इस तृष्णा भाव ने सदियों से मानव इतिहास को प्रभावित किया है। महाभारत काल से लेकर आज तक। थोड़ा प्रसंग से हटते हैं और एक पौराणिक कथा को सुनाते हैं। प्रसंग रामायण का है-इस कथा को विद्वानों ने अपनी-अपनी रचना में विविध नजरिए से बातें ढूंढी है।’’
हनुमान कथा प्रसंग आते ही हमारे चेहरे आगे की ओर झुक गए। चाव तो पहले से ही आ रहा था अब समझिए दाल में तड़का लग गया। भोगन पंडित हलुवा खा कर या भीखू पहलवान सतुआ अचार पचाना और पादना भूल गए।
’’हनुमान जी समुद्र पार कर रहे थे। मार्ग में सुरसा नाम की राक्षसी ने उनका रास्ता रोका। उसने कहा वह भूखी है और हनुमान जी को अपना आहार बनाना चाहती है और हनुमान जी ने विनय पूर्वक तर्क दिया कि वह ’राम-काज’ में लगे हैं अतः उनका कर्तव्य पूर्ण होते ही वह उसका ’आहार’ बन जाएंगे। मगर सुरसा ने तर्क दिया कि एक भूखे की भूख मिटाने से बढ़कर कोई बड़ा धर्म नहीं हो सकता, चाहे वह ’राम-काज’ ही क्यों ना हो। हनुमान जी समझ गए कि यह सुरसा की भूख राक्षसी रूप लेने वाली है। ऐसे नहीं मानने वाली। हनुमान जी ने बड़ी चतुराई दिखाई। जब वह उन्हें निगलने के लिए मुंह फाड़ती, हनुमान जी अपना कद उतना ही विशाल कर लेते जिससे वह उन्हें निगल न पाती। देखते देखते सुरसा ने अत्यंत विशाल सा मुंह फाड़ा। वह मुख जो भूखा था अपने आहार के लिए। हनुमान जी ने चट् से अपनी काया लघु की बिल्कुल मक्खी समान और सुरसा के मुंह में जा घुसे, और तुरंत वापस! हनुमान जी ने विनम्रता पूर्वक कहा – लो! वे उसके आहार बन गए, एक भूखे का मान रखा। हवन के हविश बन गए, अब उन्हें राम-काज की आज्ञा दें। सुरसा हनुमान की इस चतुराई, भूखे के प्रति उनके दृष्टिकोण की प्रशंसा की और उनके लिए सफलता की कामना प्रेषित की।’’
’’प्रसंग यहीं समाप्त हो जाता है मगर अर्थ के नए-नए परत खुलते हैं। महाकवि ने भूख की महत्ता और भूख के प्रति प्राणियों के पहलू को उच्च गरिमा प्रदान की है। यह निश्चित है, साथ ही क्या सुरसा का विशाल होता जाता भूखा मुंह उसके भूख या कहें उसकी तृष्णा-लालच का प्रतीक नहीं! लालच और जरूरत में बहुत बारीक फासला होता है। वह यहां दिखता है। लालच कब हवस में बदल जाए -मालूम ही नहीं चलता। दूसरी ओर विशाल मुंह और भक्ष्य का अत्यंत छोटा बनकर तृप्त करना -अर्थात यह कथा यह भी संकेत करती है कि अगर थोड़े में हमारी भूख शांत नहीं होती तो शायद यह कभी शांत होने वाली नहीं। मुंह फाड़े जाएगी। तृप्ति मामूली सी चीज से हो सकती है। कथा एक है मगर एंगल अनेक…..। मैं आप सब पर छोड़ता हूं कि आप इस कथा में क्या देखते हैं।’’
