अंक-17-बहस-8-विस्थापन

8-विस्थापन

’’प्राकृतिक संतुलन चाहे तकनीक से बिगड़े अथवा युद्ध के कारण, प्राणियों का विस्थापन निश्चिंत है। यह अपेक्षाकृत आबादी होती है इनका अपने परिवेश से कोई द्वन्द नहीं होता’’
आज पितामह के ज्ञान-गंगा छठे दिन भी प्रवाहित थी। वर्षा ऋतु के समीप होने का आभास होने लगा था। इस आधुनिक कथा से मानो हमारा समय अपने काल और स्थान के परे चला गया था। हम मानव आबादी की दशा-दुर्दशा की कहानी सुन रहे थे -शायद आदिकाल से। एक बात थी -हमेशा निरीह प्राणी भुगते गए। चोट और पीड़ा उन्हीं के हिस्से आई। और किसके कारण ? यही सक्षम मानव कहे जाने वाले चंद लोगों के कारण! मनुष्य ने ही मानवों पर जुल्म किए, जबर का प्रयोग किया। लाखों लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान जबरिया स्थानांतरित किया। स्थानांतरण कोई पर्यटन-यात्रा ना थी। पीड़ादायक थी। भूख-अकाल, महामारी, युद्ध, बाढ़, बीमारी तो समझ में आता है -मगर जबरन थोपे गए युद्ध और मानव के तकनीकी क्रांति ने बड़ी आंतरिक तबाही मचाई।
’’मानव समुदाय का समूह में विस्थापन हमारे इतिहास में दर्ज है -मगर आए दिन एक ऐसा विस्थापन मानव के भीतर घटित हो रहा है जिसका गवाह स्वयं मानव नहीं बन रहा पा रहा है। कुछ समझ में आ सके -वह जहां है वहीं से विस्थापित हो जा रहा है।’’
’’ये कैसे संभव है की कोई तकनीक मनुष्य के मन में अधिकार स्थापित कर ले और वहीं उसी जगह से उसे अपदस्थ कर दे ?’’
हमने देखा कि वर्षा ऋतु प्रारंभ हो गई। मूसलाधार बारिश भी हुई। धरती के बिल में समाने वाले प्राणी सतह पर विचरण करने लगे। मेंढकों की तरह टर्राहट से सर्वत्र संगीत सा माहौल हो गया। झिंगुर और कीड़े, मच्छर और सर्प सभी सामान्य हो गए। टूटे छज्जों की मरम्मत की गई। पानी के प्रवाह के लिए सही निस्तार खोदे गए। नालियां गहरी की गई। खर-पतवार चमक उठे। वहीं किसानों का काम बढ़ गया। यही तो मौसम है -हल जोतो, बीज रोपो, अवांछित खर-पतवारों को निर्मूल करो। मेढ़ों को ऊंचा कीजिए। उन्हें ठोक-पीटकर मजबूत कीजिए। वृक्षों के पत्ते गहरे हरे रंग में रंग गए। उन्हें नया प्राण मिल गया। चारों ओर हरियाली। किसी के आने और जाने का प्राकृतिक सिलसिला कोई नया नहीं है।
हम तो पितामह के ज्ञान प्रवाह के छठे दिन में स्थित थे -हममें प्रतीत हुआ हम सब तो अपनी कोठरी में है -मिंत्रों के साथ चाय-चबेना, भाजी-पकौड़ी के साथ। पितामह तो कहीं नहीं थे।
क्या उनका ज्ञान, उनकी कथा हम सब में विस्थापित हो गयी थी ? और, हमें कुछ विस्थापित होने के कारण हम स्वयं भी अपदस्थ हो गए थे। कहां से ? यह कैसा विस्थापन था ?
चौपाल पर तो कोई नहीं था। सिर्फ चारों ओर रिमझिम वर्षा! ना भोगन पंडित था ना ही धूरेंफेंकन और और ना ही पितामह! फिर यह पितामह की बातें हम सबके चित्त में, ध्यान-मनन में कैसे ?