पितामह रुके। एक गिलास पानी पिया। खैनी-चूना चीनी की ओर बढ़ाए। मतलब घीसो आराम से -कड़क खैनी बनाओ। देखते-देखते भीखू और बिलार सिंग भी आपन-आपन पोटली खोल लिए।
’’फिलहाल, इस प्रसंग को पीछे छोड़ते हैं और इस बात की पड़ताल करने की कोशिश करेंगे कि इसी लालच ने, मानव हवस ने किस तरह मार्क्स को पीछे धकेल दिया या गांधी को अमल में नहीं आने दिया।’’
’’किस तरह ?’’ हम सबके मन ने एकबारगी सवाल किया।
अब तक आस-पास के गांवों में भी पितामह की बातों का चर्चा होने लगी थी। लोग चर्चा करते और सुनकर उत्सुक हो चौपाल में शरीक होते। आस-पास के पढ़े-लिखे विद्यार्थी भी पहुंचने लगे थे। इसका यही अर्थ था कि पितामह की बातें सुनी और समझी जा रही है। लोगों में उत्सुकता है। वे शायद पूरी तरह ना सही मगर कुछ तो हासिल कर रहे हैं।
पितामह आगे बढ़े-’’तो हम कह रहे थे कि इतने अच्छे विचार क्यों नहीं टिके ? क्या कमी रह गई थी ?‘‘
’’पहली बात तो यह कि कोई भी भाव या भाव से उत्पन्न विचार अपने देश, काल और परिस्थितियों की उपज होती है। मार्क्सवाद भी इसका अपवाद नहीं था। मैंने पहले ही बताया है कि किस तरह किन परिस्थितियों ने मार्क्स के हृदय को छुआ। श्रमिकों के शोषण ने उन्हें सोचने पर विवश किया और परिकल्पनाएं की। सिद्धांत गढ़े। जैसे ही परिस्थितियां अनुकूल हुई -आम आदमी की मेधा बड़ी खराब होती है -वह भीड़ की शक्ल में विचारहीन हो बिछड़ने को हमेशा तत्पर रहती है। वह अपनी पूर्व दशा से कुछ सीखता नहीं, बल्कि वह आसमान और आसमान के तारे देखने लग जाता है। आम श्रमिकों ने अपनी उपलब्धि कम और भविष्य अधिक निहारने लगे। वह जाने-अनजाने अपने सीमित साधनों से आगे आने के सपने देखने लगे। दो कमरे का घर, आठ घंटे की ड्यूटी, स्कूल, स्वास्थ्य, स्वच्छ भवनों की रिहाइश, अब सामान्य सी बात लगने लगी थी। यह तो जैसे उनके अधिकार में सदियों से थे। उनके मूल्यों का आकलन आमजन कहे जाने वाले श्रमिक या निम्न मध्यवर्ग का या मध्यम वर्ग के लोग नहीं कर पाए। ये कोई ऐतिहासिक त्रुटि नहीं थी -यह आवाम कहे जाने वालों की मेमोरी का सवाल था। ये क्षणों में जीते हैं -ये तब-तक विचार करते हैं जब-तक इनके मस्तक में ठूंसा ना जाए। ये अपनी लाचारी के लिए सच पूछो तो स्वयं ही जवाबदार होते हैं। कई बार ये अपनी स्थिति सुधारने के प्रति लापरवाह होते हैं या सुधारना ही नहीं चाहते। हमेशा किसी मसीहा की प्रतीक्षा में बैठे। अपने कर्म को नियति माने बैठे। ये भीड़ जब तक यह ना समझेगी कि भीड़ लोगों की एक इकाई भी है -जिसका सार्वजनिक उतना व्यक्तिगत भी, जितना समष्टिपरक उतना व्यष्टिपरक भी -तब-तक वह स्वयं के प्रति न्याय नहीं कर पाएगी। स्वयं को भेड़िया धसान विचारों में डूबा देनेवाले ये आम लोग स्वयं का निजी अस्तित्व समझे -और इस बात को हर उस शख्स को समझना होगा। जो बात स्वयं समझनी है उसे बाहरी व्यक्ति कैसे समझाए? समस्या यही है- यहां घंटी बिल्ली के गले में नहीं, बल्कि अपने गले में लटकानी है। हमेशा इंकलाबी अंदाज में नहीं जिया जा सकता। सतर्क और खुली प्रज्ञा के साथ ही बेहतर जीवन हासिल की जा सकती है -और यह बात हम सब पर लागू होती है।’’
’’हम कमियां सिद्धांतों में निकालते हैं – पर अपनी नहीं। सच तो यह है कि मानव मन को उद्वेलित करने वाले विचार देश-काल-परिस्थितियों के परे नहीं होते, चाहे बौद्ध दर्शन हो, चाहे जैन, चाहे ओशोवाद या और कोई धर्म या संप्रदाय – हमेशा तलवारें म्यान से निकली नहीं रह सकती। तीर हमेशा धनुष पर तना नहीं रखा जा सकता। क्रांतिकारी विचार भी ऐसे ही तनी हुई तलवारों की तरह होते हैं। चाहे राष्ट्रीयता का भाव हो या ना हो श्रमिकों का अंतरराष्ट्रीय यूनिटी हो -सबका प्रतिफल वही होता है। मार्क्सवाद के साथ भी वैसा ही हुआ। आलोचक आलोचना करते हैं कि मार्क्स ने मानव श्रमिकों को एक साइको-बेइंग अर्थात् हाड़-मांस का वैसा पुतला जिसमें लालच जैसी चीज पनप सकती थी -उसे अनदेखा किया। श्रमिकों को एक लेवल के तहत ’वर्ग’ में फिट कर दिया। समाज को वर्गों में विभाजित कर अनवरत संघर्ष का मैसेज तो मार्क्स ने दिया मगर इस स्थिति पर नजर नहीं डाल पाए कि जब वर्ग संघर्ष कमजोर पड़ जाएगा तो यही श्रमिक वर्ग आगे क्या करेगा। और वही हुआ। श्रमिकों-मध्यम वर्ग में भ्रष्टाचार धीरे से प्रवेश किया। इधर पूंजीपतियों की जगह स्टेट कैपिटलिज्म ने ले ली। अर्थात जिस प्रकार एक पूंजीपति किसी ना किसी तरह ’लाभ-हानि’ में बही-खाते में जीने को विवश थे, वही विवशता मार्क्सवाद प्रेरित राज्यों ने भी महसूस की। मार्क्सवादी राज्य एक ओर अपने श्रमिकों-कर्मचारियों के लिए एक आदर्श जीवन-सुविधा मुहैया कराने को प्रतिबद्ध थे तो दूसरी ओर उनके सामने वित्तीय घाटे (पिदंदबपंस सवेमे)जैसी समस्या मुंह बाए खड़ी थी, उसपे भीतर ही भीतर पनपता भ्रष्टाचार! जिस भी अधिकारी, कर्मचारी, निगम या निकायों को मौका मिला उसने सार्वजनिक सम्पत्ति को क्षति पहुंचाई। चोरी, रिश्वतखोरी, कमीशन खोरी जैसी -आम समस्याएं यहां भी देखने को मिली। और व्यापक पैमाने में सुविधाओं का सभी ने कमोबेश दुरुपयोग किया। नतीजा यह हुआ कि भारी निवेश जैसे सड़कें, रेलवे लाइन, स्वास्थ्य इत्यादि क्षेत्रों में राज्य के