शायद इसलिए कि मानव हाड़-मांस से अधिक भाव-प्रबल प्राणी है। हम चौपाल से विस्थापित होकर भी चौपाल में ही जी रहे थे। पितामह हमारे समक्ष ना होकर भी उनकी बातें हम में प्रवाहित थी।
हमें प्रतीत हो रहा था और पितामह कह रहे थे-
चाहे आग हो या पहिया -मानव जीवन को आमूल रूप से बदल कर रख दिया। लकड़ी और लोहे ने कुछ वैसा ही किया। जब बैलों और घोड़ों की जगह आधुनिक मोटर गाड़ियां बाजार में आ गई है तो अस्तबल के मालिक और गो-पालकों पर आ पड़ी। वे अपने ही घर से विस्थापित हो गए। जब मशीनी आविष्कार ने भेड़ों को निगलना प्रारंभ किया। जब गांव-गांव से चरखा और सूत कातने की पुरानी पद्धति अपदस्थ हो गए और उनकी जगह मशीनी, बारीक और अपेक्षाकृत मजबूत धागे और उससे तैयार वस्त्र बाजार में आने लगे । यूरोपीय कवियों ने लिखा -मनुष्य की तकनीक हमारी बाड़ के भेड़ों को निगल गई। अर्थात भेड़ों के फर से जिनका जीवन-यापन चलता था उनकी आवश्यकता ना रही और वैसे ही फर मशीनों ने तैयार करने प्रारंभ किए।
पहले मशीनी क्रांति, फिर औद्योगिक क्रांति और अब सॉफ्टवेयर क्रांति। आप नजर दौड़ाएं -टेलीफोन, दूरभाष, रेडियो की क्या दुर्दशा है। लकड़ी, लोहा, फिर इस्पात, फिर प्लास्टिक और अब फाइबर! यह सारे आविष्कार हमारे जीवन में चुपचाप चले आ रहे हैं। डाक-खाना है मगर डाकिए का भाव लोप हो चुका है। वो ख़त जो कहता है- ’चिट्ठी आई है….’ हमारे भाव-जगत से अपदस्थ है। वो भाव जो प्रेयसी की आंखों और भौं की कल्पना किया करती थी -पल भर में एक क्लिक से आपके प्रोफाइल में मौजूद। कट और पेस्ट का जमाना! पल भर में। भावों का तत्काल ट्रांकॉल! पुराने टाइपराइटर दुनिया से समाप्त। पुरानी गाड़ियां समाप्त! डाक-टिकट और डाक-खाना का अस्तित्व हमारे जीवन में मुश्किल प्रश्न की तरह उपस्थित है, बस!
एक मशीनी क्रांति हमारे जीवन को निरंतर अपनी चपेट में ले रखा है -हम जहां हैं वहीं से हमारे भीतर प्रवेश पा रहा है -और हममें जो कुछ पूर्व संचित है उसे लगातार बड़ी खामोशी से अपदस्थ किए जा रहा है। हमें पता नहीं!
आश्चर्य! आश्चर्य!!
यानी तकनीक और मानव विकास जो हमें हमीं से छीन ले। हमसे प्रेम भाव छीन ले -हमारा धैर्य झपट ले, हमारे मन की शांति लूट ले। हम में वो चीज ठूंस दे जिसकी आवश्यकता ही नहीं। वह हमारे शयन-कक्ष में, हमारे बाथरूम में और ड्राइंग रूम, हर जगह हमें समेटे रखे। हम चारों ओर से घिरे -गुलाम! और मजा की हमें हमारे अस्तित्व बोध का ज्ञान नहीं!
जिस मनुष्य ने तकनीकी तरक्की की उसी तरक्की ने मनुष्य होने की गरिमा और भाव पर ही सवालिया निशान उठाए ?
जिस तरह नव उपनिवेशवाद आया नव साम्राज्यवाद के नए नए चेहरे आए -क्या नव गांधीवाद या नव मार्क्सवाद का आगमन भी होगा ? एक ऐसा सिद्धांत या भाव या विचार जिसमें मनुष्य एकाकी होकर अपने धागे स्वयं काते, चरखा चलाए। या फिर वह स्वयं का यूनियन और स्वयं का मैनेजमेंट कर सके ? वह स्वयं को संगठित करने वाला सिद्धांत कहां है ? क्या विश्व को नए सिद्धांतों, नए विचारों की आवश्यकता है या फिर हर चीज नियति पर छोड़ दी जाए -घटना घटते हुए को देखते जाएं।
सवाल धागे की तरह लंबे होते जा रहे हैं। इसका एक सिरा हाथ में आता है तो दूसरा सिरा कहीं गुम! वह कैसा है उसका स्वरूप ?
जब मानव ने अपना भस्मासुर तैयार कर ही दिया है तो कोई मनमोहिनी ख्याल भी होगा जहां ऐसे भस्मासुर पछाड़ खाते हैं।
मन -मन पर, चित्त-चित्त पर जिस तकनीक ने राज किया है और हमारा सारा संतुलन तहस-नहस कर दिया है -उसका हल शायद मानव-मानव का मन और चित्त ही हो जहां उसकी अदालत में आरोपियों की पहचान हो -जहां वह स्वयं अपनी जिरह करे -स्वयं जज करे और स्वयं ही आरोपी को दंडित करे। यह कुरुक्षेत्र एकाकी मनुष्य को अपनी एकाकी दुनिया में लड़नी होगी। शायद!
जिस तरह तकनीक और मशीनें हममें व्याप्त हैं उसी तरह मानव हित के विचारक और सिद्धांतकार भी। बस, लड़ाई का मैदान पृथक होगा। जो घर में बेजा घुसा हुआ है -जो बेजा मानव चित्त को अपना अनावश्यक घर बनाए बैठा है -उसे अपदस्थ करना तो आपको ही है।
तकनीक और मशीन के हम दुश्मन नहीं -पर अति सर्वस्य, अतिरिक्त वरदान उसके सर पर क्यों ?
क्या हम पूरी तरह उखड़ जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं और उस दिन की राह देख रहे हैं कि कोई रोबोट हम पर हुकूमत करें ? बीमारी का इलाज आज ही क्यों नहीं ? बीमार के मर जाने की प्रतीक्षा क्यों ?