वित्तीय घाटे लगातार दबाव बनाते गए। विदेशी पूंजी कमजोर पड़ा। आयात निर्यात संतुलन बिगड़ गया। सरकार के पास आयातित सामग्री के मूल का कर्ज चुकाना तक मुश्किल होने लगा। वैसे में स्टेट जो समस्त उत्पादों पर नियंत्रण रख रही थी -दुविधा में पड़ गई थी कि मार्क्सवादी श्रमिक-कर्मचारी सुविधाएं दी जाए या राज्य की बड़ी योजनाओं में निवेश किया जाए। निवेश के लिए पैसे नहीं और मार्क्सवादी सिद्धांत के अनुसार निवेश हेतु प्राइवेट कंपनी/पूंजी के बारे में सोचा तक नहीं जा सकता था। दोस्तों! चाहे कारण और भी कितने हो, दोष किसी का हो, नतीजा यही निकला कि राज्य अपना आर्थिक संतुलन खो बैठे। राज्य ’घाटे की वित्त व्यवस्था’ कब-तक करती। सफेद हाथी खाते बहुत ज्यादा और हगते कम। मार्क्सवाद का सफेद हाथी उन महावतों को भी खूब निखारा।
मार्क्सवादी उत्पाद पूंजीवादी उत्पादों की तुलना में महंगे साबित हुए और बाजार में टिक नहीं पाए। अर्थव्यवस्था का एक दुष्चक्र प्रारंभ हुआ -ऐसा दुष्चक्र जिससे निकलने का रास्ता नहीं। लेनिन जैसे महान नेता के समय ही सोवियत रसिया को भारी निवेश हेतु पूंजीपतियों की आवश्यकता आन पड़ी। अपने प्रथम मार्क्सवादी नेता के कार्यकाल में ही मार्क्सवादी विचारों से विचलन किसी भी मार्क्सवादी विद्वानों को हजम नहीं हुआ। लेनिन की आलोचना भी की गई। आलोचकों ने तो इसे स्टेट कैपिटलिज्म के साथ-साथ सिद्धांतों के साथ तानाशाही, ’राह से भटकाव’, पूंजीवाद की ओर इत्यादि शब्दों से विभूषित किया। तब लेनिन ने अपना पक्ष रखते हुए उसने बड़ी स्पष्टता से यह कहा कि इस कदम से मार्क्सवाद कमजोर नहीं बल्कि और मजबूत होने वाला है। उसने बताया कि स्टेट ने आखिर ऐसा क्यों किया। और उसका यह नारा मार्क्सवादी विचार के इतिहास में बड़ा मायने रखता है जब उसने यह कहा कि- ‘हमें एक कदम आगे बढ़ने के लिए कभी-कभी दो कदम पीछे की ओर लौटना पड़ता है।’’
’’लेनिन के इस ऐतिहासिक कमेंट में बड़ी सच्चाई छिपी है। एक ऐसी सच्चाई जो सिद्धांतों और व्यवहार के अंतर को तो साफ-साफ दिखाता ही है, उसके इंटेंशन को भी स्पष्ट करता है। लेनिन कहीं से भी पूंजीवाद का समर्थक नहीं था, वास्तव में उसके पास जो विकल्प उस वक्त मौजूद थे -वे देश-काल परिस्थितियों के सापेक्ष थे। उनकी मीमांसा हम आज या अन्य या मात्र मार्क्सवादी ग्रंथ के नजरिए से नहीं कर सकते। क्या मार्क्स ने कभी अपने ’वाद’ में भ्रष्टाचार के आमंत्रण को प्रोत्साहित किया ? क्या मार्क्स ने कभी माओ या तावो को कहा या कहीं अपने सिद्धांत में लेखबद्ध किया कि सत्ता के लिए बंदूक उठाओ। नहीं!’’
’’दोस्तों! एक कदम आगे और दो कदम पीछे चलते हुए मार्क्सवाद स्टालिन के हाथों में पहुंचा। स्टालिन ने मार्क्सवादी विचारों को लागू करने के लिए लगभग तानाशाहों जैसा व्यवहार किया। अपने से विरोधी विचारधारा या स्टेट की नीतियों की आलोचना करने वालों साहित्यकारों, पत्रकारों का दमन प्रारंभ किया। विरोधियों को सुदूर साइबेरिया भेजा जाने लगा। और यह व्यापक पैमाने पर हुआ। स्टेट ने शोषण का एक दूसरा शक्ल अख्तियार किया। मालूम कि मार्क्सवाद जैसे विचार पढ़े लिखे लोगों के बीच बौद्धिक होने के कारण ही फलित हुआ -ऐसे विचार हमारे मुल्क में क्या हश्र पाते हैं आप देख चुके हैं। पर पूर्वी यूरोप और यू.एस.एस.आर. के शिक्षित लोगों के बीच विचार द्वारा विचार का खंडन-मनन चाहे जिस कोण से किया गया होगा – सत्ता ने (स्टालिन) स्वयं पर एक प्रहार समझा और भीतर-भीतर सत्ता ने वे सारे दमन के रास्ते अख्तियार किए। आम जनों ने इसे स्पर्श किया। देखा, सुना, समझा। सच आखिर सच होता है -एक नए तानाशाही से जनता विभ्रम में आ गई। मार्क्सवादी कल्पना बहुत पीछे छूट गया। लेनिन की स्वीकारोक्ति तो आलोचकों ने क्षम्य भी कर दिया पर इस नई तानाशाही से आम लोगों को भीतर ही भीतर अवश्य झिंझोड़ कर रख दिया होगा। और ऐसी तानाशाही दुनिया में जगह-जगह देखने को मिली। श्रमिक यूनिटी के नाम पर मिलों के लंबे हड़ताल -इतनी व्यापक मांगें कि मिल मालिक का कमर ही टूट जाए और फैक्टरी बंद करनी पड़े।’’
’’इस तथ्य को एक उदाहरण से समझिए’’-पितामह थोड़ा रूके। समझ गये खैनी ठोंके का टाइम आ गया। मौके का फायदा सब ने उठाया। कुछ उठकर लघुशंका निर्मूल किए। संध्या बेला करीब थी। सूरज अस्त हो चुका था। आरती का समय भी बहुत दूर नहीं था। हम पितामह की प्रतीक्षा करने लगे।
’’तो हम यह बताना चाह रहे थे कि सत्ता हो या व्यक्ति जब अपनी बात पर अड़ जाए और शक्ति का प्रयोग संतुलन से अधिक अपना पक्ष रखने में करने लगे तो समझिए तानाशाही का सुंदर नमूना है। स्टालिन तो यह नमूना पेश कर रहे थे -मार्क्सवाद के भीतर बहुत सारे अर्द्धज्ञानी सिद्धांत वादी नेता भी प्रगट हो गए जिन्होंने तानाशाही का रास्ता अपनाया। उदाहरण स्वरूप लीजिए फैक्टरी के यूनियन नेता का। स्टेट चाहे पूंजीवादी हो या मार्क्सवादी -मार्क्स के प्रभाव में सारी दुनिया में श्रम कानून, श्रम संगठन और यूनियन नेताओं को वैधानिकता करार की गई। इसका सीधा मतलब था यूनियन के नेताओं के मार्फत पब्लिक ग्रीवांसेज (श्रमिकों, आम लोगों की शिकायतें, सुझाव, सुविधाएं इत्यादि) फैक्टरी के मैनेजमेंट से मिलकर सुलह-शांति कराना इन का दायित्व था, इसे कानूनन मान्य भी किया गया, यहां तक कि हड़ताल पर जाना काम ठप्प करना भी इसमें शामिल कर लिया गया था। यह अधिकार क्यों ? क्योंकि श्रमिकों की जायज मांगें अनदेखी ना रहे। उन्हें उनके अधिकारों से वंचित ना होना पड़े। पर व्यवहार में कुछ ऐसे यूनियन के नेता देखे गए कि यों तो वे मैनेजमेंट के समक्ष पूरी तरह घुटने टेक दिए और एक तरह से मजूरों-श्रमिकों के हक नहीं दिलवा सके। दूसरी ओर ऐसे भी यूनियन नेता हुए जो श्रमिकों के नेता होने के जुनून में मैनेजमेंट की समस्या नहीं सुन पाए और अनवरत लंबे हड़ताल, काम रोको इत्यादि अवरोधों-हथकंडों का ऐसा इस्तेमाल किया कि फैक्टरी ही बंद करनी पड़ी। ऐसे दुनिया भर में सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं। खुद अपने स्वतंत्र भारत में ऐसे खूब सारे उदाहरण मिल जाएंगे। दोनों ही स्थिति चाहे यूनियन का नेता मैनेजमेंट की ओर झुकता है और दलाली करता प्रतीत होता हो या श्रमिकों के जायज-नाजायज मांगों के समर्थन में खड़ा दिखता हो -क्षति मार्क्सवादी सिद्धांत की ही होती है। कभी भी ग्रंथ या सिद्धांत अपने आप में इस अर्थ में संपूर्ण नहीं होते -वे पूर्ण (परफ्ेक्ट) होते हैं मगर एब्सलूट नहीं। उन्हें संपूर्ण करने की जवाबदारी हमारी होती है। हम पास होते हैं तो सिद्धांत की मान्यता बढ़ती है, हम फेल होते हैं तो सिद्धांत की बदनामी होती है। क्या बुद्ध ने कभी कहा था कि मेरे जाने के 500 या 1000 साल बाद बौद्ध धर्म के हजारों संप्रदाय तैयार कर लेना। और इसमें से सभी का वही दावा कि हम असली बौद्ध हैं। यह सच है या सत्य का विभ्रम! सच का विद्रूप!’’ ’’दोस्तों! कंपनी का मालिक यूनियन से समझौता ना हो पाने की स्थिति में फैक्टरी लॉक कर देता है। क्या होता है हजारों स्थानीय मजदूर बेगार हो जाते हैं। उन्हें काम के लिए अतिरिक्त जगह तलाशनी पड़ती है। उस स्थान की क्रयक्षमता प्रभावित होती है। कंपनी के मालिक को क्या -वह भूखा तो मरेगा नहीं, कंपनी कहीं और स्थापित कर लेगा। और मार्क्सवादी इतिहास में इस तरह की विसंगतियां खूब मिली।’’
’’इस बात को कुछ अलग तरह से रेखांकित करते हैं फिर आज की सभा स्थगित।’’ -पितामह बोले -‘‘मान लीजिए किसी फैक्टरी में हड़ताल जारी है -महीनों गुजर गए -मैनेजमेंट और यूनियन के बीच समझौता नहीं हो पा रहा है। दोनों अड़े हैं। कंपनी का मालिक फैक्टरी बंद करने को तैयार है -मगर यूनियन की मांग स्वीकार नहीं। इधर यूनियन का नेता कहता है कि यह कोरी धमकी है, हम अपना हक लिए बिना पीछे नहीं लौट सकते!’’
’’अब यहां थोड़ा ठहरिये और विचार कीजिए -वर्ग संघर्ष का चरित्र (क्लैश) तो दिख रहा है मगर इसका अंजाम क्या हो ? मार्क्स ने क्या कहा, क्या नहीं कहा, क्या और क्या नहीं से परे दोनों पक्षों के बीच आपसी सामंजस्य ही मार्क्स का उत्स रहा है। आखिर मार्क्सवाद श्रमिकों का पक्ष लेकर उनके लिए एक रास्ता तैयार करते हैं -पर वही रास्ता यदि कहीं जाकर सिद्धांत के तानाशाह कहते हैं कि दो महीने और भूखे रहो -मैंनेजमेंट झुक जाएगी। पर ऐसा होता नहीं। और मार्क्सवाद का सारा ताना-बाना बिगड़ जाता है। बेबस श्रमिक मैनेजमेंट के आगे झुक जाते हैं, ड्यूटी ज्वॉइन कर लेते हैं -कुछ को कंपनी निकाल देती है, कंपनी अपनी क्षमता घटा लेती है या बाहर से श्रमिकों की आपूर्ति करने लग जाती है -या फिर करोड़ों की फैक्टरी ही बंद कर देती है। क्षति श्रमिकों और मार्क्सवादी सिद्धांत की अवश्य होती है। और यह लड़ाई सीधी-साधी नहीं रह पाती -गुंडे पाले जाते हैं -फैक्टरी में तोड़-फोड़, चोरी-डाका पड़ता है। मार-पीट और झगड़े होते हैं। अर्थात सिद्धांत से पूरी तरह विचलन!’’
पितामह उठ गए। हम लोग भी। फिर आज की बात पर हम लोग चर्चा किए और अगले दिन की प्रतीक्षा में अपने-अपने घर निकल गए।